नई दिल्ली, वाईबीएनः बॉम्बे हाई कोर्ट के एक जज पांच महीने तक एक ऐसे फैसले को नहीं लिखवा सके जिसकी उन्होंने महीनों तक सुनवाई की। ओपन कोर्ट में तो उन्होंने फैसला 5 महीने पहले ही सुना दिया था पर उसे अंतिम रूप नहीं दे सके। मामले से जुड़े पक्ष जब परेशान होने लगे और उन्होंने जज से दरख्वास्त की कि कम से कम अपना आर्डर जारी तो कर दीजिए, तब उन्हें ध्यान आया। आनन फानन में फैसले को लिखवाकर कोर्ट की वेबसाइट पर डलवाया गया। खास बात है कि जिस फैसले को लिखने में देरी हुई उसे तुरंत मुकम्मल करना बेहद जरूरी था।
हाईकोर्ट की वेबसाइट पर लिख डाली दर्दभरी दास्तां
फैसले के साथ ही उन्होंने वेबसाइट पर वो दर्दभरी दास्तां भी लिख डाली जिसके चलते इसे लिखाने में देरी हुई थी। 30 मई को कोर्ट की वेबसाइट पर डाले गए फैसले में जस्टिस माधव जे जामदार ने लिखा कि पिछले साल 19 दिसंबर को खुली अदालत में फैसला सुनाने के बावजूद काम की अधिकता के कारण इसे 30 मई तक अपलोड नहीं किया जा सका। ध्यान देने वाली बात है कि कोर्ट का आदेश तभी मुकम्मल माना जाता है जब जज उसे लिखित रूप से जारी करते हैं, क्योंकि फैसले की कापी मिलने के बाद ही कोई पार्टी बड़ी अदालत में अपील कर सकती है।
जज ने बताया कि 5 महीनों तक क्यों नहीं लिख सके फैसला
जस्टिस माधव जे जामदार ने कहा कि वो रोजाना कोर्ट का टाइम पूरा होने के बाद भी दो घंटे से अधिक समय तक मामलों की सुनवाई कर रहे थे। देर रात तक आदेशों को अंतिम रूप दे रहे थे और बैकलॉग को पूरा करने के लिए सप्ताहांत और छुट्टियों पर काम कर रहे थे। फैसले में कहा गया है कि वो नियमित अदालती घंटों के बाद लगभग हर दिन कम से कम 2 से ढाई घंटे अदालत लगाते हैं। कामकाजी दिवसों के दौरान रात 10.30 बजे से 11.30 बजे के बीच आदेशों को मुकम्मल करने के बाद ही चैंबर छोड़ते हैं। अपने घर जाने के बाद रात 2 बजे तक केसों को पढ़ते हैं। सुबह उठने के बाद घर में कम से कम एक घंटे के लिए केस से माथापच्ची करते हैं। बैकलाग निपटाने के लिए शनिवार, रविवार के अलावा अवकाश के दिनों में भी चैंबर में ही मौजूद रहते हैं। उनका कहना था कि इसलिए इस आदेश को अपलोड करने में देरी हुई। जज के मुताबिक वो अपनी घरेलू जिंदगी पर कामकाज को तवज्जो देते हैं। घर जाकर भी वो दांवपेंचों से जूझते रहते हैं। : maharashtra news | Judiciary | Indian Judiciary
जिस फैसले को लिखने में देरी हुई वो अलका चव्हाण बनाम राजाराम भोसले का है। केस एक execution order से जुड़ा है। जस्टिस जामदार की बेंच आदेश को चुनौती देने वाली अपीलों पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें दिसंबर, 1984 के एक समझौते के स्पेशल एग्जीक्यूशन के लिए 1986 में मूल रूप से दायर एक मुकदमे में डिक्री-धारकों को संपत्ति का कब्जा सौंपने का निर्देश दिया गया था। अपीलकर्ताओं की तरफ से सीनियर एडवोकेट निखिल सखरदांडे, सिद्धेश भोले, आशीष वेणुगोपाल और अश्विन पिंपले पेश हुए थे। जबकि दूसरी पार्टी की पैरवी रजनीश भोंसले ने की। एडवोकेट श्रीराम एस कुलकर्णी ने एमिकस क्यूरी की भूमिका निभाई।
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