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डॉ. सतेंद्र, आईएफएस, पूर्व कार्यकारी निदेशक, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान (एनआईडीएम), भारत सरकार एवं निदेशक, सार्क आपदा प्रबंधन केंद्र
हर वर्ष 5 जून को मनाया जाने वाला विश्व पर्यावरण दिवस इस बार भारत के लिए केवल एक प्रतीकात्मक दिवस नहीं, बल्कि एक गंभीर चेतावनी बनकर सामने आया है। देश के विभिन्न हिस्सों में लगातार बढ़ रही प्राकृतिक आपदाएं—जैसे विनाशकारी बाढ़, भीषण गर्मी की लहरें, भूस्खलन, सूखा, चक्रवात और पारिस्थितिकीय असंतुलन—यह स्पष्ट संकेत दे रहे हैं कि पर्यावरण संरक्षण अब केवल वन्यजीवों और वृक्षों तक सीमित नहीं, बल्कि यह मानव जीवन, आजीविका और राष्ट्र की समग्र सुरक्षा से जुड़ा हुआ है।
60 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष रूप से प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर
भारत एक ऐसा देश है जहां लगभग 60 प्रतिशत आबादी प्रत्यक्ष रूप से प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर है—चाहे वह कृषि हो, वनों से प्राप्त जीवन-निर्वाह, नदियाँ और झीलें हों या मत्स्य पालन। इन संसाधनों की स्थिरता और स्वच्छता न केवल जीविका के लिए आवश्यक है, बल्कि यह बाढ़, तूफान, सूखा, भूस्खलन जैसे आपदाओं से हमारी रक्षा भी करती है। जब पर्यावरण का क्षरण होता है, तब ये स्वाभाविक सुरक्षात्मक ढांचे नष्ट हो जाते हैं और हम अधिक असुरक्षित हो जाते हैं।
आपदाएं विनाशकारी सिद्ध हो रही हैं
पिछले कुछ वर्षों में शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में अनेक उदाहरण सामने आए हैं, जहाँ पर्यावरणीय अनदेखी के कारण आपदाएँ और अधिक विनाशकारी सिद्ध हुई हैं। दिल्ली और बेंगलुरु जैसे महानगरों में भारी बारिश के दौरान जलभराव की समस्या मुख्यतः इसलिए उत्पन्न हुई, क्योंकि पारंपरिक जल निकासी प्रणालियाँ अवरुद्ध हो गई हैं, वर्षा जल को संग्रहित करने वाले जलाशयों पर अतिक्रमण हो चुका है, और हरित क्षेत्र लगातार घटते जा रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि सामान्य बारिश भी शहरों को पंगु बना देती है।
हिमालयी क्षेत्र, जो अपने प्राकृतिक सौंदर्य के साथ-साथ नाजुक पारिस्थितिकीय संतुलन के लिए जाना जाता है, अब लगातार भूस्खलन और भू-धंसाव की चपेट में है। उत्तराखंड के जोशीमठ में 2023 में आई भू-धंसाव की घटना इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि बिना योजना के निर्माण, सुरंग खोदने और भारी बुनियादी ढांचों के कारण प्रकृति किस प्रकार असहाय हो जाती है।
जलवायु परिवर्तन ने इस संकट को और जटिल बना दिया है। देश के अनेक हिस्सों में अब गर्मी की लहरें अधिक तीव्र और लंबी हो गई हैं। 2024 में राजस्थान, दिल्ली और तेलंगाना में तापमान 49 डिग्री सेल्सियस से अधिक पहुंच गया। यह केवल तापमान की बात नहीं है, बल्कि इससे जुड़ी जल संकट, स्वास्थ्य संकट, खाद्य आपूर्ति पर प्रभाव, और श्रमिकों की उत्पादकता पर असर जैसे कई नए संकट सामने आ रहे हैं।
भारत का कृषि क्षेत्र, जो करोड़ों लोगों की आजीविका का आधार है, अब जलवायु अनिश्चितताओं का शिकार बनता जा रहा है। बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब जैसे राज्यों में असमय वर्षा और अनिश्चित मानसून चक्रों ने किसानों की मेहनत को बर्बाद कर दिया है। यह केवल आर्थिक क्षति नहीं है, बल्कि देश की खाद्य सुरक्षा पर भी गंभीर प्रभाव डालता है।
चक्रवात अब अधिक शक्तिशाली और बारंबार हो गए
अरब सागर और बंगाल की खाड़ी से उठने वाले चक्रवात अब अधिक शक्तिशाली और बारंबार हो गए हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार, समुद्र का बढ़ता तापमान इसका प्रमुख कारण है। जहाँ पहले चक्रवात समुद्र में ही कमजोर पड़ जाते थे, अब वे तेज़ी से ज़मीन की ओर बढ़ते हैं और व्यापक तबाही मचाते हैं। जब इन चक्रवातों से पहले से मौजूद मैंग्रोव वन काट दिए जाते हैं या तटीय रेखाएँ अतिक्रमण का शिकार होती हैं, तब नुकसान की मात्रा कई गुना बढ़ जाती है।
