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देवभूमि पर आफत : पहाड़ों का गुस्सा - उत्तराखंड की नदियां क्यों बन रहीं तबाही का कारण? | यंग भारत न्यूज Photograph: (Google)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । भागीरथी - खीरगंगा - अलकनंदा - ऋषिगंगा... उत्तराखंड की ये जीवनदायिनी नदियां जो ग्लेशियर से निकलती हैं आज क्यों तबाही का दूसरा नाम बन गई हैं? जलवायु परिवर्तन, अनियंत्रित मानवीय गतिविधियां और हिमालय की भूगर्भीय अस्थिरता एक ऐसा खतरनाक कॉकटेल बना रही हैं, जो हर साल देवभूमि को आपदाओं के गहरे दलदल में धकेल रहा है। साल 2013 की केदारनाथ त्रासदी से लेकर 2021 के चमोली हादसे तक, ये घटनाएं हमें लगातार चेतावनी दे रही हैं कि अगर हम नहीं बदले तो प्रकृति का यह गुस्सा और विकराल हो सकता है।
वैसे तो उत्तराखंड, जिसे "देवताओं की भूमि" भी कहा जाता है, अपनी अलौकिक प्राकृतिक सुंदरता, घने जंगलों और पवित्र नदियों के लिए सदियों से प्रसिद्ध है। लेकिन, बीते कुछ सालों में हिमालय की ये ऊंची चोटियां और यहां की नदियां, जो कभी शांति और आध्यात्मिक सुकून का प्रतीक थीं, अब आपदा और विनाश का कारण बन रही हैं। अचानक आने वाली बाढ़, भूस्खलन, बादल फटने और ग्लेशियर टूटने जैसी घटनाएं यहां की नई सामान्य कहानी बन गई हैं। आखिर क्यों ये नदियां अपना रास्ता बदलकर इंसानों के लिए खतरा बन रही हैं? क्या इसके पीछे सिर्फ प्रकृति है या फिर इंसानी लालच की भी कोई भूमिका है? आइए, इस भयावह सच की तह तक चलते हैं।
हिमालय की भूगर्भीय अस्थिरता: प्रकृति का मूल खतरा
जिस हिमालय को हम अपनी शक्ति और सुंदरता का प्रतीक मानते हैं, वह दरअसल भूगर्भीय रूप से बेहद अस्थिर है। यह एक युवा पर्वत श्रृंखला है जो अभी भी बन रही है। भारतीय और यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेट्स के लगातार टकराने से यह क्षेत्र भूकंपीय हलचलों के प्रति बेहद संवेदनशील है।
वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी के शोधकर्ताओं का कहना है कि उत्तराखंड में अक्सर छोटे भूकंप आते रहते हैं। ये भूकंप पहाड़ों की चट्टानों को अंदर से कमजोर कर रहे हैं, जिससे भूस्खलन और लैंडस्लाइड का खतरा बढ़ रहा है। जब भारी बारिश होती है, तो ये कमजोर चट्टानें आसानी से टूटकर नदियों में गिरती हैं, उनके बहाव को रोकती हैं और अचानक बाढ़ का कारण बनती हैं।
भूगर्भ वैज्ञानिकों ने दी थी यह चेतावनी
वास्तव में, देहरादून स्थित वाडिया इंस्टिट्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (WIHG) और अन्य भूगर्भ वैज्ञानिकों ने 18 जून 2025 (IST समयानुसार) को भारी चिंता के साथ उत्तराखंड क्षेत्र में बढ़ते भू–तांत्रिक तनाव की ओर चेतावनी जारी की थी। उन्होंने बताया कि गढ़वाल-कुमाऊं से लेकर देहरादून तक लगभग 250 किमी फैले क्षेत्र में प्लेट गतिबिज्ञान के कारण जमा ऊर्जा खतरनाक रूप से बढ़ रही है, जिससे भविष्य में मेमग्निच्यूड 7–8 तक के भूकंप की संभावना संभव लगने लगी है।
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चेतावनी का मुख्य बिंदु
- उत्तराखंड में लगातार छोटी-छोटी भूकंपीय गतिविधियां हो रही हैं, जो चट्टानों को अंदर से कमजोर कर रही हैं।
- यह आंतरिक कमजोरता भारी बारिश के दौरान पहाड़ों से चट्टानों व मलबे को नदी में गिरने के लिए प्रवृत्त करती है, जिससे नदी का बहाव अवरुद्ध होकर अचानक बाढ़ (flash flood) का जोखिम बढ़ जाता है।
- इन चेतावनियों को खास तौर पर इसलिए गंभीरता से लिया गया क्योंकि वैज्ञानिकों ने भूस्खलन व लैंडस्लाइड की प्रवृत्ति के लिए भूगर्भीय डेटा, GPS प्लेट मूवमेंट और भूकंपीय रिकॉर्ड्स के संयोजन से विश्लेषण किया है।
जलवायु परिवर्तन : ग्लेशियरों की धीमी मौत और नदियों का गुस्सा
