/young-bharat-news/media/media_files/2025/04/12/z8Wk8YJCfUuM5Vxjo0hj.jpg)
JAMMU KASHMIR HINDI NEWS
जम्मू-कश्मीर, जिसे कभी भारत का स्वर्ग कहा जाता था, दशकों तक अशांति और अलगाववाद की आग में झुलसता रहा। इसकी वादियों में कभी हुर्रियत कॉन्फ्रेंस की आवाज गूंजती थी, जो अलगाववादी विचारधारा का पर्याय बन चुकी थी।
एक समय था जब हुर्रियत के इशारे पर घाटी में हड़तालें होती थीं, दुकानें बंद हो जाती थीं, और सड़कों पर सन्नाटा पसर जाता था। लेकिन 2025 का कश्मीर एक नई कहानी लिख रहा है। हाल ही में खबर आई कि हुर्रियत से जुड़े 12 संगठनों ने इससे नाता तोड़ लिया है। यह बदलाव न केवल कश्मीर की राजनीति, बल्कि वहां के सामाजिक ताने-बाने में भी एक नई उम्मीद की किरण लाया है।
jammu kashmir | Jammu Kashmir news : आखिर क्या वजह है कि हुर्रियत कॉन्फ्रेंस जैसा शक्तिशाली संगठन आज बिखर गया? कौन से संगठन अलग हुए और अब उनका क्या हाल है? आइए, इस बदलाव की कहानी को गहराई से समझते हैं।
हुर्रियत कॉन्फ्रेंस क्या थी और कैसे बनी?
हुर्रियत कॉन्फ्रेंस की स्थापना 1993 में हुई थी। यह कश्मीर के विभिन्न अलगाववादी और राजनीतिक संगठनों का एक समूह था, जिसका मकसद था कश्मीर को भारत से अलग करना। हुर्रियत कॉन्फ्रेंस, जिसका पूरा नाम ऑल पार्टीज हुर्रियत कॉन्फ्रेंस (APHC) है, 1993 में जम्मू-कश्मीर में स्थापित एक अलगाववादी संगठनों का गठबंधन है।
इसका गठन विभिन्न संगठनों को एक मंच पर लाने के लिए किया गया था, जो कश्मीर को भारत से अलग करने या उसे विशेष स्वायत्तता देने की मांग करते थे। हुर्रियत का प्रभाव इतना था कि 1990 और 2000 के दशक में यह घाटी के सामाजिक और राजनीतिक माहौल को नियंत्रित करती थी।
इसके दो प्रमुख धड़े थे: एक का नेतृत्व सैयद अली शाह गिलानी जैसे कट्टरपंथी नेताओं ने किया, जो पाकिस्तान के साथ कश्मीर के विलय की वकालत करते थे, और दूसरा मीरवाइज उमर फारूक जैसे नरमपंथियों का था, जो बातचीत और स्वायत्तता की बात करते थे।
हुर्रियत के पास कोई सैन्य ताकत नहीं थी, लेकिन यह जनता को प्रभावित करने में माहिर थी। हड़तालों, प्रदर्शनों और बंद के जरिए यह कश्मीर की रोजमर्रा की जिंदगी को ठप कर देती थी।
इसके संगठनों पर आरोप लगते थे कि वे विदेशी फंडिंग, खासकर पाकिस्तान से मिलने वाले धन, का इस्तेमाल करते थे। हुर्रियत के प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक समय इसमें 20 से ज्यादा संगठन शामिल थे, जिनमें से प्रत्येक का अपना वैचारिक और क्षेत्रीय प्रभाव था। इसमें दो प्रमुख धड़े थे...
- मीरवाइज उमर फारूक गुट (मध्यम मार्गी)
- सैयद अली शाह गिलानी गुट (कट्टरपंथी)
हुर्रियत ने बंद और प्रदर्शनों के जरिए कश्मीर में अशांति फैलाने का काम किया। पाकिस्तान से मिलने वाला समर्थन और फंडिंग इसकी ताकत का बड़ा स्रोत था।
बदलाव की शुरुआत अनुच्छेद 370 हटने के बाद
5 अगस्त 2019 को भारत सरकार ने जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 को हटा दिया, जिसके तहत राज्य को विशेष दर्जा प्राप्त था। इसके साथ ही जम्मू-कश्मीर को दो केंद्र शासित प्रदेशों- जम्मू-कश्मीर और लद्दाख- में बांट दिया गया। इस फैसले ने कश्मीर की राजनीति और अलगाववाद की जड़ों को हिला दिया। सरकार ने आतंकवाद और अलगाववाद पर सख्ती बरतते हुए कई कदम उठाए, जैसे...
