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बिहार की राजनीति के युवा चेहरा और नेता प्रतिपक्ष तेजस्वी यादव ने एक अहम पहल करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को खुला पत्र लिखा है। यह पत्र जातीय जनगणना के मुद्दे से कहीं आगे जाकर भारत में सामाजिक न्याय की नई परिभाषा गढ़ने की कोशिश है। तेजस्वी ने न सिर्फ जनगणना की सराहना की, बल्कि इसे "ऐतिहासिक चौराहा" बताते हुए ठोस नीतिगत बदलावों की मांग भी रखी है।
इस पत्र में तेजस्वी ने जातीय जनगणना को महज आंकड़ों की कवायद न मानकर इसे हाशिए पर खड़े वर्गों की गरिमा और पहचान की लड़ाई बताया है। उनके अनुसार, यह गणना समानता की ओर बढ़ते भारत के लिए एक निर्णायक क्षण हो सकती है—बशर्ते इसे सही दिशा में उपयोग किया जाए।
आरक्षण की सीमा पर पुनर्विचार
तेजस्वी की सबसे प्रमुख मांग है कि वर्तमान 50% आरक्षण की सीमा को पुनः परिभाषित किया जाए। उनका तर्क है कि जब ओबीसी और ईबीसी समुदाय देश की कुल आबादी का 63% से अधिक हैं, तो उन्हें प्रतिनिधित्व भी उसी अनुपात में मिलना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय सीमा अब जमीनी सच्चाई से मेल नहीं खाती। जातीय जनगणना के आंकड़े इस असमानता को दिखाएंगे और उसे दूर करने का रास्ता बनेंगे।
राजनीतिक प्रतिनिधित्व और परिसीमन
तेजस्वी ने यह भी कहा कि केवल आरक्षण काफी नहीं है, निर्णय लेने वाली संस्थाओं में वंचित वर्गों की भागीदारी सुनिश्चित की जानी चाहिए। उन्होंने आगामी परिसीमन प्रक्रिया को जनगणना के आंकड़ों के अनुसार समावेशी बनाने पर बल दिया। उनका मानना है कि विधानसभाओं और संसद में OBC-EBC वर्गों का अनुपातिक प्रतिनिधित्व लोकतांत्रिक सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिए।
निजी क्षेत्र में समावेशिता की मांग
तेजस्वी ने निजी कंपनियों की भी आलोचना की जो सार्वजनिक संसाधनों का लाभ उठाती हैं, लेकिन सामाजिक जवाबदेही से बचती हैं। उन्होंने मांग की कि निजी क्षेत्र में भी समावेशिता और विविधता को बढ़ावा दिया जाए और इस पर एक राष्ट्रीय बहस शुरू की जाए। उन्होंने इस मांग को करदाताओं के हित में बताया, जिनका पैसा सब्सिडी और रियायतों में खर्च होता है।
संविधान के मूल आदर्शों की याद
तेजस्वी ने अपने पत्र में भारतीय संविधान के निर्देशक सिद्धांतों का हवाला देकर याद दिलाया कि संसाधनों का समान वितरण और सामाजिक-आर्थिक विषमता को मिटाना ही असली राष्ट्रनिर्माण है।