जलवायु परिवर्तन का सबसे भयानक प्रभाव हिमालय के ग्लेशियरों पर पड़ रहा है। गंगोत्री जो भागीरथी नदी का उद्गम स्थल है पिछले 50 वर्षों में लगभग 1.5 किलोमीटर पीछे खिसक चुका है। ग्लेशियरों का तेजी से पिघलना नदियों में पानी की मात्रा अचानक बढ़ा रहा है। जब ये ग्लेशियर टूटते हैं तो इनसे बनी झीलें फट जाती हैं जिससे निचले इलाकों में भयावह बाढ़ आती है।
साल 2021 में चमोली में जो आपदा आई थी वह इसी का एक उदाहरण है। एक ग्लेशियर के टूटने से ऋषिगंगा और धौलीगंगा नदियों में अचानक बाढ़ आ गई थी जिसने पूरे क्षेत्र में भारी तबाही मचाई थी। यह घटना हमें याद दिलाती है कि जलवायु परिवर्तन अब सिर्फ एक पर्यावरण संबंधी मुद्दा नहीं बल्कि एक जीवन-और-मृत्यु का सवाल बन गया है।
मानवीय गतिविधियां : विकास के नाम पर विनाश का खेल
क्या हम अपनी तबाही के लिए खुद जिम्मेदार नहीं हैं? उत्तराखंड में तेजी से बढ़ता पर्यटन, अनियोजित निर्माण और जलविद्युत परियोजनाएं पहाड़ों को अंदर से खोखला कर रही हैं। सड़कें और बांध बनाने के लिए पहाड़ों को काटने और बार-बार विस्फोट करने से पहाड़ों की संरचना कमजोर हो रही है।
नदियों के किनारे हो रहे अनियंत्रित निर्माण और अतिक्रमण से भी बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है। जलविद्युत परियोजनाएं नदियों के प्राकृतिक बहाव को रोककर न सिर्फ पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा रही हैं बल्कि नदी के अचानक उफान पर आने की स्थिति में खतरा भी बढ़ा रही हैं।
अनियंत्रित पर्यटन: पर्यटन के दबाव में होटल, रिसॉर्ट और सड़कों का अंधाधुंध निर्माण हो रहा है जिससे वनों की कटाई बढ़ रही है और पहाड़ों की स्थिरता खतरे में है।
विकास परियोजनाएं: बड़े-बड़े बांध और हाइवे बनाने के लिए पहाड़ों की कटाई से भूस्खलन की घटनाएं बढ़ी हैं।
वन कटाई: वनों की कटाई से मिट्टी की पकड़ कमजोर होती हैं जिससे भारी बारिश में भूस्खलन की संभावना बढ़ जाती है।
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मौसम का बदलता मिजाज : बादल फटने की घटनाएं
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, पिछले दो दशकों में उत्तराखंड में मानसून की बारिश की तीव्रता 20-30% तक बढ़ी है। बादल फटने की घटनाएं भी आम हो गई हैं, जो एक ही जगह पर बहुत कम समय में अत्यधिक बारिश का कारण बनती हैं। यह अचानक और भारी बारिश, भूस्खलन और नदियों में अचानक बाढ़ का मुख्य कारण बनती है। साल 2013 की केदारनाथ त्रासदी इसका सबसे बड़ा उदाहरण है, जब भारी बारिश के बाद मंदाकिनी नदी में आई बाढ़ ने हजारों लोगों की जान ले ली थी।
...तो क्या है इसका समाधान?
इस तबाही को रोकना असंभव नहीं है, लेकिन इसके लिए हमें अपनी नीतियों और मानसिकता में बदलाव लाना होगा।
टिकाऊ विकास: हमें ऐसे विकास मॉडल पर काम करना होगा जो प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करे न कि उसे नुकसान पहुंचाए।
ग्लेशियरों की निगरानी: हमें ग्लेशियरों पर नियमित निगरानी रखनी होगी ताकि किसी भी संभावित खतरे को समय रहते पहचाना जा सके।
पर्यटन नियंत्रण: पर्यटन को नियंत्रित करना होगा और इको-टूरिज्म को बढ़ावा देना होगा।
पर्यावरण संरक्षण: वन संरक्षण और दोबारा पेड़ लगाना बेहद जरूरी है।
आपदा प्रबंधन: स्थानीय लोगों और प्रशासन को आपदा प्रबंधन की ट्रेनिंग देनी होगी ताकि वे किसी भी स्थिति का सामना करने के लिए तैयार रहें।
उत्तराखंड की नदियां और पहाड़ प्रकृति का एक अनमोल तोहफा हैं, लेकिन हमारी अनदेखी और लालच ने इन्हें तबाही का हथियार बना दिया है। हमें यह समझना होगा कि प्रकृति का गुस्सा सिर्फ एक चेतावनी नहीं, बल्कि एक अंतिम संदेश है—या तो बदलो या फिर विनाश के लिए तैयार रहो।
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