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भारत में आपातकाल: जब खामोश हो गईं थीं आवाजें!

1975 में इंदिरा गांधी ने लगाया आपातकाल: जानें क्यों, कैसे और क्या बदले देश के हालात। मौलिक अधिकार छीने गए, प्रेस पर सेंसरशिप और हजारों गिरफ्तारियां। भारत के लोकतंत्र पर इस काले अध्याय का गहरा असर और सबक। पढ़ें पूरी कहानी!

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Ajit Kumar Pandey
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भारत में आपातकाल: जब खामोश हो गईं थीं आवाजें! | यंग भारत न्यूज

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नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में 25 जून 1975 की तारीख एक ऐसा काला अध्याय है, जिसे याद करते ही सिहरन दौड़ जाती है। आज से ठीक 49 साल पहले, आधी रात को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर 'आंतरिक आपातकाल' थोप दिया था। यह वो दौर था जब रातों-रात नागरिकों के मौलिक अधिकार छीन लिए गए, मीडिया पर पाबंदियां लग गईं और हजारों निर्दोष लोगों को जेल में डाल दिया गया। आखिर क्यों लगाई गई इमरजेंसी? उस वक्त देश के हालात क्या थे? और इस आपातकाल ने भारत के लोकतंत्र पर क्या गहरा असर डाला? इस खबर में हम 1975 के उन ऐतिहासिक पन्नों को पलटेंगे और जानेंगे कि कैसे एक रात में देश की किस्मत बदल गई।

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इमरजेंसी की पृष्ठभूमि: आखिर क्यों उठी आपातकाल की तलवार?

1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में शानदार जीत और बांग्लादेश के निर्माण के बाद इंदिरा गांधी देश में एक अदम्य शक्ति के रूप में उभरी थीं। 'गरीबी हटाओ' का नारा घर-घर पहुंच गया था। लेकिन, इस लोकप्रियता के साथ-साथ देश में राजनीतिक और आर्थिक अस्थिरता भी बढ़ रही थी।

आर्थिक मोर्चे पर चुनौतियां: 1973 का तेल संकट, लगातार सूखा और बढ़ती महंगाई ने आम जनता की कमर तोड़ दी थी। बेरोजगारी चरम पर थी और सरकार के खिलाफ असंतोष बढ़ता जा रहा था।

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राजनीतिक उथल-पुथल: गुजरात और बिहार में छात्र आंदोलन हिंसक रूप ले रहे थे। जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में 'संपूर्ण क्रांति' का नारा बुलंद हो रहा था। जेपी आंदोलन का मुख्य लक्ष्य भ्रष्टाचार मुक्त समाज की स्थापना और इंदिरा गांधी सरकार का विरोध था।

राज नारायण बनाम इंदिरा गांधी केस

आपातकाल का सबसे बड़ा तात्कालिक कारण इलाहाबाद उच्च न्यायालय का वह फैसला था, जिसमें रायबरेली से इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव को रद्द कर दिया गया था। समाजवादी नेता राज नारायण ने इंदिरा गांधी पर 1971 के चुनाव में सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का आरोप लगाया था। 12 जून 1975 को जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया और उन्हें 6 साल के लिए चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित कर दिया। इस फैसले के बाद इंदिरा गांधी पर इस्तीफा देने का दबाव बढ़ गया। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले पर आंशिक रोक लगा दी, लेकिन राजनीतिक तनाव चरम पर था।

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25 जून 1975 की वो काली रात: कैसे लगा आपातकाल?

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले और बढ़ते विरोध प्रदर्शनों के बीच, इंदिरा गांधी ने एक बड़ा और अप्रत्याशित कदम उठाया। 25 जून 1975 की रात को राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने इंदिरा गांधी की सलाह पर संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में 'आंतरिक अशांति' के आधार पर आपातकाल की घोषणा कर दी।

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यह फैसला इतनी गुप्त रूप से लिया गया कि कैबिनेट के अधिकांश मंत्रियों को भी इसकी भनक नहीं लगी। आधी रात को रेडियो पर इंदिरा गांधी ने देश को संबोधित करते हुए कहा कि कुछ आंतरिक ताकतें देश को अस्थिर करने की कोशिश कर रही हैं, और इसलिए देश की सुरक्षा के लिए आपातकाल आवश्यक है।

आपातकाल के दौरान बदले देश के हालात: एक भय का माहौल

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आपातकाल की घोषणा के साथ ही देश में अभूतपूर्व बदलाव देखने को मिले। नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीन ली गई और न्यायपालिका की शक्तियां कम कर दी गईं।

विरोधियों की गिरफ्तारी: आपातकाल लगते ही हजारों राजनीतिक कार्यकर्ताओं, विपक्षी नेताओं और सामाजिक कार्यकर्ताओं को बिना किसी मुकदमे के जेल में डाल दिया गया। जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी जैसे बड़े नेता भी गिरफ्तार होने वालों में शामिल थे। अनुमान है कि इस दौरान करीब 1 लाख से 1.4 लाख लोगों को हिरासत में लिया गया था।

