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"मुंबई धमाकों में सभी बरी! अरविंद सावंत का सिस्टम से तीखा सवाल— ‘इतनी बड़ी तबाही और कोई दोषी नहीं?’"

2006 मुंबई ट्रेन धमाकों के सभी 12 आरोपी 18 साल बाद बॉम्बे हाईकोर्ट से बरी हो गए हैं। इस फैसले ने पीड़ितों और जनता के बीच न्याय को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। शिवसेना (UBT) ने सुप्रीम कोर्ट जाने की मांग की है, जिससे यह मामला एक नए मोड़ पर आ गया है।

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Ajit Kumar Pandey

"मुंबई धमाकों में सभी बरी! अरविंद सावंत का सिस्टम से तीखा सवाल— ‘इतनी बड़ी तबाही और कोई दोषी नहीं?’" | यंग भारत न्यूज Photograph: (Google)

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नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । साल 2006 में हुए मुंबई ट्रेन धमाकों के सभी 12 आरोपी अब बरी हो गए हैं, यानि वे निर्दोष हैं। बॉम्बे हाईकोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को पलटते हुए उन्हें निर्दोष करार दिया। यह फैसला 18 साल बाद आया है, जिसने न्याय व्यवस्था पर एक नई बहस छेड़ दी है। आखिर गुनहगार कौन था और क्या पीड़ितों को कभी इंसाफ मिलेगा?

शिवसेना (UBT) नेता अरविंद सावंत ने इस फैसले पर अपनी गहरी चिंता व्यक्त की है। उनका कहना है, "अदालत क्या करती है, इस पर हम कोई टिप्पणी नहीं कर सकते... बात यह है कि इतना बड़ा हादसा हुआ, निचली अदालत ने सज़ा सुनाई, ऐसे में हाईकोर्ट ने बिल्कुल अलग फैसला दिया, राज्य के वकील क्या कर रहे थे? राज्य की ज़िम्मेदारी ज़्यादा है... अब मामला सुप्रीम कोर्ट जाना चाहिए..."

यह सवाल वाजिब है। जब एक ही मामले में निचली अदालत और हाईकोर्ट के फैसले इतने विरोधाभासी हों, तो आम जनता का न्याय व्यवस्था पर भरोसा कैसे कायम रहेगा? क्या राज्य की ओर से इस मामले में पर्याप्त मजबूती से पैरवी नहीं की गई?

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आपको बता दें कि साल 2006, 11 जुलाई की शाम। मुंबई की लोकल ट्रेनें हमेशा की तरह यात्रियों से खचाखच भरी थीं। लोग अपने दिन भर की थकान मिटाकर घर लौट रहे थे, जब अचानक एक के बाद एक सात धमाकों से मुंबई दहल उठी। माटुंगा, माहिम, खार रोड, जोगेश्वरी, बोरीवली, मीरा रोड और भयंदर - इन सभी स्टेशनों पर हुए धमाकों ने 188 बेगुनाह लोगों की जान ले ली और 800 से अधिक घायल हुए। यह सिर्फ एक आतंकी हमला नहीं था, यह मुंबई की धड़कन पर सीधा वार था।

इन धमाकों के बाद जांच एजेंसियों ने तेजी से काम किया और 13 लोगों को गिरफ्तार किया। लंबी सुनवाई के बाद, 2015 में विशेष मकोका अदालत ने 13 में से 12 को दोषी ठहराया था। पांच को मौत की सजा और सात को उम्रकैद हुई थी। लेकिन अब, 18 साल बाद, बॉम्बे हाईकोर्ट ने उन सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया है। यह फैसला कई सवाल खड़े करता है। बता दें कि एक की कोरोना काल में मौत हो गई थी जिसे निचली अदालत ने पहले ही बरी कर दिया था।

