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इंदिरा गांधी से निशिकांत दुबे तक, जानें कब-कब निशाने पर आई न्यायपालिका ?

भारत की न्यायपालिका हमेशा से लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ रही है, लेकिन कई बार राजनीतिक दलों ने सुप्रीम कोर्ट और इसके जजों पर ऐसी टिप्पणियां की हैं, जो विवादों का कारण बनीं।

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Ajit Kumar Pandey
INDIRA GANDHI TO WAQF LAW
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नई दिल्ली, वाईबीएन नेटवर्क । भारत की न्यायपालिका हमेशा से लोकतंत्र का मजबूत स्तंभ रही है, लेकिन कई बार राजनीतिक दलों ने सुप्रीम कोर्ट और इसके जजों पर ऐसी टिप्पणियां की हैं, जो विवादों का कारण बनीं। सत्ता पक्ष और अन्य विपक्षी दलों ने कुछ मौकों पर जजों की आलोचना में ऐसी हदें पार कीं, जिन्होंने न सिर्फ न्यायपालिका की गरिमा को ठेस पहुंचाई, बल्कि राजनीतिक माहौल को भी गरमा दिया। भाजपा के सांसद और पीएम के करीबी सांसद निशिकांत दुबे और एक अन्य सांसद दिनेश शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट पर सीधा हमला किया है, जिसे लेकर सियायत एक बार फिर से गरमा गई है आइए, उन पांच मौकों की बात करते हैं, जब विपक्ष की आलोचना ने सुर्खियां बटोरीं। supreme court | Political Party |

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1. इंदिरा गांधी का काल (1966-1977, 1980-1984)

इंदिरा गांधी के शासनकाल में न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच कई बार तनाव उत्पन्न हुआ, जिसके कारण न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर सवाल उठे।

1971-1975: इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण केस

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मुद्दा: इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 1975 में इंदिरा गांधी के रायबरेली से लोकसभा चुनाव को चुनावी कदाचार के आधार पर रद्द कर दिया और उन पर 6 साल तक चुनाव लड़ने पर प्रतिबंध लगा दिया। इस फैसले ने इंदिरा गांधी की सत्ता को चुनौती दी।

न्यायपालिका पर प्रभाव: इस फैसले के बाद इंदिरा गांधी ने आपातकाल (25 जून 1975) की घोषणा की, जिसे कई लोगों ने न्यायपालिका को दबाने की कोशिश के रूप में देखा। 39वें संवैधानिक संशोधन के जरिए सरकार ने कोशिश की कि प्रधानमंत्री के चुनाव को न्यायिक समीक्षा से बाहर रखा जाए। सुप्रीम कोर्ट ने बाद में इस संशोधन के कुछ प्रावधानों को मूल संरचना सिद्धांत के आधार पर रद्द किया।

1973: मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में वरिष्ठता का उल्लंघन

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मुद्दा: केशवानंद भारती केस (1973) में मूल संरचना सिद्धांत स्थापित करने वाले तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों (जस्टिस शेलट, हेगड़े, और ग्रोवर) को दरकिनार कर जस्टिस ए.एन. राय को मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया, जिन्हें सरकार के प्रति अनुकूल माना जाता था।

न्यायपालिका पर प्रभाव: इस कदम को न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हमले के रूप में देखा गया। कई लोगों ने इसे सरकार की ओर से न्यायपालिका को नियंत्रित करने की कोशिश माना।

आलोचना: इस नियुक्ति ने न्यायपालिका के भीतर और बाहर भारी विवाद को जन्म दिया, और इसे कार्यपालिका द्वारा न्यायिक स्वायत्तता को कमजोर करने का प्रयास माना गया।

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1976: एडीएम जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला केस (हाबियस कॉर्पस केस)

मुद्दा: आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों, विशेष रूप से अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार), को निलंबित कर दिया गया। सुप्रीम कोर्ट ने 4:1 के बहुमत से सरकार के पक्ष में फैसला दिया कि आपातकाल में हाबियस कॉर्पस याचिकाएं दायर नहीं की जा सकतीं।

न्यायपालिका पर प्रभाव: इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट का "नैतिक पतन" माना गया, क्योंकि इसने सरकार को बिना किसी न्यायिक जांच के नागरिकों को हिरासत में लेने की अनुमति दी। जस्टिस एच.आर. खन्ना, जिन्होंने असहमति जताई, को बाद में मुख्य न्यायाधीश बनने से वंचित कर दिया गया।

