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Pandit Nehru की पुण्यतिथि पर खास: भारत के लोकतंत्र के सबसे बड़े शिल्पकार

27 मई को पंडित नेहरू की पुण्यतिथि पर जानिए कैसे उन्होंने भारत को लोकतंत्र, संविधान और वैश्विक नेतृत्व का आदर्श दिया। उनकी विरासत आज की राजनीति में और अधिक ज़रूरी क्यों है—पूरी रिपोर्ट में पढ़ें।

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Ajit Kumar Pandey
PANDIT NEHRU GOOGLE NEWS HINDI
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नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । 27 मई, 1964... वो दिन जब आधुनिक भारत के निर्माता का शरीर शांत हुआ, लेकिन विचार अमर हो गए। नेहरू सिर्फ पहले प्रधानमंत्री नहीं थे, वो लोकतंत्र की नींव रखने वाले वह शिल्पकार थे, जिसने भारत को दिशा दी। आज जब राजनीति ध्रुवीकरण के दौर से गुजर रही है, नेहरू के विचार पहले से ज़्यादा ज़रूरी हैं। उनकी दृष्टि, शैली और अंतरराष्ट्रीय छवि ने भारत को एक सोचने वाले देश की पहचान दी। इस पुण्यतिथि पर हम उनके जीवन, संघर्ष और विरासत को एक नई दृष्टि से देख रहे हैं।

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27 मई को पंडित जवाहरलाल नेहरू की पुण्यतिथि है। यह दिन सिर्फ शोक नहीं, बल्कि विचार और आत्ममंथन का अवसर है। नेहरू आधुनिक भारत के वो शिल्पकार थे, जिन्होंने संविधान, लोकतंत्र, विदेश नीति, औद्योगिकरण और शिक्षा के स्तंभ गढ़े। इस रिपोर्ट में जानिए कैसे उनका जीवन आज भी भारत के राजनीतिक, सामाजिक और वैश्विक विमर्श में प्रासंगिक है।

नेहरू: भारत के पहले ‘वैचारिक प्रधानमंत्री’

पंडित नेहरू को अक्सर "आधुनिक भारत का वास्तुकार" कहा जाता है, लेकिन यह परिभाषा अधूरी है। उन्होंने सिर्फ संस्थान नहीं बनाए, बल्कि उन संस्थाओं को आत्मा दी—लोकतांत्रिक आत्मा। स्वतंत्रता के बाद जब बाकी देश सैन्य तानाशाही की ओर मुड़े, नेहरू ने भारत को मतपत्र और बहस की राह दिखाई।

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लोकतंत्र के प्रति अनवरत आस्था

नेहरू का लोकतंत्र पर विश्वास सिर्फ भाषणों तक सीमित नहीं था। उन्होंने दो बार देशव्यापी चुनावों में भाग लेकर पार्टी को जीत दिलाई। एक बार जब उन्होंने थकान के कारण प्रधानमंत्री पद छोड़ने की पेशकश की, तो देश और विश्व ने राहत की सांस ली।

क्लासिक किस्सा: अप्रैल 1958 में नेहरू ने इस्तीफे की इच्छा जताई। कांग्रेस ने ठुकरा दी। अमेरिका के राष्ट्रपति आइजनहावर और रूस के नेता क्रुश्चेव ने बधाई संदेश भेजे। यह उनकी वैश्विक स्वीकार्यता का प्रमाण था।

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पाकिस्तान से तुलना और भारत का लोकतांत्रिक उदाहरण

जहां पाकिस्तान संविधानिक अराजकता में डूब गया, नेहरू ने बाबा साहेब आंबेडकर के साथ मिलकर भारत को एक स्थायी संविधान दिया। आज भी ‘नेहरूवादी संस्थाएं’ भारत की रीढ़ हैं।

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हिंदू कोड बिल: महिलाओं की मुक्ति का ऐतिहासिक क़दम

