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Explain: सरकार से जयपुर राजघराने की लड़ाई में संविधान पर क्यों उठी उंगली?

राजपरिवार की ओर से पेश हरीश साल्वे ने तर्क दिया कि ऐसे मामले में क्या अदालतों के अधिकार क्षेत्र को समाप्त किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में जबकि कोई मामला संविधान के लागू होने से पहले किए गए अनुबंधों से संबंधित हो।

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Shailendra Gautam
supreme court

नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्कः बेशकीमती टाउन हाल को लेकर राजस्थान सरकार से जयपुर राजघराने की लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक जा पहुंची है। टाप कोर्ट ने सरकार को नोटिस भेजकर अपना पक्ष रखने को कहा है। विवाद इस बात को लेकर है कि राजस्थान सरकार जयपुर राजघराने को वो टाउन हाल नहीं लौटा रही है जो हकीकत में उसी का है। सरकार के अपने दावे हैं तो राजघराने के अपने। लेकिन इन सबके बीच एक अहम सवाल है जो संविधान पर उंगली उठा रहा है। ये सवाल जयपुर राजघराने के वकील हरीश साल्वी ने सुप्रीम कोर्ट में उठाया है। Judiciary | Indian Judiciary | Constitution of India not 

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राज परिवार के वकील साल्वी ने उठाई संविधान पर उंगली

राजस्थान हाईकोर्ट में जयपुर राज घराने की हार के बाद ये केस सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस प्रशांत कुमार मिश्रा और एजी मसीह की बेंच के सामने पहुंचा है। राज परिवार ने हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी है। राजपरिवार की ओर से पेश सीनियर एडवोकेट हरीश साल्वे ने तर्क दिया कि यह मामला 26वें संविधान संशोधन (abolition of privy purse) के बाद पूर्व राजघरानों के अधिकारों के बारे में महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न उठाता है। उनका सवाल था कि ऐसे मामले में  क्या अदालतों के अधिकार क्षेत्र को समाप्त किया जा सकता है। ऐसी स्थिति में जबकि कोई मामला संविधान के लागू होने से पहले किए गए अनुबंधों से संबंधित हो।

संविधान लागू होने से पहले राजघरानों और सरकार में हुआ था समझौता

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1949 में राजस्थान के विभिन्न शासकों के बीच संयुक्त राजस्थान राज्य बनाने के लिए एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किए गए थे। इस अनुबंध में शासकों और उनके परिवारों को निजी संपत्ति की गारंटी दी गई थी। भारत सरकार और तत्कालीन महाराजा सवाई मान सिंह द्वितीय ने अनुबंध के तहत पत्र के माध्यम से कुछ संपत्तियों को शासक और उनके उत्तराधिकारियों की निजी संपत्ति के रूप में मान्यता दी थी। टाउन हॉल एक ऐसी संपत्ति थी जिसे राज्य सरकार को कामकाजी उद्देश्यों के लिए उपयोग करने के लिए सहमति दी गई थी, क्योंकि नए बने राजस्थान के पास इस तरह की कोई संपत्ति नहीं थी। समझौते के तहत महाराजा सवाई मान सिंह द्वितीय को राज्य का राजप्रमुख (राज्यपाल के समकक्ष) बनाया जाना था। संयुक्त राजस्थान राज्य के गठन के बाद 1949 से इस संपत्ति का उपयोग सूबे ने किया  और महाराजा को राजप्रमुख बनाया गया। याचिकाकर्ताओं के अनुसार टाउन हॉल को आधिकारिक उपयोग के लिए अस्थायी रूप से राज्य को सौंप दिया गया था, लेकिन इसका मालिकाना हक उनको कभी भी नहीं दिया गया, जिससे विवाद पैदा हुआ। 

