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नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्कः अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में कहा कि वो भारत पाकिस्तान के बीच कश्मीर का विवाद सुलझाने के ख्वाहिशमंद हैं। हालांकि पाकिस्तान उनकी बात से खुश हो गया लेकिन भारत ने दबे स्वर में इसे खारिज कर दिया। हालांकि ये पहली बार नहीं है जब अमेरिका ने कश्मीर के मसले पर सीधा दखल देने का फैसला किया है। वो पहले भी ये कोशिशें कर चुका हैं। प्रयास सिरे नहीं चढ़े तो उसके बाद अमेरिका कश्मीर के मसले को पूरी तरह से भूल गया। America on India Pakistan tension | America Russia Ties
यूएन ने अमेरिकन को सौंपा था जनमत संग्रह का जिम्मा
कश्मीर को लेकर भारत पाकिस्तान के बीच संघर्ष आजादी के तुरंत बाद तब शुरू हो गया जब महाराजा हरिसिंह ने स्वेच्छा से भारत में शामिल होने का फैसला किया। कश्मीर में काबयली हमला कराया गया। पाक सेना इसके पीछे थी। भारत ने मुंहतोड़ जवाब दिया। एक साल बाद संयुक्त राष्ट्र ने सीज फायर करा दिया। अमेरिका ने पहली दफा यहीं से कश्मीर पर दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी। उसने संयुक्त राष्ट्र से फैसला करवा लिया कि पांच राष्ट्रों की टीम कश्मीर जाकर वहां के हालात देखेगी। टीम कश्मीर में आई और फिर फैसला दिया कि कश्मीर किसके पास रहेगा इसका फैसला जनमत संग्रह से होगा। एक अमेरिकी को जनमत संग्रह का काम सौंपा गया। हालांकि भारत ने जब सख्त रवैया दिखाया तो अमेरिकी उलटे पैर भाग निकला।
कैनेडी चीन और रूस पर कसना चाहते थे लगाम
कश्मीर मसला अमेरिका के लिए सबसे ज्यादा अहम कोल्ड वार के दौरान हुआ। तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जान एफ कैनेडी जानते थे कि कम्युनिशम के खिलाफ उसकी लड़ाई को भारत पाकिस्तान के बीच चल रहे तनाव से झटका लग सकता है। वो मानते थे कि चीन और रूस पर लगाम कसने के लिए एशिया का शांत रहना बेहद जरूरी है। वो चाहते थे कि भारत और पाकिस्तान कम्युनिस्ट देशों के खिलाफ जंग में उनके साथ रहें। लिहाजा उन्होंने कश्मीर मुद्दे के समाधान के लिए कमर कसी। कैनेडी ने भारत के पीएम जवाहर लाल नेहरू और पाकिस्तानी तानाशाह अयूब खान को निजी तौर पर चिट्ठी लिखी। उसके बाद दोनों देश इस मसले पर बात करने के लिए तैयार हुए। भारत के विदेश मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह और पाकिस्तान के विदेश मंत्री जुल्फिकार अली भुट्टो के बीच कई दौर की बातचीत हुई। लेकिन कोई नतीजा नहीं निकल सका।
कैनेडी की चिट्ठी के बाद स्वर्ण सिंह से मिले थे भुट्टो
अमेरिकन डिप्लोमेट Howard B. Schaffer ने अपनी किताब The Limits of Influence: America’s Role in Kashmir में लिखा कि कैनेडी ने 1962 के भारत चीन युद्ध में भारत की शर्मनाक हार के बाद अपने प्रतिनिधी W. Averell Harriman को एशिया में भेजा। उन्होंने कैनेडी की चिट्ठी नेहरू और अयूब खान को दी, जिसके बाद दोनों देश बातचीत के लिए तैयार हुए। हालांकि भारत अपने कदम पीछे नहीं खींचने पर अड़ा रहा और पाकिस्तान भी कोई ज्यादा इच्छुक नहीं दिखा, बातचीत बेनतीजा रही।
भारत के सख्त रुख के बाद वाशिंगटन कश्मीर से पीछे हटा
बाद के समय में कश्मीर में अमेरिकी भागीदारी लगातार कम होती गई। भारत ने दृढ़ता से कहा कि कश्मीर में किसी भी विदेशी हस्तक्षेप को उसकी संप्रभुता पर हमला माना जाएगा। वाशिंगटन ने प्रत्यक्ष भागीदारी से तो हाथ खींच लिया लेकिन तनाव के क्षणों के दौरान नई दिल्ली को अमेरिका का साथ मिलता रहा। 1999 के कारगिल संघर्ष के दौरान अमेरिकी कूटनीति ने पाकिस्तान के सैन्य नेतृत्व को कब्जे वाली ऊंचाइयों से हटने के लिए राजी करने में पर्दे के पीछे एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। दिसंबर 2001 के संसद हमले और मई 2002 में कालूचक नरसंहार के बाद ऑपरेशन पराक्रम के दौरान अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस ने तनाव कम करने का प्रयास किया, जिससे युद्ध को टालने में मदद करने वाला बैकचैनल तैयार हुआ।
अब अमेरिका का सारा जोर आतंकवाद खत्म करने पर
हाल के वर्षों में इंडो-पैसिफिक और आतंकवाद विरोधी अभियान में भारत की अमेरिका के साथ बढ़ती रणनीतिक साझेदारी ने कश्मीर में प्रत्यक्ष मध्यस्थता के लिए वाशिंगटन की इच्छा को और कम कर दिया है। 26-11 हमले के बाद से अमेरिका का जोर आतंकवाद के खात्मे पर ज्यादा रहा है। इस मामले में पाकिस्तान का रिकार्ड खराब है। लिहजा अब अमेरिका पाकिस्तान को पहले की तरह से मदद नहीं करता है। खासकर पाकिस्तान में आपरेशन करके ओसामा बिन लादेन को ठिकाने लगाने की घटना के बाद।
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