1956 में नेहरू ने वो किया जो तब कल्पनातीत था—हिंदू महिलाओं को संपत्ति और विवाह में समान अधिकार दिलाया। यह उनके लिए सबसे बड़ा सामाजिक सुधार था। उन्होंने खुद कहा कि यही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि थी।

विदेश नीति और NAM (गुटनिरपेक्ष आंदोलन)

  • नेहरू ने वैश्विक मंच पर भारत को केवल एक गरीब नवजात राष्ट्र नहीं, बल्कि विचारशील नेतृत्वकर्ता के रूप में स्थापित किया।
  • 1955 में बांडुंग सम्मेलन में जब चीन के झाऊ एन लाई चमक रहे थे, दुनिया ने नेहरू की बातों पर भरोसा जताया।
  • गुटनिरपेक्ष आंदोलन के माध्यम से उन्होंने वैश्विक युद्ध की राजनीति में 'शांति' की गुंजाइश रखी।

नेहरू और कश्मीर: युद्ध, समाधान और रणनीति

  • नेहरू की कूटनीतिक समझ ने कश्मीर संकट के शुरुआती चरणों में पाकिस्तान की साजिश को नाकाम किया।
  • 1947 के अक्टूबर में कबायलियों के हमले के दौरान माउंटबेटन को रक्षा समिति का प्रमुख बनाकर उन्होंने सेना का तेजी से नेतृत्व सुनिश्चित किया।
  • 1 जनवरी 1949 को तय हुआ "सीज़फायर लाइन", जिसे दुनिया आज भी भारत की वास्तविक सीमा मानती है।

हिमालयी भूल और चीन युद्ध

  • अगर कोई नेहरू की आलोचना करता है, तो वह चीन युद्ध को सामने रखता है।
  • नेहरू का चीन पर विश्वास उसकी राजनीतिक यथार्थता पर भारी पड़ा और 1962 में भारत को हार मिली।
  • नेहरू इस हार से उबर नहीं पाए। यही कारण है कि वे जल्दी बुढ़ा गए और 1964 में उनका निधन हुआ।

मानवता, हास्य और जीवन के रंग

  • नेहरू केवल गंभीर राजनीतिज्ञ नहीं थे, बल्कि उनमें हास्य और मानवीयता भी गहराई से थी।
  • वो fancy dress पार्टियों में जाते थे, मज़ाक करते थे लेकिन गरिमा कभी नहीं खोते थे।
  • एक बार मृदुला साराभाई से बोले—"कभी तो औरत की तरह कपड़े पहनकर आओ!"

‘Tailor to the Prime Minister’: विभाजन के पार भी लोकप्रिय

नेहरू के दर्ज़ी मुहम्मद उमर ने जब पाकिस्तान में दुकान खोली तो वहां भी लिखा—"Tailor to the Prime Minister"।

यह दर्शाता है कि नेहरू की पहचान और सम्मान भारत-पाक सीमा के पार भी थी।

मैथाई ने लिखा—"पंडितजी हर जगह बेस्टसेलर हैं।"

नेहरू की विरासत: आज कितनी प्रासंगिक?

आज जब लोकतंत्र पर सवाल उठते हैं, जब संविधान की आत्मा को चुनौती दी जाती है, नेहरू की विरासत और स्पष्ट हो उठती है।

उनका जीवन बताता है कि विचार, संस्थाएं और सम्मान, किसी भी राजनीति से ऊपर होते हैं। क्या हम फिर से उसी सोच की ओर लौट सकते हैं?

पंडित जवाहरलाल नेहरू की पुण्यतिथि केवल श्रद्धांजलि का अवसर नहीं है, बल्कि आत्मविश्लेषण का क्षण है। क्या आज की राजनीति, समाज और जनता उस स्तर की लोकतांत्रिक परिपक्वता दिखा पा रही है, जो नेहरू की अपेक्षा थी?

क्या आप भी मानते हैं कि नेहरू की सोच आज और प्रासंगिक हो गई है? नीचे कमेंट करें और अपनी राय साझा करें। 

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