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नई दिल्ली, वाईबीएन नेटवर्क । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (JNU) के छात्रसंघ चुनाव 2025 ने एक बार फिर देश भर का ध्यान अपनी ओर खींचा है। इस बार का चुनाव न केवल रोमांचक रहा, बल्कि इसने JNU के राजनीतिक परिदृश्य में महत्वपूर्ण बदलाव के संकेत भी दिए।
अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (ABVP) ने लगभग एक दशक बाद केंद्रीय पैनल में अपनी मौजूदगी दर्ज कराई, जबकि वामपंथी गठबंधन (AISA-DSF) ने तीन प्रमुख पदों पर जीत हासिल कर अपनी पकड़ बरकरार रखी।
यह परिणाम वामपंथी संगठनों के लिए एक चेतावनी के रूप में उभरा है, क्योंकि ABVP की वापसी ने उनके पारंपरिक गढ़ को चुनौती दी है। आइए इसके दूरगामी परिणाम को समझते हैं...
JNU छात्रसंघ चुनाव 2025 के परिणामों ने साफ कर दिया कि कैंपस की राजनीति अब पहले जैसी एकतरफा नहीं रही। वामपंथी गठबंधन ने अध्यक्ष, उपाध्यक्ष और महासचिव के पदों पर कब्जा जमाया। AISA के नीतीश कुमार ने 1,702 वोटों के साथ अध्यक्ष पद हासिल किया, जबकि DSF की मनीषा उपाध्यक्ष और मुंतेहा फातिमा महासचिव चुनी गईं।
हालांकि, ABVP के वैभव मीणा ने संयुक्त सचिव का पद 1,518 वोटों के साथ जीतकर एक दशक के सूखे को खत्म किया। इसके अलावा, ABVP ने 42 काउंसलर सीटों में से 23 पर जीत हासिल की, जो उनके बढ़ते प्रभाव का स्पष्ट संकेत है।
यह परिणाम इसलिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि ABVP ने केंद्रीय पैनल के अन्य तीनों पदों पर भी कड़ा मुकाबला दिया। अध्यक्ष पद पर उनकी उम्मीदवार शिखा स्वराज ने 1,430 वोट हासिल किए, जो नीतीश कुमार से मात्र 272 वोट कम थे। उपाध्यक्ष और महासचिव पदों पर भी ABVP के उम्मीदवारों ने वामपंथी गठबंधन को कड़ी टक्कर दी। यह करीबी मुकाबला दर्शाता है कि JNU का 'लाल किला' अब पहले जितना अभेद्य नहीं रहा।
ABVP की वापसी के कारण
ABVP की इस शानदार वापसी के पीछे कई कारक रहे। सबसे बड़ा कारण वामपंथी संगठनों में एकता की कमी रहा। इस बार यूनाइटेड लेफ्ट गठबंधन दो धड़ों में बंट गया। AISA और DSF ने एक साथ मिलकर चुनाव लड़ा, जबकि SFI, AISF, BAPSA और PSA ने अलग पैनल उतारा। इस विभाजन ने वामपंथी वोटों को बांट दिया, जिसका सीधा फायदा ABVP को मिला। SFI के नेतृत्व वाले गठबंधन को एक भी सीट नहीं मिली, जो वामपंथी संगठनों के लिए एक बड़ा झटका है।
इसके अलावा, ABVP ने कैंपस में अपनी सक्रियता बढ़ाई। उन्होंने छात्रों के मुद्दों, जैसे फीस वृद्धि, हॉस्टल सुविधाएं और विश्वविद्यालय प्रशासन की नीतियों के खिलाफ आंदोलनों में हिस्सा लिया। ABVP ने अपनी छवि को 'राष्ट्रवादी' संगठन के रूप में मजबूत किया, जिसने कुछ छात्रों को आकर्षित किया। उनकी रणनीति में सोशल मीडिया का प्रभावी उपयोग और कैंपस में धरना-प्रदर्शन जैसे कार्यक्रम शामिल रहे।
वामपंथी गठबंधन के लिए चुनौतियां
वामपंथी संगठनों के लिए यह जीत भले ही राहत की बात हो, लेकिन ABVP की बढ़ती ताकत उनके लिए खतरे की घंटी है। AISA ने अपने बयान में ABVP की जीत को 'चिंताजनक' बताया और इसे कैंपस में 'BJP समर्थक ताकतों' के बढ़ते प्रभाव से जोड़ा।
उनका कहना है कि विश्वविद्यालय प्रशासन और सरकार की नीतियां, जैसे नई शिक्षा नीति (NEP) और फंडिंग में कटौती, JNU की स्वायत्तता और समावेशी चरित्र को कमजोर कर रही हैं। इन नीतियों के खिलाफ वामपंथी संगठनों को और मजबूत आंदोलन चलाने की जरूरत है।
वामपंथी संगठनों को अपनी रणनीति पर भी पुनर्विचार करना होगा। इस बार गठबंधन में एकता की कमी ने उन्हें नुकसान पहुंचाया। अगर भविष्य में वे एकजुट होकर नहीं लड़ते, तो ABVP को और मजबूती मिल सकती है। इसके अलावा, ABVP की तरह वामपंथी संगठनों को भी सोशल मीडिया और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर अपनी उपस्थिति बढ़ानी होगी।
JNU की बदलती राजनीति
JNU लंबे समय से वामपंथी विचारधारा का गढ़ रहा है, लेकिन हाल के वर्षों में कैंपस की राजनीति में बदलाव देखने को मिला है। ABVP की बढ़ती सक्रियता और काउंसलर सीटों पर उनकी जीत दर्शाती है कि वे अब कैंपस में एक मजबूत ताकत बन चुके हैं।
2015-16 में ABVP ने संयुक्त सचिव का पद जीता था, लेकिन उसके बाद उनके खिलाफ 'JNU को बंद करो' जैसे आंदोलनों ने उनकी छवि को नुकसान पहुंचाया था। इस बार की जीत से ABVP ने उस नुकसान की भरपाई की है और अपनी स्थिति को मजबूत किया है।
भविष्य की संभावनाएं
JNU छात्रसंघ चुनाव 2025 के परिणामों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि कैंपस की राजनीति अब पहले से कहीं ज्यादा प्रतिस्पर्धी हो गई है। ABVP की वापसी ने वामपंथी संगठनों के लिए एक नई चुनौती खड़ी की है।
नवनिर्वाचित अध्यक्ष नीतीश कुमार ने कहा कि उनकी प्राथमिकता छात्रों के हितों की रक्षा करना और विश्वविद्यालय प्रशासन की नीतियों के खिलाफ संघर्ष करना रहेगा। वहीं, ABVP के वैभव मीणा ने दावा किया कि यह जीत केवल शुरुआत है और अगले चुनाव में वे सभी चार सीटें जीतने का लक्ष्य रखते हैं।
JNU छात्रसंघ चुनाव 2025 ने न केवल कैंपस की राजनीति को नई दिशा दी, बल्कि यह भी दिखाया कि विचारधाराओं का संघर्ष अब पहले से कहीं ज्यादा तीव्र हो गया है। वामपंथी गठबंधन ने अपनी पकड़ बनाए रखी, लेकिन ABVP की वापसी ने उनके लिए खतरे की घंटी बजा दी। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले वर्षों में JNU की राजनीति किस दिशा में बढ़ती है और क्या ABVP अपने 'लाल किले' में और सेंध लगा पाएगी। delhi | student |