नई दिल्ली, वाईबीएन नेटवर्क।
संसदीय नियम सरकार को संवेदनशील मुद्दों पर चर्चा के लिए लोकसभा की ‘गुप्त बैठक’बुलाने की अनुमति देते हैं, लेकिन इस प्रावधान का अब तक उपयोग नहीं किया गया है। इस मामले पर एक संवैधानिक विशेषज्ञ का कहना था कि 1962 के चीनी आक्रमण के दौरान कुछ विपक्षी सांसदों ने इस मुद्दे पर चर्चा के लिए सदन की गुप्त बैठक बुलाने का प्रस्ताव रखा था, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इसके लिए सहमत नहीं हुए थे।
गुप्त बैठक का दुर्लभ प्रावधान
गुप्त बैठक संसदीय प्रक्रिया का एक दुर्लभ और अप्रयुक्त प्रावधान है, जो संवेदनशील और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर गोपनीय चर्चा की अनुमति देता है। यह प्रावधान सरकार को ऐसे मामलों में विचार-विमर्श के लिए एक गोपनीय मंच प्रदान करने के लिए बनाया गया है, जहां सार्वजनिक चर्चा से राष्ट्रीय सुरक्षा या अन्य संवेदनशील हितों को नुकसान पहुंचने का खतरा हो सकता है। हालांकि, भारतीय संसद के इतिहास में इस प्रावधान का अब तक उपयोग नहीं किया गया है, जो इसके सीमित दायरे और व्यावहारिक चुनौतियों को दर्शाता है।आइए जानते हैं क्या है नियम और क्यों नहीं किया गया आज तक इसका उपयोग।
सरकार को ही गुप्त बैठक बुलाने का अधिकार
संसदीय नियमों के तहत, लोकसभा की गुप्त बैठक बुलाने का अधिकार सरकार को है, लेकिन इसे लागू करने के लिए स्पष्ट प्रक्रिया और आम सहमति की आवश्यकता होती है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि संवेदनशील जानकारी, जैसे कि राष्ट्रीय सुरक्षा, विदेश नीति, या आपातकालीन परिस्थितियों से संबंधित मामले, सांसदों के बीच गोपनीय रूप से चर्चा किए जा सकें। ऐसी बैठकों के दौरान, प्रेस और आम जनता को बाहर रखा जाता है, और चर्चा का कोई आधिकारिक रिकॉर्ड सार्वजनिक नहीं किया जाता। यह प्रावधान लोकतांत्रिक जवाबदेही और गोपनीयता के बीच संतुलन बनाए रखने का प्रयास करता है। हालांकि, इसकी अप्रयुक्त स्थिति यह सवाल उठाती है कि क्या यह प्रावधान व्यवहार में प्रभावी है या केवल सैद्धांतिक रूप से मौजूद है।
क्या है ऐतिहासिक संदर्भ
इसका एक ऐतिहासिक संदर्भ 1962 का भारत-चीन युद्ध है, जब इस प्रावधान को लागू करने की मांग उठी थी। उस समय, चीनी आक्रमण के दौरान देश गंभीर संकट से गुजर रहा था, और कुछ विपक्षी सांसदों ने इस मुद्दे पर विस्तृत और गोपनीय चर्चा के लिए लोकसभा की गुप्त बैठक बुलाने का सुझाव दिया। उनका तर्क था कि ऐसी बैठक सरकार को अपनी रणनीति और कमजोरियों को खुले मंच पर उजागर किए बिना सांसदों के साथ संवेदनशील जानकारी साझा करने की अनुमति देगी। हालांकि, तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। नेहरू का मानना था कि संसद में खुली चर्चा लोकतंत्र का मूल तत्व है और गोपनीयता की आड़ में जनता से जानकारी छिपाना उचित नहीं होगा। इस निर्णय ने इस प्रावधान के उपयोग पर एक मिसाल कायम की, जिसका प्रभाव बाद के वर्षों में भी दिखाई देता है।
उपयोग न होने के कई कारण
पहला: भारत जैसे लोकतंत्र में पारदर्शिता को प्राथमिकता दी जाती है, और गुप्त बैठकें जनता के बीच संदेह पैदा कर सकती हैं।
दूसरा: संसद में राजनीतिक ध्रुवीकरण और गोपनीयता बनाए रखने की चुनौती इसे अव्यवहारिक बनाती है।
तीसरा: सरकार के पास संवेदनशील मुद्दों से निपटने के लिए अन्य तंत्र, जैसे कैबिनेट समितियां और खुफिया ब्रीफिंग, पहले से मौजूद हैं, जो गुप्त बैठक की आवश्यकता को कम करते हैं।
चौथा: आधुनिक युग में सूचना के तेजी से प्रसार और मीडिया की सर्वव्यापकता ने गोपनीयता सुनिश्चित करना और भी कठिन बना दिया है।