हुर्रियत नेताओं पर कार्रवाई: कई प्रमुख नेताओं को हिरासत में लिया गया या उन पर अवैध गतिविधि निवारण अधिनियम (UAPA) के तहत कार्रवाई की गई।
फंडिंग पर रोक: विदेशी और अवैध फंडिंग के स्रोतों को बंद किया गया, जिससे हुर्रियत की आर्थिक रीढ़ टूट गई।
सुरक्षा बलों की सक्रियता: आतंकवादी संगठनों पर कड़ी कार्रवाई और घाटी में सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत किया गया।
विकास परियोजनाएं: कश्मीर में बुनियादी ढांचे, शिक्षा, और रोजगार के अवसरों को बढ़ाने के लिए कई योजनाएं शुरू की गईं।
इन कदमों का असर धीरे-धीरे दिखने लगा। हुर्रियत का प्रभाव कम होने लगा, और इसके कई संगठन या तो निष्क्रिय हो गए या मुख्यधारा की ओर बढ़ने लगे।
/young-bharat-news/media/media_files/2025/04/12/vcbPf60to38gqiOTO8rE.jpg)
क्यों टूटी हुर्रियत? 12 संगठनों ने क्यों छोड़ा साथ?
2016 के बाद से हुर्रियत कॉन्फ्रेंस की ताकत कमजोर पड़ने लगी। 5 अगस्त 2019 को जब अनुच्छेद 370 हटा, तो हुर्रियत के नेताओं को नजरबंद कर दिया गया। इसके बाद से ही इस संगठन का पतन शुरू हो गया। अब तक 12 प्रमुख संगठनों ने हुर्रियत से अलग होने की घोषणा कर दी है।
कौन-कौन से संगठन अलग हुए?
जमात-ए-इस्लामी (जेआईके): पहले हुर्रियत का बड़ा हिस्सा था, लेकिन 2019 के बाद इसके कई नेताओं को गिरफ्तार किया गया। अब यह संगठन चुपचाप धार्मिक गतिविधियों तक सीमित है।
- डेमोक्रेटिक फ्रीडम पार्टी (डीएफपी): शब्बीर शाह का संगठन, जो अब राजनीतिक रूप से निष्क्रिय है।
- इटिहादुल मुस्लिमीन: इसके नेता मौलाना अब्बास अंसारी ने हुर्रियत से दूरी बना ली।
- जमीयतुल उलमा-ए-हिन्द: अब यह संगठन सिर्फ धार्मिक शिक्षा तक सीमित है।
- पीपल्स लीग: मुख्यधारा की राजनीति में शामिल होने की कोशिश कर रहा है।
- मुस्लिम डेमोक्रेटिक लीग: अब यह संगठन लगभग खत्म हो चुका है।
- कश्मीर यूथ अलायंस: इसके नेता अब सामाजिक कार्यों में लगे हैं।
- अवामी एक्शन कमेटी: अलगाववादी एजेंडे से दूर हट चुका है।
- मुस्लिम कॉन्फ्रेंस: अब यह संगठन सक्रिय नहीं है।
- इस्लामिक स्टूडेंट्स लीग: कैंपस पॉलिटिक्स से दूर हो चुका है।
- जमात-ए-हिन्द: अब यह धार्मिक प्रचार तक सीमित है।
- मजलिस-ए-मशावरत: इसके नेता अब सरकार के साथ सहयोग कर रहे हैं।
पहले क्या करते थे, अब क्या कर रहे हैं?
पहले ये संगठन हुर्रियत के बैनर तले एकजुट होकर कश्मीर में अशांति फैलाने का काम करते थे। बंद, हड़तालें, और विरोध प्रदर्शन इनके हथियार थे। इन पर विदेशी फंडिंग के जरिए युवाओं को भड़काने और हिंसा को बढ़ावा देने के आरोप लगते थे। ये संगठन कश्मीर को भारत से अलग करने या विशेष स्वायत्तता की मांग करते थे। इनके प्रभाव के कारण घाटी में स्कूल, कॉलेज, और बाजार अक्सर बंद रहते थे, जिससे आम लोगों की जिंदगी प्रभावित होती थी।
अब अनुच्छेद 370 हटने के बाद और सरकार की सख्त नीतियों के कारण इन संगठनों का प्रभाव लगभग खत्म हो चुका है। अब ये संगठन या तो निष्क्रिय हो गए हैं या मुख्यधारा में शामिल होकर विकास और शांति के लिए काम कर रहे हैं। कई संगठनों के कार्यकर्ता अब सामाजिक कार्यों, शिक्षा, और रोजगार सृजन में योगदान दे रहे हैं। कुछ ने स्थानीय निकाय चुनावों में हिस्सा लिया है, जो कश्मीर में लोकतंत्र की मजबूती का संकेत है।
/young-bharat-news/media/media_files/2025/04/12/CMxtDjVmPGXRx2NZp7F5.jpg)
हुर्रियत के नेताओं का अब क्या हाल है?