आलोचना: इस फैसले ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों की रक्षा करने की उसकी भूमिका पर गंभीर सवाल उठाए। इसे आपातकाल के दौरान न्यायपालिका के सरकार के सामने समर्पण के रूप में देखा गया।

1978: मेनका गांधी बनाम भारत संघ

मुद्दा: आपातकाल के बाद, मेनका गांधी के पासपोर्ट को जब्त करने के सरकार के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। कोर्ट ने अनुच्छेद 21 के तहत "निष्पक्ष प्रक्रिया" की व्याख्या को विस्तार दिया और कार्यपालिका की मनमानी को सीमित किया।

न्यायपालिका पर प्रभाव: इस फैसले ने आपातकाल के दौरान कमजोर हुई न्यायपालिका की छवि को सुधारने में मदद की। इसने अनुच्छेद 21 को व्यापक अर्थ प्रदान किया, जिसमें जीवन के अधिकार को सार्थक बनाने वाली सभी प्रक्रियाएं शामिल की गईं।

आलोचना: हालांकि यह फैसला न्यायपालिका के लिए सकारात्मक था, लेकिन आपातकाल के दौरान इसकी निष्क्रियता की आलोचना बनी रही।

2. 1980-1990: न्यायपालिका का सक्रियता का दौर

आपातकाल के बाद, न्यायपालिका ने अपनी स्वतंत्रता को पुनः स्थापित करने और कार्यपालिका पर अंकुश लगाने के लिए सक्रिय भूमिका निभाई। इस दौरान जनहित याचिकाओं (PIL) का उदय हुआ, लेकिन इसने भी विवादों को जन्म दिया।

1980-1985: जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण

मुद्दा: इंदिरा गांधी की दूसरी पारी में, सरकार ने जजों के स्थानांतरण और नियुक्तियों में हस्तक्षेप की कोशिश की। सुप्रीम कोर्ट ने "जजों के स्थानांतरण केस" (1981) में स्थानांतरण की नीति को कुछ हद तक सीमित किया।

न्यायपालिका पर प्रभाव: इन मामलों ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को मजबूत करने में मदद की, लेकिन सरकार और कोर्ट के बीच तनाव बना रहा।

आलोचना: सरकार पर न्यायाधीशों को "दंडित" करने या अनुकूल जजों को बढ़ावा देने का आरोप लगा।

1993: दूसरा जज केस (कोलेजियम सिस्टम की स्थापना)

मुद्दा: सुप्रीम कोर्ट ने जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका की भूमिका को सीमित करते हुए कोलेजियम सिस्टम की स्थापना की, जिसमें जजों की नियुक्ति और स्थानांतरण का अधिकार मुख्य रूप से सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ जजों को दिया गया।

न्यायपालिका पर प्रभाव: इसने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को मजबूत किया, लेकिन कोलेजियम सिस्टम की अपारदर्शिता और जवाबदेही की कमी पर आलोचना शुरू हुई।

आलोचना: कोलेजियम सिस्टम को "जजों द्वारा जजों की नियुक्ति" के रूप में देखा गया, जिसे कई लोगों ने लोकतांत्रिक जवाबदेही के खिलाफ माना।

3. 2000-2010: जनहित याचिकाओं का दुरुपयोग और सक्रियता

मुद्दा: सुप्रीम कोर्ट ने पर्यावरण, मानवाधिकार, और शासन से जुड़े मामलों में सक्रियता दिखाई। हालांकि, कुछ मामलों में कोर्ट पर कार्यपालिका और विधायिका के क्षेत्र में हस्तक्षेप करने का आरोप लगा।

उदाहरण: 2G स्पेक्ट्रम केस (2012) और कोयला घोटाला केस (2014) में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार की नीतियों को रद्द किया।

न्यायपालिका पर प्रभाव: इन फैसलों ने न्यायपालिका को "लोकतंत्र का रक्षक" के रूप में स्थापित किया, लेकिन इसकी अति-सक्रियता पर सवाल उठे।
आलोचना: कोर्ट पर "न्यायिक अतिवाद" (judicial overreach) का आरोप लगा, क्योंकि इसने नीति-निर्माण में हस्तक्षेप किया, जो विधायिका का क्षेत्र माना जाता है।

2015: NJAC (राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग) का रद्द होना

मुद्दा: केंद्र सरकार ने NJAC के जरिए जजों की नियुक्ति में कार्यपालिका की भूमिका बढ़ाने की कोशिश की। सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में NJAC को असंवैधानिक घोषित कर कोलेजियम सिस्टम को बरकरार रखा।