कमर्शियल यूज के लिए सरकार ने कसी कमर तो शुरू हुई मुकदमेबाजी

2001 में राजस्थान ने संपत्ति का उपयोग बंद कर दिया। उसके बाद राजपरिवार ने इसे वापस करने के लिए बार-बार अपील की। राजपरिवार का कहना है कि इमारत को वर्षों तक उपेक्षित रखा गया। ये जीर्ण-शीर्ण हो गया है। अब सरकार कमर्शियल यूज करने का मन बना रही है। 2023 में राज परिवार ने कब्जे, निषेधाज्ञा और मध्यवर्ती लाभ की मांग करते हुए एक दीवानी मुकदमा दायर किया। राज्य ने संविधान के अनुच्छेद 363 का हवाला देते हुए इस आधार पर मुकदमे को खारिज करने की मांग की कि इसे दीवानी अदालतें स्वीकार नहीं कर सकतीं, क्योंकि इसमें एक नियम की व्याख्या शामिल थी। ट्रायल कोर्ट ने ऑर्डर VII नियम 11 के तहत राज्य के आवेदन को खारिज कर दिया। निचली अदालत ने यह माना कि मामला नागरिक संपत्ति अधिकारों के बारे में था न कि किसी नियम के बारे में। अप्रैल 2025 में राजस्थान हाईकोर्ट ने इस फैसले को पलटकर और मुकदमे को खारिज कर दिया, जिसके बाद केस सुप्रीम कोर्ट आया। 

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राजपरिवार के वकील ने संविधान को लेकर उठाया सवाल

राज परिवार के अनुसार जब उनकी संपत्ति पर विशेष संवैधानिक सुरक्षा लागू नहीं होती तो उन्हें सिविल न्यायालयों में जाने से रोकना अनुच्छेद 14 (समानता) और अनुच्छेद 300ए (संपत्ति का अधिकार) का उल्लंघन है। उन्होंने जगत सिंह बनाम जयपुर विकास प्राधिकरण में राजस्थान हाईकोर्ट के पहले के फैसले का हवाला दिया, जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 363 का इस्तेमाल वास्तविक नागरिक विवादों को दबाने के लिए नहीं किया जाना चाहिए। 

साल्वे बोले- मामले में नहीं किया जा सकता अनुच्छेद 363 का इस्तेमाल 

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हरीश साल्वे ने तर्क दिया कि टाउन हॉल जयपुर राजपरिवार की निजी संपत्ति है और उनके मौजूदा अधिकार सामान्य नागरिक कानून द्वारा शासित हैं, न कि राजसी नियमों के अब समाप्त हो चुके ढांचे द्वारा। साल्वे ने कहा कि इस मामले में अनुच्छेद 363 का इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। उन्होंने तर्क दिया कि इसे अनुच्छेद 362 के साथ एक संवैधानिक पैकेज के हिस्से के रूप में पेश किया गया था और 26वें संविधान संशोधन द्वारा प्रिवी पर्स के उन्मूलन के बाद एक पूर्ण प्रतिबंध के रूप में इसका स्वतंत्र अस्तित्व संदिग्ध है। साल्वे ने कहा कि 363 पर तीन तर्क हैं। एक रघुनाथ सिंह मामले में था। क्या 363 वास्तव में 362 को हटाने के बाद भी लागू होता है। वो एक पैकेज का हिस्सा थे। क्या 363 शुद्ध निष्कासन खंड के रूप में जीवित रह सकता है, इस पर विचार किया जाना चाहिए। उन्होंने कि विवादित अनुबंध भारत संघ द्वारा नहीं बल्कि राजस्थान के शासकों द्वारा संयुक्त राजस्थान राज्य बनाने के लिए किया गया था। भारत सरकार ने केवल एक गारंटर के रूप में काम किया और दावा किए गए संपत्ति अधिकार अनुबंध से पुराने हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने जोो चिंता जताई वो वाकई बहुत ज्यादा बढ़ी

बेंच ने पूछा कि अगर संघ अनुबंध का पक्षकार नहीं था तो याचिकाकर्ताओं का भारतीय संघ में विलय कैसे संभव था। कोर्ट ने यह भी चिंता जताई कि साल्वे का तर्क अन्य पूर्व राजसी परिवारों को इस तरह के मुकदमे करने के लिए उकसा सकता है। जजों का सवाल था कि अगर आपकी दलील स्वीकार कर ली जाती है तो क्या सभी शासक राजस्थान में दावा करना शुरू कर देंगे? रियासतें स्वतंत्र हो जाएंगी? अब रियासतों की संपत्ति उनकी अपनी संपत्ति होगी? साल्वे ने कहा कि मुकदमा दायर करने के अधिकार का मतलब यह नहीं है कि अधिकार स्वतः ही सफल हो जाएगा। उन्होंने जवाब दिया कि मुकदमा दायर करना और अधिकार होना दो बहुत अलग चीजें हैं। उन्होंने दोहराया कि मुकदमा केवल निजी संपत्ति को लेकर है और संप्रभुता या विलय को लेकर कोई दावा नहीं किया गया था। राजस्थान के अतिरिक्त महाधिवक्ता ने इस स्तर पर किसी भी अंतरिम आदेश का विरोध किया और जवाब देने के लिए समय मांगा। 

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