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चीन की 'दोस्ती' का काला सच : श्रीलंका, पाकिस्तान के बाद अब ईरान भी फंसा! | यंग भारत न्यूज
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।आज की दुनिया में जब भी कोई देश आर्थिक संकट में घिरता है, तो उसकी नज़र मदद के लिए बड़े और शक्तिशाली देशों की ओर जाती है। ऐसे में, चीन अक्सर एक "मसीहा" बनकर सामने आता है, जो आर्थिक मदद और विकास परियोजनाओं का सब्जबाग दिखाता है। लेकिन क्या आपने कभी सोचा है कि चीन की इस दोस्ती की कीमत कितनी भारी पड़ सकती है? पिछले कुछ सालों में हमने देखा है कि कैसे चीन की "दोस्ती" ने श्रीलंका और पाकिस्तान जैसे देशों को गहरे संकट में धकेल दिया है। अब ख़बरें बता रही हैं कि ईरान भी चीन के इस 'विकास मॉडल' का अगला शिकार बन सकता है।
चीन की आर्थिक मदद और निवेश अक्सर ऐसे देशों को मिलते हैं जो आर्थिक रूप से कमज़ोर होते हैं या जिन्हें पश्चिमी देशों से मदद नहीं मिल पाती। चीन इन देशों को भारी-भरकम कर्ज देता है, जिसका इस्तेमाल बड़ी-बड़ी इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं में किया जाता है। देखने में यह सब बहुत आकर्षक लगता है - नए बंदरगाह, सड़कें, रेलवे लाइनें, और पावर प्लांट। लेकिन इस सिक्के का दूसरा पहलू भी है, जो उतना आकर्षक नहीं है।
जब चीन की दोस्ती ने श्रीलंका को दिवालिया कर दिया
श्रीलंका, जो कभी हिंद महासागर का एक चमकता सितारा था, आज चीन की 'दोस्ती' का सबसे बड़ा उदाहरण बन गया है। चीन ने श्रीलंका में हम्बनटोटा बंदरगाह और मत्ताला राजपक्षे अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे जैसी बड़ी परियोजनाओं के लिए भारी कर्ज दिया। ये परियोजनाएं श्रीलंका के लिए बहुत महत्वाकांक्षी थीं, लेकिन इनकी लागत बहुत ज़्यादा थी और इनसे आर्थिक लाभ उम्मीद के मुताबिक नहीं मिले।
जब श्रीलंका इन कर्जों को चुकाने में असमर्थ हो गया, तो चीन ने हम्बनटोटा बंदरगाह को 99 साल की लीज पर ले लिया। यह सिर्फ एक बंदरगाह नहीं था, बल्कि श्रीलंका की संप्रभुता पर एक बड़ा दाग था। इस घटना ने दुनिया को चौंका दिया कि कैसे चीन कर्ज के जाल में फंसाकर छोटे देशों की महत्वपूर्ण संपत्तियों पर कब्ज़ा कर सकता है। श्रीलंका की अर्थव्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई, लोग सड़कों पर उतर आए, और देश दिवालिया होने की कगार पर पहुँच गया। यह सब चीन की उस 'दोस्ती' का नतीजा था, जो शुरू में इतनी आकर्षक लग रही थी।
पाकिस्तान: सदाबहार दोस्ती का बोझ और बढ़ती मुश्किलें
पाकिस्तान और चीन की दोस्ती दशकों पुरानी है, जिसे अक्सर "सदाबहार दोस्ती" कहा जाता है। चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) इस दोस्ती का सबसे बड़ा प्रतीक है। CPEC के तहत, चीन पाकिस्तान में अरबों डॉलर का निवेश कर रहा है, जिसमें सड़कें, रेलवे, पावर प्लांट और ग्वादर बंदरगाह का विकास शामिल है। यह परियोजना पाकिस्तान के लिए आर्थिक विकास का एक सुनहरा अवसर मानी जा रही थी।
लेकिन CPEC भी पाकिस्तान के लिए एक बड़ी चुनौती बन गया है। पाकिस्तान पर चीन का कर्ज लगातार बढ़ता जा रहा है, और देश की आर्थिक स्थिति दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। CPEC परियोजनाओं में देरी, सुरक्षा संबंधी चिंताएं, और भ्रष्टाचार के आरोप भी इस परियोजना की सफलता पर सवाल खड़े कर रहे हैं। पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर पहले से ही भारी बोझ है, और चीन का बढ़ता कर्ज इस बोझ को और बढ़ा रहा है। कई विशेषज्ञ अब यह मानने लगे हैं कि CPEC पाकिस्तान को आत्मनिर्भर बनाने के बजाय उसे चीन पर और अधिक निर्भर बना रहा है। पाकिस्तान की आर्थिक संप्रभुता भी अब खतरे में दिख रही है, ठीक वैसे ही जैसे श्रीलंका के साथ हुआ था।
क्या अगला शिकार ड्रैगन का ईरान होगा?
