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क्रिप्टो करेंसी की बढ़ती चमक, डॉलर की घटती धमक, जानें क्यों डोल रहा 'बिगबॉस' का सिंहासन ?

अमेरिका की अर्थव्यवस्था पर डॉलर का प्रभुत्व घट रहा है, विशेषकर ट्रंप की टैरिफ नीतियों के कारण, जिससे वैश्विक व्यापार में डॉलर की मांग कम हो रही है।

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Ajit Kumar Pandey
DONALD TRUMP DOLLOR
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नई दिल्ली, वाईबीएन नेटवर्क । अमेरिका, विश्व की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था, लंबे समय से वैश्विक आर्थिक मंच पर अपनी करेंसी, अमेरिकी डॉलर, के दम पर राज करता रहा है। कई दशकों तक डॉलर ने न केवल वैश्विक व्यापार में अपनी मजबूत स्थिति बनाए रखी, बल्कि यह अंतरराष्ट्रीय लेन-देन और भंडारण का प्रमुख साधन भी रहा।

हालांकि, हाल के वर्षों में, विशेष रूप से डोनाल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल (2025) में, डॉलर की यह ताकत कमजोर पड़ती दिख रही है। वैश्विक मंच पर इसकी साख में कमी और अन्य मुद्राओं के उभरने से डॉलर की स्थिति पर सवाल उठ रहे हैं। आइए, उन पांच प्रमुख कारणों का विश्लेषण करते हैं, जिनके चलते अमेरिकी डॉलर की चमक फीकी पड़ रही है और वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए क्या संकेत हैं...

1. ट्रंप की टैरिफ नीतियों का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

डोनाल्ड ट्रंप की "अमेरिका फर्स्ट" नीति ने उनके पहले और दूसरे कार्यकाल में वैश्विक व्यापार को गहरे रूप से प्रभावित किया है। 2025 में लागू किए गए उनके नए टैरिफ, विशेष रूप से चीन, कनाडा और मैक्सिको जैसे देशों पर, ने वैश्विक व्यापार संतुलन को बिगाड़ दिया है। उदाहरण के लिए, ट्रंप प्रशासन ने चीन से आयातित वस्तुओं पर 10-25% तक टैरिफ बढ़ाए, जिसके जवाब में चीन ने अमेरिकी वस्तुओं पर जवाबी टैरिफ लगाए। नतीजतन, वैश्विक व्यापार में अमेरिकी डॉलर की मांग में कमी आई।

आंकड़े: विश्व बैंक के अनुसार, 2024 में वैश्विक व्यापार वृद्धि दर 2.5% थी, जो 2025 में घटकर 1.8% रहने का अनुमान है, जिसमें ट्रंप के टैरिफ का बड़ा योगदान है। इसके अलावा, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, व्यापार युद्ध के कारण 2025 में वैश्विक जीडीपी में 0.5% की कमी आ सकती है।

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इन टैरिफों ने कई देशों को डॉलर के बजाय अन्य मुद्राओं, जैसे यूरो और चीनी युआन, में व्यापार करने के लिए प्रेरित किया है। उदाहरण के लिए, भारत और रूस ने 2024 में अपनी द्विपक्षीय व्यापार राशि का 40% स्थानीय मुद्राओं (रुपये और रूबल) में किया, जो डॉलर की मांग को और कम करता है।

2. वैश्विक डी-डॉलराइजेशन की बढ़ती प्रवृत्ति

वैश्विक स्तर पर कई देश अब डॉलर पर अपनी निर्भरता कम करने की दिशा में तेजी से कदम उठा रहे हैं। इस प्रक्रिया को "डी-डॉलराइजेशन" कहा जाता है। ब्रिक्स देश (ब्राजील, रूस, भारत, चीन, दक्षिण अफ्रीका) इस दिशा में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। 2023 में ब्रिक्स सम्मेलन में, सदस्य देशों ने एक साझा मुद्रा प्रणाली विकसित करने की योजना पर चर्चा की, जो डॉलर के प्रभुत्व को चुनौती दे सकती है।

आंकड़े: बैंक फॉर इंटरनेशनल सेटलमेंट्स (BIS) के अनुसार, 2024 में वैश्विक विदेशी मुद्रा भंडार में डॉलर की हिस्सेदारी 58% थी, जो 2000 में 71% थी। इसके विपरीत, चीनी युआन की हिस्सेदारी 2016 के 1% से बढ़कर 2024 में 3.2% हो गई।

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चीन और रूस जैसे देश अपने व्यापार में युआन और रूबल को बढ़ावा दे रहे हैं। 2024 में, चीन और रूस के बीच 70% से अधिक व्यापार गैर-डॉलर मुद्राओं में हुआ। भारत भी इस दिशा में कदम उठा रहा है, खासकर खाड़ी देशों के साथ तेल व्यापार में रुपये के उपयोग को बढ़ावा देकर।

3. अमेरिका की बढ़ती कर्ज की समस्या

अमेरिका का राष्ट्रीय कर्ज एक ऐसी समस्या बन चुका है, जो डॉलर की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहा है। 2025 तक, अमेरिका का राष्ट्रीय कर्ज 36 ट्रिलियन डॉलर को पार कर चुका है, जो देश के जीडीपी का लगभग 130% है। इस बढ़ते कर्ज ने निवेशकों और विदेशी सरकारों के बीच चिंता पैदा की है कि क्या अमेरिका इस कर्ज को चुकाने में सक्षम रहेगा।

