नई दिल्ली, वाईबीएन नेटवर्क । उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाल ही में उच्चतम न्यायालय के उस फैसले पर गहरी चिंता व्यक्त की, जिसमें राष्ट्रपति को विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए समयसीमा निर्धारित की गई है। उन्होंने कहा कि भारत ने ऐसा लोकतंत्र नहीं चाहा था, जहां न्यायपालिका कानून बनाए, कार्यपालिका के कार्यों को अपने हाथ में ले, या खुद को एक "सुपर संसद" की तरह प्रस्तुत करे।
पिछले सप्ताह, supreme court ने पहली बार यह व्यवस्था दी थी कि राष्ट्रपति को राज्यपाल द्वारा भेजे गए विधेयकों पर तीन महीने के भीतर फैसला करना होगा। धनखड़ ने इस पर सवाल उठाते हुए कहा, "हम किस दिशा में जा रहे हैं? देश में क्या हो रहा है? हमें इस मामले में अत्यंत संवेदनशील होने की जरूरत है। यह केवल समीक्षा याचिका दायर करने या न करने का सवाल नहीं है। हमने अपने लोकतंत्र को इस स्थिति के लिए नहीं चुना था।"
राज्यसभा के प्रशिक्षुओं को कर रहे थे संबोधित
राज्यसभा के प्रशिक्षुओं को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि यदि राष्ट्रपति समयबद्ध तरीके से निर्णय नहीं लेते, तो विधेयक स्वतः कानून बन जाएगा। उन्होंने आश्चर्य जताया कि कुछ न्यायाधीश कानून बनाने, कार्यपालिका के कार्यों को संभालने और एक "सुपर संसद" की तरह काम करने की भूमिका में आ रहे हैं, जबकि उनकी कोई जवाबदेही नहीं है।
भारत में राष्ट्रपति का पद अत्यंत गरिमामय
धनखड़ ने जोर देकर कहा कि भारत में राष्ट्रपति का पद अत्यंत गरिमामय है। राष्ट्रपति संविधान की रक्षा और संरक्षण की शपथ लेते हैं, जबकि अन्य लोग—मंत्री, सांसद, उपराष्ट्रपति, और न्यायाधीश-संविधान का पालन करने की शपथ लेते हैं।
उन्होंने सवाल उठाया, "हम ऐसी स्थिति कैसे बना सकते हैं, जहां राष्ट्रपति को निर्देश दिए जाएं? वह भी किस आधार पर? संविधान के तहत न्यायपालिका का एकमात्र अधिकार अनुच्छेद 145(3) के तहत संविधान की व्याख्या करना है, और इसके लिए पांच या अधिक न्यायाधीशों की पीठ आवश्यक है।"
उन्होंने अपनी चिंता को "अत्यंत गंभीर" बताते हुए कहा कि उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि उन्हें अपने जीवन में ऐसी स्थिति देखनी पड़ेगी। धनखड़ ने उपस्थित लोगों से इस मुद्दे पर गंभीरता से विचार करने का आह्वान किया।