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बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए की भारी जीत और जन सुराज की कमजोर प्रदर्शन के बाद प्रशांत किशोर ने सियासी माहौल को और गर्म कर दिया है। चंपारण के भितिहरवा स्थित गांधी आश्रम में उपवास तोड़ने के बाद उन्होंने कहा कि बिहार का जनादेश लोकतंत्र की ताकत नहीं, बल्कि पैसे के जोर पर तय हुआ है। उनका दावा है कि चुनाव से ठीक पहले महिलाओं के खातों में दस हजार रुपये भेजकर वोट पर असर डाला गया। उन्होंने कहा कि औसतन प्रतिदिन साढ़े पांच रुपये में जनता की पसंद खरीदी गई और यही बिहार की राजनीति के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
प्रशांत किशोर का आरोप है कि वर्ल्ड बैंक से लिए कर्ज को योजनाओं के नाम पर मोड़ा गया और उसी राशि का इस्तेमाल वोटरों को प्रभावित करने में किया गया। उनके अनुसार नीतीश कुमार की व्यक्तिगत छवि पर कोई सवाल नहीं है, लेकिन उनके नाम के सहारे भ्रष्टाचार का ऐसा जाल खड़ा किया गया जिसने चुनाव की दिशा पलट दी। उन्होंने कहा कि गरीब परिवारों को ये पैसा राहत की तरह दिया गया, लेकिन असल में इससे उनके भविष्य और बच्चों के सपनों को नुकसान पहुंचा।
उपवास और मौन व्रत के दौरान भावुक दिखे प्रशांत किशोर ने कहा कि पिछले कई दिन किसी हार का बोझ नहीं, बल्कि उस दर्द का समय था जब उन्हें लगा कि बिहार की जनता के वोट की कीमत तय कर दी गई है। उन्होंने कहा कि जन सुराज की यात्रा गांधी आश्रम से शुरू हुई थी और यहां से उन्हें बदलाव की उम्मीद मिली थी। लाखों लोगों के साथ बातचीत ने उन्हें भरोसा दिया कि सूबे में राजनीतिक संस्कृति बदल सकती है, लेकिन इस चुनाव ने लोकतंत्र की नींव को ही चोट पहुंचाई है। उनका कहना है कि स्वतंत्र भारत के 75 वर्षों में पहली बार किसी सरकार ने इस तरह सीधे धन डालकर चुनावी परिणाम प्रभावित किए।
प्रशांत किशोर ने यह भी दावा किया कि जीविका दीदियों को घर-घर भेजकर सुनिश्चित कराया गया कि कोई लाभार्थी वोट बदल नहीं दे। उनके अनुसार सरकार की पूरी व्यवस्था इस बात पर लगी रही कि पैसा पाने वाले परिवार उसी राजनैतिक दल के समर्थन में मतदान करें। इसी प्रबंधन के कारण, जैसा वह कहते हैं, एनडीए को इतना बड़ा बहुमत मिला।
उन्होंने चेतावनी दी कि यदि इस मॉडल को देश ने स्वीकार कर लिया तो भविष्य में सत्ता में बैठी कोई भी सरकार चुनाव हारने से बच सकती है, क्योंकि वह लाभार्थियों की संख्या बढ़ाकर चुनाव का रुख मोड़ देगी। प्रशांत किशोर ने साफ कहा कि जन सुराज की यात्रा अब रुकेगी नहीं, क्योंकि यह लड़ाई सिर्फ एक चुनाव की नहीं बल्कि लोकतंत्र की मूल भावना को बचाने की है।
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