आंकड़े: यूएस ट्रेजरी डिपार्टमेंट के अनुसार, 2024 में अमेरिका ने अपने कर्ज पर ब्याज के रूप में 700 बिलियन डॉलर से अधिक का भुगतान किया, जो रक्षा बजट से भी अधिक है। मूडीज ने 2024 में अमेरिका की क्रेडिट रेटिंग को AAA से AA+ में डाउनग्रेड किया, जिसने डॉलर की विश्वसनीयता को और कम किया।

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इसके परिणामस्वरूप, कई देश अपने विदेशी मुद्रा भंडार में सोने और अन्य संपत्तियों को बढ़ाने पर ध्यान दे रहे हैं। उदाहरण के लिए, 2024 में रूस और चीन ने अपने सोने के भंडार में क्रमशः 15% और 10% की वृद्धि की।

4. क्रिप्टोकरेंसी और डिजिटल मुद्राओं का उभार

डिजिटल मुद्राओं, विशेष रूप से क्रिप्टोकरेंसी और सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी (CBDC), का उदय भी डॉलर की स्थिति को कमजोर कर रहा है। बिटकॉइन, एथेरियम और अन्य क्रिप्टोकरेंसी वैश्विक लेन-देन में तेजी से लोकप्रिय हो रही हैं, क्योंकि ये सीमा-पार लेन-देन को तेज और सस्ता बनाती हैं।

आंकड़े: कॉइनमार्केटकैप के अनुसार, 2024 में क्रिप्टोकरेंसी बाजार का कुल मूल्य 2.5 ट्रिलियन डॉलर को पार कर गया। इसके अलावा, 2024 तक 90 से अधिक देश अपने CBDC पर काम कर रहे थे, जिनमें से चीन का डिजिटल युआन सबसे उन्नत है।

चीन ने अपने डिजिटल युआन को अंतरराष्ट्रीय व्यापार में उपयोग करने की शुरुआत कर दी है। 2024 में, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने तेल व्यापार के लिए डिजिटल युआन के उपयोग की संभावनाओं पर चर्चा की। यह प्रवृत्ति डॉलर की मांग को और कम कर सकती है, क्योंकि तेल व्यापार में डॉलर का प्रभुत्व रहा है।

5. भू-राजनीतिक तनाव और अमेरिका की घटती विश्वसनीयता

ट्रंप प्रशासन की आक्रामक विदेश नीति और भू-राजनीतिक तनाव ने भी डॉलर की स्थिति को प्रभावित किया है। ट्रंप ने कई देशों, जैसे ईरान, रूस और चीन, के खिलाफ प्रतिबंधों को बढ़ाया, जिसके जवाब में इन देशों ने डॉलर-आधारित वित्तीय प्रणाली से दूरी बनाना शुरू कर दिया। उदाहरण के लिए, रूस ने 2024 में अपने SWIFT सिस्टम से बाहर होने के बाद अपनी वैकल्पिक भुगतान प्रणाली SPFS को मजबूत किया।

आंकड़े: 2024 में, SWIFT के आंकड़ों के अनुसार, वैश्विक भुगतान में डॉलर की हिस्सेदारी 39% थी, जो 2010 में 50% थी। इसके विपरीत, यूरो की हिस्सेदारी 33% और युआन की हिस्सेदारी 5% तक पहुंच गई।

इसके अलावा, ट्रंप की नीतियों ने सहयोगी देशों, जैसे जापान और यूरोपीय संघ, के साथ भी तनाव पैदा किया है। 2025 में, ट्रंप ने जापान-अमेरिका रक्षा समझौते को "एकतरफा" बताकर इसकी समीक्षा की मांग की, जिसने जापान को अपनी रक्षा नीतियों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया।

भारत पर प्रभाव और भविष्य की संभावनाएं

भारत, जो विश्व की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, भी डॉलर की कमजोरी से प्रभावित हो रहा है। भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने 2024 में अपने विदेशी मुद्रा भंडार में सोने की हिस्सेदारी को 8% से बढ़ाकर 10% करने का निर्णय लिया। इसके अलावा, भारत ने खाड़ी देशों के साथ तेल व्यापार में रुपये के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए कई समझौते किए।

आंकड़े: भारतीय वाणिज्य मंत्रालय के अनुसार, 2024 में भारत का 20% से अधिक तेल आयात गैर-डॉलर मुद्राओं में हुआ, जो 2020 में केवल 5% था।

हालांकि, डॉलर की कमजोरी भारत के लिए अवसर भी ला सकती है। ट्रंप के टैरिफों के कारण कई कंपनियां, जैसे ऐपल और गूगल, अपनी विनिर्माण इकाइयों को चीन से भारत में स्थानांतरित कर रही हैं। क्रिसिल की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2025 में भारत का स्मार्टफोन निर्यात 15% बढ़ सकता है, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती मिलेगी।

अमेरिकी डॉलर, जो लंबे समय तक वैश्विक अर्थव्यवस्था का आधार रहा, अब कई चुनौतियों का सामना कर रहा है। ट्रंप की टैरिफ नीतियां, डी-डॉलराइजेशन की बढ़ती प्रवृत्ति, अमेरिका का बढ़ता कर्ज, डिजिटल मुद्राओं का उभार और भू-राजनीतिक तनाव इसके प्रमुख कारण हैं। donald trump | trump | Business News Today |

ये कारक न केवल डॉलर की स्थिति को कमजोर कर रहे हैं, बल्कि वैश्विक आर्थिक व्यवस्था में बड़े बदलाव की ओर भी इशारा कर रहे हैं। भारत जैसे उभरते देशों के लिए यह स्थिति चुनौतियों के साथ-साथ अवसर भी लेकर आई है। भविष्य में, यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या डॉलर अपनी खोई हुई चमक को पुनः प्राप्त कर पाएगा या वैश्विक मंच पर नई मुद्राएं उसका स्थान लेंगी।

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