क्या बोलीं सांसद प्रियंका चतुर्वेदी

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वहीं शिवसेना (UBT) सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने कहा, "यह बहुत दुखद है, उन्हें मौत की सज़ा देने के बजाय, उन्हें बाइज़्ज़त बरी कर दिया गया। इससे पता चलता है कि हमने जो मामला पेश किया था वह पूरी तरह से पुख्ता नहीं था, उसमें खामियां थीं, और मेरा मानना है कि इसमें हमारी राज्य सरकार की गलती है। राज्य सरकार ने इसे गंभीरता से नहीं लिया, जिसके कारण यह फैसला आया है... मुझे उम्मीद है कि महाराष्ट्र के गृह मंत्री देवेंद्र फडणवीस, जो मुख्यमंत्री भी हैं, वे इसे चुनौती देंगे..."

इंसाफ की धीमी रफ्तार और फिर खाली हाथ?

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आप जरा कल्पना कीजिए, उन परिवारों का दर्द जिन्होंने इस हमले में अपनों को खोया। 18 साल तक उन्होंने न्याय की उम्मीद में इंतजार किया। निचली अदालत से जब फैसला आया, तो शायद उन्हें थोड़ी राहत मिली होगी, लेकिन अब हाईकोर्ट के इस फैसले ने उन्हें फिर से एक अनिश्चितता के मोड़ पर ला खड़ा किया है। यह सिर्फ एक कानूनी प्रक्रिया नहीं है, यह उन पीड़ितों की भावनाओं से जुड़ा मामला है।

क्या वाकई कोई दोषी नहीं था?

यदि ये 12 लोग दोषी नहीं थे, तो फिर मुंबई को दहलाने वाले वे असली गुनहगार कौन थे? क्या वे कभी पकड़े जाएंगे? 2006 मुंबई ट्रेन ब्लास्ट की साजिश रचने वाले और उसे अंजाम देने वाले अपराधी अब भी खुले घूम रहे हैं, यह सोचकर ही सिहरन होती है। यह सिर्फ मुंबई का नहीं, पूरे देश की सुरक्षा का सवाल है।

जांच एजेंसियों की भूमिका: क्या जांच में कोई कमी रह गई थी? क्या सबूतों को सही ढंग से पेश नहीं किया गया?

कानूनी प्रक्रिया की जटिलता: भारतीय न्याय प्रणाली अपनी धीमी रफ्तार के लिए जानी जाती है। इस मामले में भी 18 साल का समय लगा, लेकिन क्या इतने समय बाद भी कोई ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाना निराशाजनक नहीं है?

पीड़ितों का भविष्य: जिन लोगों ने अपने परिवार के सदस्यों को खोया, या जो घायल हुए, उनके लिए यह फैसला एक और चोट की तरह है। उन्हें न्याय कब मिलेगा?

इस मामले को अब सुप्रीम कोर्ट ले जाने की बात कही जा रही है, जो कि स्वाभाविक भी है। यह जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट इस पूरे मामले को गंभीरता से देखे और एक ऐसा फैसला दे, जो न सिर्फ कानूनी रूप से सही हो, बल्कि पीड़ितों को भी न्याय का अनुभव करा सके। यह सिर्फ एक केस नहीं है, यह मुंबई ट्रेन ब्लास्ट पीड़ितों की 18 साल लंबी प्रतीक्षा और उनकी उम्मीदों का सवाल है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि आतंकवाद का कोई चेहरा नहीं होता। इसके शिकार हमेशा निर्दोष लोग होते हैं। 2006 मुंबई ट्रेन ब्लास्ट हमें बार-बार यह याद दिलाता है कि हमें अपनी सुरक्षा व्यवस्था को और मजबूत करना होगा और यह सुनिश्चित करना होगा कि असली गुनहगारों को कभी भी बख्शा न जाए। इस मामले में अंतिम निर्णय क्या होगा, यह तो वक्त बताएगा, लेकिन इतना तय है कि यह फैसला भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए एक महत्वपूर्ण परीक्षण है।

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