अब बात करते हैं ईरान की। अमेरिका के प्रतिबंधों और अंतरराष्ट्रीय अलगाव के कारण ईरान की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है। फिर इजरायल और अमेरिका के हमले ने तोड़ दिया। ईरान की आर्थिक कमर तोड़ने के बाद ट्रंप ने सीजफायर का ऐलान कर दिया। ईरान को इस मुसीबत के समय न तो रूस आया और न ही चीन। दोनों देश खाली जुबानी जमाखर्ची वाली कहावत चरितार्थ करते नजर आए। हालांकि इस बात को कमोबेस ईरान भी समझ गया।
फिलहाल चीन ने ईरान के साथ एक 25 साल का रणनीतिक सहयोग समझौता हुआ है, जिसमें चीन ईरान में भारी निवेश करेगा, खासकर ऊर्जा और इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर में। यह समझौता ईरान के लिए एक उम्मीद की किरण लग रहा है, क्योंकि चीन ईरान के तेल का सबसे बड़ा खरीदार है। मगर, समझौता हुए कई साल बीत गए लेकिन चीन का कुछ खास इनवेस्टमेंट नजर नहीं आया।
लेकिन, अब यहां भी वही खतरा मंडरा रहा है, जो श्रीलंका और पाकिस्तान के साथ हुआ है। चीन की यह दोस्ती ईरान के लिए भी एक मीठा ज़हर साबित हो सकती है। चीन के निवेश से ईरान को तत्काल राहत मिल सकती है, लेकिन दीर्घकालिक रूप से यह उसे चीन पर और अधिक निर्भर बना सकता है। अगर ईरान भी चीन का कर्ज चुकाने में असमर्थ होता है, तो उसे भी अपनी महत्वपूर्ण संपत्तियां गंवानी पड़ सकती हैं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि चीन ईरान में अपने सैन्य और भू-राजनीतिक प्रभाव को भी बढ़ाना चाहता है, जो क्षेत्र में अस्थिरता पैदा कर सकता है।
ईरान की भौगोलिक स्थिति और उसके तेल भंडार को देखते हुए चीन के लिए यह एक रणनीतिक जीत होगी, लेकिन ईरान के लिए यह एक बड़ी हार साबित हो सकती है। अगर ईरान भी चीन के कर्ज के जाल में फंसता है, तो यह मध्य पूर्व की राजनीति में एक बड़ा बदलाव ला सकता है और चीन की क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को और हवा दे सकता है।
चीन की 'डेब्ट ट्रैप डिप्लोमेसी' यानी कर्ज जाल की कूटनीति
चीन की इस रणनीति को 'डेब्ट ट्रैप डिप्लोमेसी' यानी कर्ज जाल कूटनीति कहा जाता है। इस रणनीति में, चीन जानबूझकर छोटे और आर्थिक रूप से कमज़ोर देशों को भारी कर्ज देता है, यह जानते हुए कि वे उन्हें चुकाने में असमर्थ होंगे। जब वे देश कर्ज नहीं चुका पाते, तो चीन उनसे अपनी महत्वपूर्ण रणनीतिक संपत्तियां या रियायतें हासिल कर लेता है। यह एक ऐसा जाल है जिसमें फंसने के बाद निकलना लगभग नामुमकिन हो जाता है।
चीन की यह रणनीति सिर्फ आर्थिक नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक भी है। चीन हिंद महासागर और अफ्रीका जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है। वह इन देशों में इन्फ्रास्ट्रक्चर परियोजनाओं के नाम पर अपने सैन्य और आर्थिक ठिकाने बनाना चाहता है, जिससे उसकी वैश्विक शक्ति और दबदबा बढ़े। यह एक ऐसी रणनीति है जो दुनिया के लिए एक बड़ा खतरा पैदा कर रही है, क्योंकि यह देशों की संप्रभुता और आर्थिक स्थिरता को चुनौती दे रही है।
दुनिया के लिए एक बड़ी चेतावनी
श्रीलंका, पाकिस्तान और अब ईरान के उदाहरण दुनिया के लिए एक बड़ी चेतावनी है। यह दिखाता है कि चीन की 'मदद' के पीछे उसके अपने स्वार्थ छिपे होते हैं। उसकी दोस्ती सिर्फ जुबानी जमाखर्ची नहीं, बल्कि एक खतरनाक खेल है जो देशों को बर्बादी की ओर धकेलता है।
दुनिया को इस पर गंभीरता से विचार करना होगा कि चीन की इस कर्ज जाल कूटनीति का मुकाबला कैसे किया जाए। अंतरराष्ट्रीय समुदाय को उन देशों की मदद करनी होगी जो चीन के चंगुल में फंसने से बचना चाहते हैं। साथ ही, उन देशों को भी सतर्क रहना होगा जो चीन से आर्थिक मदद लेने की सोच रहे हैं। उन्हें यह समझना होगा कि हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती, और हर मदद के पीछे एक छुपा हुआ एजेंडा हो सकता है।
चीन की बढ़ती आर्थिक और सैन्य शक्ति के साथ-साथ उसकी यह खतरनाक 'दोस्ती' भी एक वैश्विक चिंता का विषय बनती जा रही है। अगर इस पर लगाम नहीं लगाई गई, तो यह दुनिया के कई और देशों को गंभीर संकट में धकेल सकती है।
क्या आपको लगता है कि चीन की 'दोस्ती' वास्तव में एक 'कर्ज का जाल' है? क्या अन्य देशों को भी श्रीलंका और पाकिस्तान की गलतियों से सीखना चाहिए? अपनी राय और विचार कमेंट सेक्शन में ज़रूर साझा करें!
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