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जातिगत जनगणना से मुस्लिम समाज को मिलेगा हक और पहचान... बरेली के इस उलमा ने कही यह बात

भारत ने संभावित जातिगत जनगणना न सिर्फ सामाजिक समीकरणों को स्पष्ट करेगी, बल्कि इससे उन तबकों को भी आवाज़ और अधिकार मिलेगा, जो अब तक आंकड़ों में गुम थे।

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Sudhakar Shukla
maulana rizvi
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बरेली, वाईबीएन संवाददाता

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भारत ने संभावित जातिगत जनगणना न सिर्फ सामाजिक समीकरणों को स्पष्ट करेगी, बल्कि इससे उन तबकों को भी आवाज़ और अधिकार मिलेगा, जो अब तक आंकड़ों में गुम थे। खास तौर पर मुस्लिम समाज में इस जनगणना को लेकर नई उम्मीदें जगी हैं। इससे पसमांदा मुस्लिमों को उनका जायज़ हक मिलने की राह खुलेगी।

यह कहना है बरेली के उलमा मौलाना शहाबुद्दीन रिजवी का। उन्होंने कहा कि 

बरेली में मुस्लिम आबादी करीब 25 फीसदी है। हालांकि गणना के बाद अब जातिगत ब्योरा स्पष्ट हो जाएगा। मौलाना शहाबुद्दीन रिजवी ने कहा कि बरेली में मुस्लिम आबादी लगभग 25 प्रतिशत है, लेकिन आज तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया कि इसमें किस जाति की कितनी भागीदारी है। अब तक सभी को एक ही श्रेणी में गिना जाता रहा है। तमाम योजनाओं  में सरकारी लाभ का सही वितरण उजागर नहीं हो सका।

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1930 के बाद पहली बार भारत में हो रही जातिगत जनगणना

भारत में पिछली जातिगत जनगणना 1930 में हुई थी। अब, लगभग 95 साल बाद, जब केंद्र सरकार जातिगत आधार पर जनगणना कराने जा रही है तो यह ऐतिहासिक क्षण मुस्लिम समाज के लिए भी अहम साबित हो सकता है। इससे समाज के हर तबके को उसकी आबादी के अनुसार भागीदारी तय करने में मदद मिलेगी।

पसमांदा मुस्लिमों की आबाद 75%

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मौलाना शहाबुद्दीन रिजवी कहते हैं कि अब हर तबके की हिस्सेदारी की मांग होगी। कुल मुस्लिम आबादी में पसमांदा तबके की आबादी 60 से लेकर 75 प्रतिशत तक है। अंसारी, मसूरी, इदरीसी, अब्बासी, सलमानी, राइन जैसी जातियां शामिल हैं। इन जातियों को अब तक ‘सवर्ण मुस्लिम’ तबकों के मुकाबले पीछे रखा गया है — चाहे वह राजनीति हो, नौकरियों का क्षेत्र हो या शिक्षा।

मौलाना शहाबुद्दीन रिज़वी ने कहा कि "यह एक ऐतिहासिक पहल है"

बरेली के उलमा  मौलाना शहाबुद्दीन रिज़वी ने इस पहल का समर्थन करते हुए कहा कि, "जातिगत जनगणना सरकार की एक सराहनीय पहल है। इससे यह स्पष्ट हो सकेगा कि समाज में कौन-सा तबका कहां खड़ा है। उसे क्या चाहिए।" उन्होंने कहा कि इससे मुस्लिम समाज को न सिर्फ सामाजिक न्याय मिलेगा, बल्कि योजनाओं का लाभ भी सही लोगों तक पहुंचेगा।

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कुछ मसलकों को आपत्ति, लेकिन समाज का बड़ा हिस्सा समर्थन में

मुस्लिम समाज के कुछ मसलकों का मानना है कि केंद्र सरकार की यह पहल बेअसर साबित हो सकती है।  लेकिन समाज का बड़ा तबका इस पहल को जरूरी और समयानुकूल मान रहा है। उनका कहना है कि जब तक आंकड़ों में हिस्सेदारी स्पष्ट नहीं होगी, तब तक सामाजिक न्याय की कल्पना अधूरी रहेगी।

हक की लड़ाई को मजबूत करेगी जातिगत जनगणना

जातिगत जनगणना सिर्फ आंकड़ों की गिनती नहीं है, बल्कि यह हक, पहचान और बराबरी की लड़ाई का मजबूत आधार है। इससे मुस्लिम समाज को अपनी आंतरिक विविधताओं को समझने और न्यायसंगत हिस्सेदारी की मांग को ताकत देने का अवसर मिलेगा।

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Maulana Shahabuddin Razvi
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