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सिर्फ डांटना आत्महत्या के लिए उकसाना नहीं होता”: Supreme Court ने आरोपी शिक्षक को किया बरी

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी छात्र को डांटना, उसे आत्महत्या के लिए उकसाना नहीं माना जा सकता। अदालत ने एक शिक्षक को बरी करते हुए कहा कि सुधारात्मक डांट को आपराधिक कृत्य नहीं माना जा सकता, जब तक कि दुर्भावना साबित न हो ।

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Ranjana Sharma
SUPREME COURT OF INDIA

नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क: सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि किसी छात्र को डांटना, उसे आत्महत्या के लिए उकसाने के बराबर नहीं माना जा सकता, जब तक कि उसमें दुर्भावना या उत्पीड़न की मंशा स्पष्ट न हो। सुप्रीम कोर्ट ने एक छात्र की आत्महत्या के मामले में आरोपी शिक्षक को बरी करते हुए मद्रास उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द कर दिया।

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छात्र ने कर ली थी सुसाइड 

यह मामला एक स्कूल और छात्रावास के प्रभारी शिक्षक से जुड़ा है, जिसने एक छात्र की शिकायत पर दूसरे छात्र को अनुशासनात्मक डांट लगाई थी। इसके कुछ समय बाद उस छात्र ने छात्रावास के कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। इसके बाद शिक्षक पर भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने का मुकदमा चलाया गया था। लेकिन न्यायमूर्ति अहसानुद्दीन अमानुल्ला और न्यायमूर्ति प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने पाया कि इस मामले में अभियुक्त का उद्देश्य सुधारात्मक था, न कि उत्पीड़न या अपमान करना।

न्यायालय की टिप्पणी

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“कोई भी सामान्य व्यक्ति यह नहीं सोच सकता कि किसी छात्र को डांटने से — और वह भी एक वैध शिकायत के आधार पर — इतनी गंभीर त्रासदी घट सकती है। यह डांट एक संरक्षक या शिक्षक की भूमिका में दी गई थी, न कि किसी दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य से। पीठ ने यह भी कहा कि डांटना केवल अनुशासन बनाए रखने और शिकायत पर कार्रवाई सुनिश्चित करने के लिए किया गया था, न कि मानसिक उत्पीड़न के लिए।

अभियुक्त की दलीलें

अभियुक्त शिक्षक ने अपने वकील के माध्यम से यह दलील दी कि मृतक छात्र से उसका कोई व्यक्तिगत विवाद नहीं था और उसकी प्रतिक्रिया केवल एक अभिभावकीय चेतावनी भर थी ताकि छात्र गलती न दोहराए और छात्रावास का अनुशासन बना रहे।

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यह कहा कोर्ट ने 

सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास उच्च न्यायालय के उस आदेश को पलट दिया, जिसमें आरोपी को आत्महत्या के लिए उकसाने के आरोप से मुक्त करने से इनकार किया गया था। अदालत ने स्पष्ट किया कि किसी भी अनुशासनात्मक कार्रवाई को आपराधिक उकसावे में नहीं बदला जा सकता, जब तक कि उसके पीछे स्पष्ट दुर्भावना या उत्पीड़न की मंशा साबित न हो।

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