प्रेस पर सेंसरशिप: आपातकाल का सबसे बड़ा शिकार भारतीय मीडिया बना। सरकार ने सभी प्रमुख अखबारों और समाचार एजेंसियों पर सख्त सेंसरशिप लगा दी। खबरें छपने से पहले सरकार से मंजूरी लेनी पड़ती थी। कई अखबारों को बिजली काटकर चुप करा दिया गया। 

संपादकों को धमकी दी गई कि अगर उन्होंने सरकार के खिलाफ कुछ भी छापा, तो उन्हें गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। यह भारतीय प्रेस के इतिहास का सबसे काला अध्याय था। लोगों तक सही जानकारी पहुंचना लगभग बंद हो गया था और अफवाहों का बाजार गर्म था।

नसबंदी अभियान: आपातकाल के दौरान संजय गांधी के नेतृत्व में शुरू किया गया जबरन नसबंदी अभियान एक और विवादास्पद कदम था। जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर हजारों लोगों को जबरन नसबंदी के लिए मजबूर किया गया, जिससे आम जनता में भारी आक्रोश फैल गया।

संवैधानिक संशोधन: इस दौरान संविधान में कई संशोधन किए गए, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण 42वां संशोधन था। इस संशोधन ने संसद की शक्तियों में वृद्धि की और न्यायपालिका की समीक्षा शक्तियों को सीमित कर दिया। इसे 'लघु संविधान' भी कहा जाता है, क्योंकि इसने संविधान के मूल ढांचे में बड़े बदलाव किए।

सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग: आपातकाल के दौरान पुलिस और प्रशासन ने सरकार के इशारे पर काम किया। लोगों को छोटी-छोटी बातों पर गिरफ्तार किया गया और उन पर अत्याचार किए गए। भय का माहौल ऐसा था कि लोग अपनी बात कहने से भी डरने लगे थे।

देश की जनता की राय: दबी हुई आवाजें और प्रतिरोध

आपातकाल के दौरान देश की जनता की राय बंटी हुई थी। एक तरफ, कुछ लोगों को लगा कि देश में अनुशासन आ रहा है और अराजकता खत्म हो रही है। सरकारी दफ्तरों में समय की पाबंदी और रेलवे में सुधार जैसे कुछ सकारात्मक बदलाव भी देखने को मिले।

हालांकि, बड़ी संख्या में लोग आपातकाल के खिलाफ थे। मौलिक अधिकारों के हनन, प्रेस सेंसरशिप और जबरन नसबंदी जैसे कदमों ने आम जनता में भारी असंतोष पैदा किया। खासकर शहरी मध्य वर्ग और बुद्धिजीवी वर्ग ने आपातकाल का कड़ा विरोध किया। कई भूमिगत आंदोलन शुरू हुए, पैम्फलेट बांटे गए और गुप्त बैठकें हुईं। कई कलाकारों, लेखकों और गायकों ने अपने काम के जरिए विरोध व्यक्त किया।

मीसा (Maintenance of Internal Security Act) के तहत हजारों लोगों को गिरफ्तार किया गया। यह एक ऐसा कानून था जिसके तहत सरकार किसी भी व्यक्ति को बिना किसी आरोप के हिरासत में ले सकती थी। इसने लोगों के मन में गहरा डर पैदा कर दिया था।

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आपातकाल का अंत और लोकतंत्र की जीत

जनता के बढ़ते असंतोष और अंतरराष्ट्रीय दबाव के चलते, इंदिरा गांधी ने 18 महीने बाद, 18 जनवरी 1977 को अचानक आपातकाल हटाने और चुनाव कराने की घोषणा की। उन्हें उम्मीद थी कि जनता अभी भी उनके साथ है।

लेकिन, मार्च 1977 में हुए आम चुनावों में इंदिरा गांधी और कांग्रेस पार्टी को भारी हार का सामना करना पड़ा। जनता पार्टी, जो विभिन्न विपक्षी दलों को मिलाकर बनी थी, ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। यह भारतीय लोकतंत्र की एक बड़ी जीत थी, जिसने साबित कर दिया कि जनता की शक्ति ही सबसे बड़ी है।

आपातकाल की विरासत: एक सबक, एक चेतावनी

1975 का आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इसने हमें कई महत्वपूर्ण सबक सिखाए:

लोकतंत्र की कीमत: इसने हमें सिखाया कि लोकतंत्र और स्वतंत्रता कितनी अनमोल हैं और इन्हें हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए।

मीडिया की भूमिका: आपातकाल ने प्रेस की स्वतंत्रता के महत्व को उजागर किया। एक स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया ही लोकतंत्र का चौथा स्तंभ है, जो सरकार पर नजर रखता है।

न्यायपालिका की स्वतंत्रता: इस दौरान न्यायपालिका पर भी दबाव डाला गया, जिससे यह स्पष्ट हुआ कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता लोकतंत्र के लिए कितनी महत्वपूर्ण है।

