नई दिल्ली, वाईबीएन नेटवर्क
केंद्रीय विधि मंत्रालय ने लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के एक साथ चुनाव कराने संबंधी दो विधेयकों की पड़ताल कर रही संसद की संयुक्त समिति को बताया है कि मतपत्रों के माध्यम से चुनाव कराने का प्रश्न उसके दायरे में नहीं आता। मतपत्र प्रणाली पर वापस लौटने का सुझाव संयुक्त समिति के कुछ सदस्यों ने दिया था और विधि मंत्रालय को इसका लिखित में जवाब देना था। मंत्रालय के विधायी विभाग ने समिति द्वारा पूछे गए विभिन्न प्रश्नों के विस्तृत उत्तर दिए, लेकिन उसने मतपत्र प्रणाली पर दिए गए सुझाव पर कोई सीधा उत्तर नहीं दिया।
संसदीय समिति के ‘अधिकार क्षेत्र से बाहर’
मंत्रालय ने कहा है कि मतपत्र प्रणाली के उपयोग का सुझाव संसदीय समिति के ‘अधिकार क्षेत्र से बाहर’ है। उन्होंने रेखांकित किया कि मतदान के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) या मतपत्र का उपयोग करना वह विषय नहीं है जिसकी पड़ताल समिति कर रही है। सूत्रों ने बताया कि समिति को एक साथ चुनाव कराने संबंधी विधेयकों- संविधान (129वां संशोधन) विधेयक और केंद्र शासित प्रदेश कानून (संशोधन) विधेयक की पड़ताल करने और इस बारे में अपनी रिपोर्ट देने का अधिकार दिया गया है कि क्या वे इस उद्देश्य के लिए पर्याप्त हैं या उनमें बदलाव की आवश्यकता है।
सरकार मतपत्रों से चुनाव के पक्ष में नहीं
संविधान (129वां संशोधन) विधेयक में लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने के लिए कानूनी ढांचा तैयार करने का प्रावधान है, वहीं केंद्र शासित प्रदेश कानून (संशोधन) विधेयक संयुक्त चुनाव कराने के उद्देश्य से दिल्ली, पुडुचेरी और जम्मू-कश्मीर की विधानसभाओं के कार्यकाल को एक साथ करने का प्रावधान करता है। तीन केंद्र शासित प्रदेशों दिल्ली, पुडुचेरी और जम्मू-कश्मीर में विधानसभाएं हैं। सरकार ने कई मौकों पर संसद को बताया है कि वह मतपत्र प्रणाली पर लौटने के पक्ष में नहीं है और उच्चतम न्यायालय ने भी ईवीएम के इस्तेमाल के पक्ष में अपना पक्ष रखा है। शीर्ष अदालत ने हाल में मतपत्रों के इस्तेमाल को फिर से शुरू करने की याचिका को खारिज कर दिया था और कहा था कि वोटिंग मशीन से छेड़छाड़ के बारे में संदेह ‘निराधार’ हैं।
एक साथ चुनाव अलोकतांत्रिक नहीं
सूत्रों के अनुसार, मंत्रालय ने कुछ सवालों के जवाब दे दिए हैं, जबकि कुछ अन्य सवालों को निर्वाचन आयोग को भेज दिया गया है। मंत्रालय ने समिति से यह भी कहा है कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना अलोकतांत्रिक नहीं है और इससे संघीय ढांचे को कोई नुकसान नहीं होगा। संयुक्त समिति के सदस्यों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में, ऐसा समझा जाता है कि केंद्रीय विधि मंत्रालय के विधायी विभाग ने कहा है कि अतीत में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए गए थे, लेकिन कुछ राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाए जाने सहित विभिन्न कारणों से यह चक्र टूट गया था।
कब हुए एक साथ चुनाव
संविधान को अंगीकृत किए जाने के बाद 1951 से 1967 तक लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ आयोजित किए गए। लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए पहले आम चुनाव 1951-52 में एक साथ आयोजित किए गए थे और यह परंपरा 1957, 1962 और 1967 में हुए तीन आम चुनावों तक जारी रही। हालांकि, कुछ राज्य विधानसभाओं के समय से पहले भंग होने के कारण 1968 और 1969 में चुनाव कराए जाने से यह चक्र बाधित हो गया। चौथी लोकसभा भी 1970 में समय से पहले भंग कर दी गई थी तथा 1971 में नए चुनाव कराए गए थे। पहली, दूसरी और तीसरी लोकसभा के विपरीत, जिन्होंने अपना पांच वर्ष का कार्यकाल पूरा किया था, पांचवीं लोकसभा का कार्यकाल आपातकाल की घोषणा के कारण अनुच्छेद 352 के अंतर्गत 1977 तक बढ़ा दिया गया था।
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’
‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ पर सरकार की तरफ से जारी बयान कहा गया था कि उसके बाद से अब तक केवल कुछ ही लोकसभाओं का कार्यकाल पूरे पांच साल तक चला है, जैसे आठवीं, दसवीं, 14वीं और 15वीं। छठी, सातवीं, नौवीं, 11वीं, 12वीं और 13वीं सहित अन्य लोकसभाओं को समय से पहले ही भंग कर दिया गया था। राज्य विधानसभाओं को पिछले कुछ साल में इसी तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ा है।
साथ चुनाव कराने से शासन में एकरूपता को बढ़ावा