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रांची वाईबीएन डेस्क : रांची के अल्बर्ट एक्का चौक पर दुर्गाबाड़ी दुर्गा पूजा एक धार्मिक अनुष्ठान से कहीं अधिक है। यह 140 साल पुरानी परंपरा है जो आस्था और अनुशासन का प्रतीक बन चुकी है। इसकी शुरुआत 1883 में हुई थी और तब से यह आयोजन हर वर्ष सजीव रूप में आयोजित होता है। पूजा न केवल धार्मिक भावनाओं को जीवित रखती है बल्कि यह सांस्कृतिक विरासत को भी आगे बढ़ाती है।
प्रतिमा निर्माण का अनूठा तरीका
दुर्गाबाड़ी दुर्गा पूजा में प्रतिमा निर्माण की परंपरा अद्वितीय है। यहां “एक-चाला” शैली अपनाई जाती है, जिसमें सभी देवी-देवताओं की मूर्ति एक ही फ्रेम में बनाई जाती है। इसका श्रेय मूर्तिकारों की पीढ़ी-दर पीढ़ी चली आ रही कला को जाता है। पश्चिम बंगाल के झालदा से आए जगन्नाथ लहरी ने इस परंपरा की शुरुआत की थी, जिसे बाद में देवेंद्र नाथ सूत्रदार और उनके वंशज आज तक निभा रहे हैं। यह कला श्रद्धा और विश्वास की एक जिंदा मिसाल है।
ढाक की मधुर थाप
ढाक की गूंज दुर्गा पूजा का एक अहम हिस्सा है। दुर्गाबाड़ी में ढाक बजाने की परंपरा भी पीढ़ी दर पीढ़ी चल रही है। पश्चिम बंगाल के बांकुड़ा जिले का एक परिवार कई दशकों से इस भूमिका को निभा रहा है। पूजा के विभिन्न चरणों में ढाक की लय बदलती है बेल वरण में एक, संधिपूजा में दूसरी, सिंदूर खेला में तीसरी और विसर्जन में पूरी तरह अलग स्वर में बजती है। यह लय पूजा की भावनात्मक गहराई को बढ़ा देती है।
विजयादशमी का विशेष महत्व
पूजा का अंतिम दिन अत्यंत खास होता है। विजयादशमी पर विवाहित महिलाएं मां दुर्गा को पुत्री मानकर सिंदूर खेलती हैं। लाल सिंदूर से मां के चरण और चेहरे को सजाया जाता है, और महिलाएं एक-दूसरे को भी सिंदूर लगाती हैं। यह परंपरा सौभाग्य और भक्ति का प्रतीक है। विसर्जन के समय प्रतिमा को भक्तों के कंधों पर उठाकर ले जाना श्रद्धा का सबसे भावपूर्ण दृश्य प्रस्तुत करता है।
अनुशासन और समावेशिता
दुर्गाबाड़ी पूजा का विशेष आकर्षण इसका अनुशासन है। हर अनुष्ठान समयबद्ध तरीके से और नियमों का पालन करते हुए संपन्न होता है। पहले यह आयोजन मुख्य रूप से बंगाली समुदाय तक सीमित था, लेकिन अब इसमें बिहारी, ओड़िया, मराठी, गुजराती, पंजाबी और आदिवासी समुदाय भी शामिल होते हैं। इस बहुसांस्कृतिक सहभागिता ने इसे और अधिक जीवंत और समावेशी बना दिया है।
संस्कृति का अमूल्य संदेश
दुर्गाबाड़ी दुर्गा पूजा यह संदेश देती है कि आस्था और परंपराएं समय के साथ और भी मजबूत होती हैं। यह आयोजन सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं बल्कि झारखंड की सांस्कृतिक पहचान है। आने वाली पीढ़ियां इसे संजोकर रखती हैं, और यह परंपरा हर साल नए उत्साह और श्रद्धा के साथ जीवित रहती है।