न्यायपालिका पर प्रभाव: इस फैसले ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता को संरक्षित किया, लेकिन सरकार और कोर्ट के बीच तनाव बढ़ा।

आलोचना: कोलेजियम सिस्टम की अपारदर्शिता और NJAC को रद्द करने के फैसले को कुछ लोग कार्यपालिका की शक्तियों को कम करने की कोशिश के रूप में देखते हैं।

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2018: सुप्रीम कोर्ट के चार जजों की प्रेस कॉन्फ्रेंस

मुद्दा: चार वरिष्ठ जजों (जस्टिस चेलमेश्वर, रंजन गोगोई, मदन बी. लोकुर, और कुरियन जोसेफ) ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर तत्कालीन CJI दीपक मिश्रा पर मनमाने ढंग से केस आवंटन और प्रशासनिक अनियमितताओं का आरोप लगाया। इन जजों ने लोकतंत्र के हनन जैसे सवाल उठाकर केंद्र की भाजपा सरकार को घेरने परसवाल उठाए।हालांकि इनमें एक जज रंजन गगोई को  भाजपा ने बाद में राज्यसभा में भेजकर उपकृत भी किया।

इस घटना ने सरकार और न्यायपालिका के बीच तनाव को उजागर किया। विपक्षी दलों ने इसे न्यायपालिका पर सरकार के दबाव का सबूत बताया, जबकि सरकार ने इसे न्यायपालिका का आंतरिक मामला करार दिया। 

न्यायपालिका पर प्रभाव: यह घटना अभूतपूर्व थी और इसने न्यायपालिका के आंतरिक कामकाज पर सवाल उठाए।

आलोचना:  इस प्रेस कॉन्फ्रेंस ने देश में व्यापक बहस छेड़ दी और न्यायिक सुधारों की आवश्यकता पर जोर दिया। यह पहली बार था जब सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों ने सार्वजनिक मंच पर इस तरह की कार्रवाई की, जिसने भारतीय न्याय व्यवस्था की विश्वसनीयता और स्वायत्तता पर गहरे सवाल खड़े किए।

2024-2025: वक्फ संशोधन विधेयक

मुद्दा: वक्फ (संशोधन) विधेयक 2024, जिसे अप्रैल 2025 में संसद के दोनों सदनों ने पारित किया और राष्ट्रपति की मंजूरी के बाद यह "उम्मीद विधेयक 2025" के रूप में कानून बन गया, ने वक्फ संपत्तियों के प्रबंधन और पंजीकरण के लिए नए नियम लागू किए।

इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में  73 से अधिक याचिकाएं दायर की गईं, जिसमें "वक्फ बाय यूजर" प्रावधान को हटाने और धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप के आरोप शामिल थे। सुप्रीम कोर्ट ने 16 अप्रैल 2025 को सुनवाई की, लेकिन कानून पर तत्काल रोक नहीं लगाई।

न्यायपालिका पर प्रभाव: कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाब मांगा, विशेष रूप से ऐतिहासिक मस्जिदों के पंजीकरण और वक्फ संपत्तियों के दस्तावेजीकरण के मुद्दे पर। यह मामला अभी विचाराधीन है।

आलोचना: इसे लेकर सीधे नहीं, लेकिन सत्ता पक्ष के कई सांसद सुप्रीम कोर्ट पर हमलावर हैं। एक भाजपा सांसद निशिकांत दुबे ने तो चीफ जस्टिस का नाम लेकर देश में संघर्ष को बढ़ावा देने जैसा गंभीर आरोप लगा दिया।

क्या जजों पर हमला गलत है?

न्यायपालिका की आलोचना लोकतंत्र का हिस्सा है, लेकिन जब राजनीतिक दल जजों को व्यक्तिगत तौर पर निशाना बनाते हैं, तो यह संस्था की गरिमा को ठेस पहुंचाता है।

सत्ता पक्ष विपक्षी दलों ने कई बार सीमाएं पार की हैं, लेकिन सत्ता पक्ष (भाजपा/एनडीए) भी कई बार जजों पर सवाल उठा चुका है।भाजपा के सांसद और पीएम के करीबी सांसद निशिकांत दुबे और एक अन्य सांसद दिनेश शर्मा ने सुप्रीम कोर्ट पर सीधा हमला किय है, जिसे लेकर सियायत एक बार फिर से गरमा गई है

क्या आपको लगता है कि जजों पर सीधे हमला करना उचित है, या न्यायपालिका की स्वतंत्रता बनाए रखनी चाहिए? कमेंट में अपनी राय दें!

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