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नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । मासिक धर्म- जिसे सदियों से चुप्पी और शर्म से जोड़ा गया- आज आवाज़ और बदलाव का प्रतीक बनता जा रहा है। 28 मई को दुनियाभर में मासिक धर्म स्वच्छता दिवस मनाया जाता है, जो महिला स्वास्थ्य और सम्मान की दिशा में अहम पड़ाव है। भारत में भी अब जागरूकता की लहर है, लेकिन आंकड़े बताते हैं कि अभी मंज़िल दूर है। ग्रामीण इलाकों में 50% से ज्यादा किशोरियाँ आज भी सैनिटरी पैड्स से वंचित हैं। क्या अब वक्त नहीं आ गया कि इस विषय को खुलकर मुख्यधारा में लाया जाए?
28 मई को मासिक धर्म स्वच्छता दिवस और महिला स्वास्थ्य के अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस मौके पर हम यह जांचते हैं कि भारत समेत दुनिया में पीरियड्स को लेकर कितनी जागरूकता आई है, क्या अब भी महिलाओं को स्वच्छता उत्पाद, स्वास्थ्य सुविधाएं और मानसिक समर्थन मिल पा रहा है? आंकड़े बताते हैं कि प्रगति तो हुई है, लेकिन समाजिक धारणाएं, शिक्षा की कमी और सरकारी योजनाओं की पहुंच में अब भी भारी खामियां हैं।
आंकड़ों की जुबानी हकीकत
- यूनिसेफ के अनुसार, भारत में 15 से 24 वर्ष की केवल 36% महिलाएं ही सैनिटरी नैपकिन्स का उपयोग करती हैं।
- ग्रामीण भारत में ये संख्या और भी चिंताजनक—सिर्फ 23% किशोरियाँ सुरक्षित मासिक धर्म उत्पादों तक पहुंचती हैं।
- वहीं, शहरी भारत में जागरूकता भले बढ़ी हो, पर असहजता और शर्म अब भी दीवार बनी हुई है।
वैश्विक तस्वीर
- विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार, दुनिया में लगभग 50 करोड़ महिलाएं हर महीने मासिक धर्म से गुजरती हैं, पर इनमें से 20 करोड़ के पास सुरक्षित और सम्मानजनक साधन नहीं हैं।
- कई अफ्रीकी और एशियाई देशों में आज भी मासिक धर्म को अपवित्र माना जाता है।
किशोरियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती: शर्म, शिक्षा और सुविधा
- ग्रामीण स्कूलों में अब भी कई लड़कियाँ मासिक धर्म के दौरान स्कूल आना बंद कर देती हैं।
- शिक्षा मंत्रालय की रिपोर्ट बताती है कि हर 5 में से 1 लड़की मासिक धर्म के पहले ही स्कूल छोड़ देती है।
- स्कूलों में शौचालयों की कमी, सैनिटरी नैपकिन्स का अभाव और टीचर्स की संकोच वाली मानसिकता, यह एक सामाजिक जाल बन गया है।
"पीरियड" कहना कब सामान्य होगा?
- मासिक धर्म कोई बीमारी नहीं है, लेकिन हमारे समाज में इसे छुपाने और शर्माने की चीज़ बना दिया गया है।
- आज भी टीवी विज्ञापनों में लाल नहीं, नीला रंग दिखाया जाता है—क्या यह बताता नहीं कि हम अब भी इसे छिपाना चाहते हैं?
- युवतियों और महिलाओं को अक्सर सार्वजनिक जगहों, स्कूलों या दफ्तरों में सैनिटरी पैड छुपाकर ले जाना पड़ता है।
स्वास्थ्य पर असर: जब स्वच्छता से समझौता होता है
- अस्वच्छ तरीकों से मासिक धर्म के प्रबंधन के कारण महिलाओं को प्रजनन तंत्र संक्रमण, यूटीआई, त्वचा संक्रमण जैसी कई बीमारियों का सामना करना पड़ता है।
- स्वास्थ्य मंत्रालय के अनुसार, हर साल 1 करोड़ से ज्यादा महिलाएं मासिक धर्म से जुड़े संक्रमणों से प्रभावित होती हैं।
सस्ते पैड्स, महंगे सपने: सरकारी योजनाओं की हकीकत
- भारत सरकार की 'फ्री सैनिटरी नैपकिन स्कीम' और 'सुविधा पैड योजना' अच्छी पहल हैं, लेकिन जमीनी पहुंच बहुत सीमित है।
- कई राज्यों में ये पैड्स समय पर नहीं पहुंचते, या क्वालिटी बेहद खराब होती है।
- लक्ष्य से ज्यादा प्रचार, कम वितरण की नीति बन गई है।
जागरूकता अभियान: रोशनी की किरणें
- बॉलीवुड से लेकर सोशल मीडिया तक, कई आवाज़ें इस विषय पर उठ रही हैं- जैसे अक्षय कुमार की फ़िल्म 'पैडमैन', या #HappyToBleed जैसे अभियान।
- NGO और स्थानीय स्वयंसेवी संस्थाएं गांवों और स्लम एरिया में जागरूकता फैलाने में मदद कर रही हैं।
- कुछ स्टार्टअप्स बायोडिग्रेडेबल पैड्स और मेंस्ट्रुअल कप को भी बढ़ावा दे रहे हैं।
पर्यावरण भी बोले: “पैड्स प्लास्टिकमुक्त बनाओ”
- हर साल भारत में करीब 12.3 अरब सैनिटरी पैड्स का उपयोग होता है, जिनमें अधिकतर प्लास्टिक आधारित होते हैं।
- एक पैड को नष्ट होने में 500 से 800 साल लग सकते हैं।
- इसलिए अब ज़रूरत है कि मेंस्ट्रुअल कप, री-यूज़ेबल पैड्स और इको-फ्रेंडली विकल्पों को अपनाया जाए।
समाधान क्या हैं? रास्ते तो हैं...
- मासिक धर्म को स्कूल सिलेबस में शामिल करें।
- हर सरकारी स्कूल में मुफ्त और गुणवत्तापूर्ण पैड्स की उपलब्धता सुनिश्चित हो।
- महिलाओं को निर्णय में भागीदार बनाएं—स्थानीय पंचायतों से लेकर नीति निर्माण तक।
- स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को पीरियड्स से जुड़ी संवेदनशील ट्रेनिंग दी जाए।
- बदलाव शुरू हो चुका है, पर रफ्तार तेज़ होनी चाहिए
- मासिक धर्म कोई ‘अशुभ’ चीज नहीं, बल्कि स्त्री की जैविक ताकत का प्रतीक है।
- हमें समाज के हर कोने से इस पर बात करनी चाहिए।
- शर्म नहीं, शिक्षा; चुप्पी नहीं, चर्चा ही असली बदलाव लाएगी।
क्या आप मानते हैं कि मासिक धर्म पर खुलकर बात होनी चाहिए? कमेंट करें और अपनी राय साझा करें।
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