आज भी, जब हम भारत के लोकतंत्र की बात करते हैं, तो 1975 के आपातकाल का जिक्र जरूर होता है। यह घटना हमें हमेशा याद दिलाती रहेगी कि शक्ति का दुरुपयोग कितना खतरनाक हो सकता है और हमें अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के लिए हमेशा सजग रहना चाहिए। यह हमें आगाह भी करती है कि लोकतंत्र केवल चुनाव तक सीमित नहीं है, बल्कि यह बोलने की आजादी, असहमति का अधिकार और कानून के शासन का सम्मान करने पर भी निर्भर करता है।

1980 के चुनाव में इंदिरा गांधी की वापसी

इंदिरा गांधी ने आपातकाल (1975-77) के बाद 1980 में जबरदस्त वापसी की, जबकि 1977 में जनता पार्टी की आंधी में उनकी कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा था। लेकिन सिर्फ 3 सालों में कैसे उन्होंने सत्ता में वापसी की और कैसे उन्होंने आपातकाल के लिए अप्रत्यक्ष रूप से देश से माफी भी मांगी — यही इस सवाल का दिलचस्प पहलू है।

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1. आपातकाल और जनता पार्टी की जीत (1977)

25 जून 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में आपातकाल घोषित किया। इसकी वजह बनी थी इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा उनकी चुनावी जीत को अवैध घोषित किया जाना। आपातकाल में:

  • प्रेस सेंसरशिप लागू हुआ।
  • विपक्षी नेता जेल में डाले गए (जेपी, अटल, आडवाणी आदि)।
  • नसबंदी जैसे विवादास्पद कार्यक्रम लागू हुए (संजय गांधी की भूमिका)।

जनता में असंतोष पनपा। मार्च 1977 में जब चुनाव हुए, तो:

  • कांग्रेस बुरी तरह हारी।
  • उत्तर भारत में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया।
  • मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार बनी।

2. जनता पार्टी की विफलता और बिखराव

जनता पार्टी में विविध विचारधाराएं थीं — जनसंघ, सोशलिस्ट, कांग्रेस (O), इत्यादि। इनमें आपसी खींचतान थी। परिणाम:

सरकार अंदरूनी कलह से जूझती रही।

  • 1979 तक सरकार गिर गई।
  • विश्वासघात, आरोप-प्रत्यारोप और नेतृत्वहीनता से जनता का मोहभंग हुआ।
  • इसी बीच इंदिरा गांधी ने अपनी राजनीतिक वापसी की रणनीति बनानी शुरू कर दी।

3. इंदिरा गांधी की वापसी की तैयारी

इंदिरा गांधी ने:

  • कांग्रेस को फिर से संगठित किया।
  • खुद को "अनुभवी और स्थिर नेता" के रूप में पेश किया।
  • जनता पार्टी की नाकामियों को अपने पक्ष में भुनाया।

उन्होंने आपातकाल पर खुलकर बहुत कुछ नहीं कहा, लेकिन कई रैलियों में "जनता के फैसले को सिर झुकाकर स्वीकारने" की बात कही, जो अप्रत्यक्ष माफी मानी जाती है।

"हमसे गलतियां हुईं, लेकिन देश का भला सोचकर कीं। अब आपके सामने फिर हाज़िर हूं।"

4. 1980 का चुनाव और इंदिरा की वापसी

  • कांग्रेस (I) ने "हम फिर से स्थिरता लाएंगे" जैसे नारे दिए।
  • जनता पार्टी की फूट से लोगों में निराशा थी।
  • उत्तर भारत में कांग्रेस की लोकप्रियता लौटने लगी।

परिणाम (जनवरी 1980):

  • कांग्रेस को पूर्ण बहुमत मिला।
  • इंदिरा गांधी फिर से प्रधानमंत्री बनीं।

5. आपातकाल पर इंदिरा गांधी का रुख (1980 के बाद)

इंदिरा गांधी ने कभी औपचारिक रूप से माफी नहीं मांगी, लेकिन कई बार "नर्म भाषा" में कहा कि "हालात उस समय अलग थे"।

संसद और भाषणों में वह आपातकाल के सकारात्मक पक्ष (ट्रेन समय पर, भ्रष्टाचार में कमी आदि) की भी बात करती थीं।

हालांकि इंदिरा गांधी ने स्वीकारा

"हमसे कुछ गलत निर्णय हुए होंगे, लेकिन उद्देश्य देश की रक्षा था। अगर लोगों को कष्ट हुआ, तो मैं दुखी हूं।"

यह बयान राजनीतिक भाषा में 'माफी' की तरह ही समझा गया।

इंदिरा गांधी की वापसी जनता पार्टी की विफलता, उनकी खुद की सांगठनिक ताकत और राजनीतिक परिपक्वता का परिणाम थी।

उन्होंने सीधी माफी नहीं मांगी, लेकिन जनता के निर्णय को स्वीकार कर, दुख जताकर, और फिर विश्वास जीतकर खुद को फिर से देश की राजनीति के केंद्र में स्थापित किया।

क्या आपको लगता है कि भारत जैसे बड़े और विविध देश में भविष्य में ऐसी किसी स्थिति की पुनरावृत्ति संभव है? नीचे कमेंट करके अपनी राय बताएं!

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