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बिहार की राजनीति के इतिहास में 1995 और उसके बाद के सालों को हमेशा एक बड़े मोड़ के तौर पर याद किया जाएगा। 1995 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद यादव का जादू चरम पर था। जनता दल को उन्होंने बहुमत दिलाया और विपक्षी दलों को हाशिए पर धकेल दिया। लेकिन इसी जीत के कुछ साल बाद चारा घोटाले की गूंज ने बिहार की सियासत का पूरा परिदृश्य बदल डाला। लालू की कुर्सी हिली और 25 जुलाई 1997 को उन्होंने सत्ता अपनी पत्नी राबड़ी देवी को सौंप दी। यह बिहार की राजनीति के सबसे नाटकीय क्षणों में से एक था।
तब साधु यादव और सुभाष यादव का बढ़ा कद
राबड़ी देवी का मुख्यमंत्री बनना न सिर्फ अप्रत्याशित था बल्कि उस समय महिलाओं की राजनीतिक भागीदारी के लिहाज से भी यह एक बड़ा कदम माना गया। हालांकि आलोचकों का कहना था कि असली सत्ता लालू प्रसाद के हाथ में ही रही और राबड़ी देवी एक प्रतीक मात्र थीं। इसी दौरान सत्ता के केंद्र में उनके भाई साधु यादव और सुभाष यादव का कद तेजी से बढ़ा, जिससे सरकार की छवि प्रभावित होने लगी।
लालू यादव ने तोड़ दिया जनता दल
चारा घोटाले ने लालू प्रसाद की छवि को गहरी चोट दी। सीबीआई जांच और कोर्ट की कार्यवाही के बीच लालू ने राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए जनता दल को तोड़कर 5 जुलाई 1997 को राष्ट्रीय जनता दल (राजद) का गठन कर लिया। शरद यादव के साथ केवल 31 विधायक बचे, जबकि 136 विधायक लालू के साथ हो गए।
नीतीश कुमार ने बनाई समता पार्टी
दूसरी ओर, इसी दौर में नीतीश कुमार ने अलग राह चुनी और समता पार्टी बनाई। वहीं, भाजपा ने धीरे-धीरे खुद को मजबूत किया और कांग्रेस को पीछे छोड़ते हुए दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। 1995 के चुनाव में कांग्रेस केवल 29 सीटों तक सिमट गई और पहली बार तीसरे स्थान पर खिसक गई। यह कांग्रेस के लिए अब तक का सबसे बड़ा राजनीतिक झटका था।
चारा घोटाले के बाद बिहार की राजनीति में घटनाक्रम तेजी से बदला। हाईकोर्ट ने मामले की जांच सीबीआई को सौंपी और जांच का दायरा बढ़ते-बढ़ते सीधे लालू प्रसाद तक पहुंचा। जब उन पर शिकंजा कसना शुरू हुआ तो उन्होंने सत्ता छोड़कर परिवार के जरिए उसे बचाए रखने का रास्ता चुना। यह दौर बिहार की राजनीति में न सिर्फ सत्ता संघर्ष का गवाह बना बल्कि नए राजनीतिक समीकरणों और नेताओं के उदय का भी संकेत लेकर आया।