सैयद अली शाह गिलानी: मर चुके हैं (2021), उनका परिवार अब राजनीति से दूर है।
मीरवाइज उमर फारूक: नजरबंदी के बाद सार्वजनिक जीवन से गायब।
यासीन मलिक: जेल में, आतंकवाद के मामलों में सजा काट रहे हैं।
अशरफ सहराई: हाउस अरेस्ट में, राजनीतिक गतिविधियां बंद।
शब्बीर शाह: जेल में, उनकी पार्टी डीएफपी अब निष्क्रिय।
क्या है हुर्रियत का वर्तमान हाल?
कोई बड़ा बंद नहीं होता: पहले एक फोन कॉल पर घाटी बंद हो जाती थी, अब ऐसा नहीं होता।
युवाओं का रुझान कम: नई पीढ़ी अब अलगाववाद के बजाय नौकरी और शिक्षा में दिलचस्पी ले रही है।
सरकार की सख्त नीति: NIA और ED की कार्रवाई ने अलगाववादी नेताओं को कमजोर कर दिया।
पाकिस्तान का समर्थन कम: FATF के दबाव के बाद पाकिस्तान अब खुलकर फंडिंग नहीं कर पा रहा।
क्यों हुआ यह बदलाव?
इस बदलाव के पीछे कई कारण हैं...
सरकारी नीतियों की सख्ती: अनुच्छेद 370 हटने के बाद सरकार ने अलगाववाद पर जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाई। फंडिंग पर रोक, नेताओं की गिरफ्तारी, और आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई ने हुर्रियत को कमजोर किया।
जनता का बदलता मूड: कश्मीरी जनता अब हिंसा और अशांति से तंग आ चुकी है। लोग विकास, शिक्षा, और रोजगार चाहते हैं। सरकार की योजनाओं, जैसे स्कूलों का निर्माण, सड़कों का जाल, और पर्यटन को बढ़ावा, ने लोगों का भरोसा जीता है।
हुर्रियत की आंतरिक कमजोरी: हुर्रियत के भीतर नेताओं के बीच आपसी मतभेद और वैचारिक टकराव ने इसे कमजोर किया। सैयद अली शाह गिलानी जैसे नेताओं के निधन और अन्य नेताओं की निष्क्रियता ने संगठन को और कमजोर किया।
विकास का प्रभाव: केंद्र सरकार की योजनाओं ने घाटी में रोजगार और बुनियादी ढांचे को बढ़ावा दिया है। इससे युवाओं का ध्यान अलगाववाद से हटकर मुख्यधारा की ओर गया है।
हुर्रियत से 12 संगठनों का अलग होना कश्मीर के लिए एक ऐतिहासिक मोड़ है। यह न केवल अलगाववाद की कमजोरी को दर्शाता है, बल्कि घाटी में शांति और विकास की नई संभावनाओं को भी खोलता है। हालांकि, चुनौतियां अभी खत्म नहीं हुई हैं। कुछ छोटे संगठन और चरमपंथी तत्व अभी भी सक्रिय हैं, जिन्हें पूरी तरह खत्म करने के लिए निरंतर प्रयासों की जरूरत है।
कश्मीर की जनता अब शांति और समृद्धि चाहती है। सरकार को चाहिए कि वह विकास योजनाओं को और तेज करे, स्थानीय लोगों को और अधिक शामिल करे, और युवाओं के लिए अवसर पैदा करे। हुर्रियत का प्रभाव खत्म होना इस बात का सबूत है कि सही दिशा में उठाए गए कदम कश्मीर को फिर से भारत का स्वर्ग बना सकते हैं।
क्या अब कश्मीर में अलगाववाद खत्म हो गया?
हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का पतन यह दिखाता है कि कश्मीर में अलगाववाद का वह पुराना मॉडल अब काम नहीं कर रहा। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अलगाववाद पूरी तरह खत्म हो गया है। अभी भी कुछ छोटे गुट सक्रिय हैं, लेकिन उनके पास न तो जनसमर्थन है और न ही वित्तीय ताकत।
सरकार की डी-रेडिकलाइजेशन पॉलिसी और युवाओं को मुख्यधारा में लाने के प्रयासों ने कश्मीर के समीकरण को बदल दिया है। अब पत्थरबाजी की जगह स्टार्टअप और पर्यटन की चर्चा हो रही है।
कश्मीर का नया भविष्य
हुर्रियत कॉन्फ्रेंस का बिखरना साबित करता है कि कश्मीर अब पुराने नारों और हिंसक आंदोलनों से आगे निकल चुका है। अलगाववादी नेताओं का प्रभाव कम हुआ है, और नई पीढ़ी विकास की राह पर चल पड़ी है।
हालांकि, चुनौतियां अभी भी हैं। पाकिस्तान की घुसपैठ और आतंकवाद की कोशिशें जारी हैं, लेकिन अब कश्मीर के लोगों का रुझान शांति और विकास की तरफ है। अगर यही रफ्तार रही, तो कश्मीर का भविष्य उज्ज्वल हो सकता है।
अगर आप कश्मीर की लेटेस्ट पॉलिटिक्स और सिक्योरिटी सिचुएशन पर अपडेट रहना चाहते हैं, तो हमें फॉलो करें।