यहां एक महत्वपूर्ण बिंदु यह भी है कि आपदाएं केवल प्राकृतिक घटनाएँ नहीं होतीं—बल्कि हमारी नीतियों, योजनाओं और व्यवहार का भी परिणाम होती हैं। मुम्बई में मिटी नदी के किनारे मैंग्रोव की कटाई और अनियंत्रित निर्माण ने बाढ़ की स्थिति को और गंभीर बनाया है। चेन्नई में 2015 और 2023 की बाढ़ इस बात का प्रमाण हैं कि कैसे झीलों का अतिक्रमण और जलमार्गों की अनदेखी ने शहर को बार-बार जलमग्न किया।
नकारात्मकता के बीच आशा की किरण भी
लेकिन सभी नकारात्मकता के बीच आशा की किरण भी है। प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, पुनर्स्थापना और विवेकपूर्ण उपयोग हमें आपदाओं से बचा सकता है। ओडिशा में 2013 के फाइलिन चक्रवात के बाद बड़े पैमाने पर मैंग्रोव वनों की बहाली की गई, जिससे भविष्य में आए चक्रवातों के प्रभाव को काफी हद तक कम किया जा सका। गुवाहाटी में पुनर्जीवित की गई आर्द्रभूमियों ने शहरी बाढ़ को कम किया है।
भारत सरकार द्वारा बनाए गए कई नीतिगत दस्तावेज और योजनाएं इस संकट की गंभीरता को पहचानते हैं। राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन कार्य योजना, राज्य जलवायु कार्य योजनाएँ, राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना, और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत पर्यावरण पुनर्स्थापना को प्राथमिकता दी जा रही है। कई राज्यों में मनरेगा के अंतर्गत जल संग्रहण, वृक्षारोपण, वनीकरण और मृदा संरक्षण जैसे कार्य किए जा रहे हैं।
हालाँकि, इन योजनाओं का प्रभाव तभी होगा जब वे ज़मीन पर ईमानदारी से लागू की जाएँ। पर्यावरणीय प्रभाव मूल्यांकन (EIA) प्रक्रियाओं को सख्ती और पारदर्शिता से लागू करना होगा। बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं में पर्यावरणीय सतर्कता को अनिवार्य बनाया जाना चाहिए। विकास की योजनाएँ दीर्घकालिक जोखिमों को ध्यान में रखते हुए तैयार की जानी चाहिए।
सामुदायिक सहभागिता इस प्रक्रिया में एक महत्वपूर्ण कड़ी है। नागालैंड जैसे राज्यों में पारंपरिक वन प्रबंधन प्रणाली आज भी सफलतापूर्वक काम कर रही हैं। सिक्किम में जैविक खेती न केवल भूमि की गुणवत्ता को सुधार रही है, बल्कि जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को भी कम कर रही है। देश भर के युवाओं, नागरिकों, स्वयंसेवी संगठनों, पंचायतों और निजी क्षेत्र को पर्यावरण संरक्षण में भागीदार बनाना होगा।
तकनीक भी इस लड़ाई में एक कारगर हथियार
रिमोट सेंसिंग, जियोग्राफिक इन्फॉर्मेशन सिस्टम (GIS), और सैटेलाइट डेटा का उपयोग करके हम बेहतर पूर्व चेतावनी प्रणाली, आपदा प्रतिक्रिया और योजना निर्माण कर सकते हैं। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (ISRO) और भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) पहले से ही कई महत्वपूर्ण सेवाएँ प्रदान कर रहे हैं, लेकिन अब आवश्यकता है कि ये सेवाएँ गाँव-गाँव तक, हर संवेदनशील क्षेत्र तक पहुंचें।
विश्व पर्यावरण दिवस हमें याद दिलाता है कि हम केवल पर्यावरण को नुकसान पहुँचाकर आपदाओं को आमंत्रित नहीं करते, बल्कि यह हमारी आने वाली पीढ़ियों के जीवन और आशाओं से भी खिलवाड़ है। इसलिए हमें प्रकृति को केवल उपयोग की वस्तु के रूप में नहीं, बल्कि एक सहचर के रूप में स्वीकार करना होगा। यदि भारत को एक आपदा-प्रतिरोधी, जलवायु लचीला और सतत विकासशील राष्ट्र बनना है, तो पर्यावरण संरक्षण को हमारी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं में सर्वोच्च स्थान देना ही होगा। एक स्वस्थ पर्यावरण न केवल हमारी रक्षा करता है, बल्कि यह हमारे विकास, संस्कृति, और अस्तित्व की आत्मा भी है।india-natural-calamities-environment-day.,Droupadi Murmu environment | environmental awareness | Environmental Friendly | Environmental Issues | environment awarness | environmental protection