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चैतन्य अशोक अढव
नई दिल्ली। एक नए अध्ययन से पता चला है कि मध्य भारत के तीन में से एक जिला क्लाइमेट चेंज से निपटने और इसके अनुकूल बनने के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। इस अध्ययन में एग्रो-क्लाइमेटिक और सामाजिक-आर्थिक असुरक्षाओं के आधार पर क्षेत्र के जलवायु परिवर्तन से निपटने की क्षमता के बारे में बताया गया है। स्टडी के निष्कर्ष बढ़ते तापमान, अनियमित वर्षा और सूखे का मुकाबला करने की तैयारियों के बारे में कमियों और किए जाने वाले उपायों को सामने लाते हैं।
इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एनवायरनमेंट एंड क्लाइमेट चेंज में हाल में प्रकाशित इस अध्ययन का शीर्षक है, “असेसिंग क्लाइमेट चेंज रेजिलिएंस इन सेंट्रल इंडियन एग्रीकल्चर: ए रीजनल इंडिकेटर-बेस्ड अप्रोच एंड एग्रो-क्लाइमेटिक जोन मैपिंग.” इसमें चार राज्यों - मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और दक्षिणी उत्तर प्रदेश के 102 जिलों की स्टडी की गई। इन जिलों का बहुत चुनौतीपूर्ण मौसम और सूखे जैसी स्थितियों से प्रभावित होने का बहुत ज्यादा खतरा होता है।
यह अध्ययन पीएचडी रिसर्च स्कॉलर चैतन्य अशोक अढव ने डॉ. हरि नाथ सिंह, एग्रीकल्चर इकोनॉमिक्स विभाग, जीबी पंत यूनिवर्सिटी ऑफ एग्रीकल्चर एंड टेक्नोलॉजी, उत्तराखंड के मार्गदर्शन में किया है. इसमें पाया गया कि मध्य भारत के 27.39% जिले ‘जलवायु परिवर्तन से निपटने में कम सक्षम’ श्रेणी में आते हैं, जो किसानों, इकोसिस्टम और ग्रामीण आजीविका संबंधी अहम असुरक्षाओं को उजागर करता है। Environmental Friendly | environmental awareness | environment | environment awarness | india environmental news
जलवायु परिवर्तन से निपटने की क्षमता क्या है?
जलवायु परिवर्तन से निपटने की क्षमता का मतलब है भारी बारिश, बढ़ता तापमान या सूखे की स्थिति का सामना करने और निपटने के लिए किए गए उपायों से है। नीतिगत हस्तक्षेप के कारण, जिन जिलों में अच्छी सड़क, कुशल सिंचाई प्रणाली, मौसम का अलर्ट और किसानों के लिए सहायता उपलब्ध होती है। इसका मतलब है कि ऐसे बहुत चुनौतीपूर्ण मौसमों के कारण कृषि उपज को नुकसान होने की आशंका कम होती है। अध्ययन के प्रमुख लेखक चैतन्य अढव बताते हैं, "दूसरी ओर, जिस जिले के पास बहुत गर्मी (हीटवेव) या सूखे जैसी स्थिति से निपटने के लिए कुशल योजना, संसाधन या सहायता नहीं होती है, वह कम सक्षम जिला कहलाता है. इनके बहुत अधिक प्रभावित होने की आशंका अधिक होती है, क्योंकि ऐसे खतरों से जल्द और प्रभावी ढंग से निपटने के लिए इनके पास अनुकूलन तंत्र (एडाप्टेशन मैकेनिज्म) नहीं होता है।"
अध्ययन के निष्कर्ष
अध्ययन में 50 सब-इंडीकेटर्स का उपयोग किया गया, जिनमें वास्तविक और अपेक्षित वर्षा के बीच के अंतर, वन क्षेत्र, जनसंख्या घनत्व, साक्षरता दर, फसल बीमा, सिंचाई की उपलब्धता, सड़क संपर्क और बाजार बुनियादी ढाँचा शामिल हैं। इन सब-इंडीकेटर्स को जलवायु से जुड़े खतरों, कृषि उत्पादकता और जलवायु अनुकूलनशीलता (क्लाइमेट अडैप्टबिलटी) के तीन प्रमुख घटकों में वर्गीकृत किया गया. जबकि केवल 28.71% जिलों को 'अत्यधिक सक्षम' माना गया, अधिकांश (43.91%) मध्यम रूप से सक्षम पाए गए। शेष 36 जिले, जो अध्ययन क्षेत्र के लगभग 30% इलाके में स्थित हैं, में जलवायु परिवर्तनों से निपटने के लिए संस्थागत और पारिस्थितिक (इकोलॉजिकल) दोनों तरह के प्रतिरोधक (बफर) की कमी मिली। अढव कहते हैं, "कम सक्षम जिले आम तौर पर दोहरे चुनौती का सामना करते हैं। एक तरफ, उनके सामने सूखे और अनियमित वर्षा जैसे जलवायु परिवर्तनों का खतरा ज्यादा रहता है। दूसरी ओर, खराब बुनियादी ढांचे, कम साक्षरता और सीमित संस्थागत पहुंच के कारण जलवायु परिवर्तनों के अनुकूल बनने की उनकी क्षमता बहुत ज्यादा बाधित होती है। इन क्षेत्रों में जलवायु परिवर्तन के अनुकूल योजना तैयार करने के लिए तत्काल ध्यान दिए जाने और लक्षित हस्तक्षेप करने की जरूरत है।"
मध्य भारत के जलवायु परिवर्तन से निपटने में सक्षम जिले
अध्ययन में पहचाने गए कुछ सबसे कम सक्षम जिलों में मध्य प्रदेश के भोपाल, दमोह, गुना, मुरैना, पन्ना, सीधी, टीकमगढ़, रतलाम शामिल हैं, जिन सभी का स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे, वन क्षेत्र और साक्षरता दर जैसे प्रमुख संकेतकों के आधार पर प्रदर्शन खराब रहा. श्योपुर (एमपी) और दुर्ग (छत्तीसगढ़) जैसे अन्य कम सक्षम क्षेत्रों में लगातार सूखा पड़ना, खराब सड़क संपर्क और आजीविका के सीमित साधन जैसे पर्यावरणीय और संस्थागत - दोनों प्रकार की चुनौतियां मौजूद हैं.
इसके विपरीत, महाराष्ट्र में अहिल्या नगर को बेहतर वन क्षेत्र, सड़क बुनियादी ढांचे और कम जनसंख्या घनत्व के कारण अत्यधिक सक्षम जिले के रूप में वर्गीकृत किया गया। महाराष्ट्र के सांगली एवं कोल्हापुर और छत्तीसगढ़ के रायपुर जैसे जिलों ने भी अच्छा प्रदर्शन किया, जिसका श्रेय शिक्षा, बाजार और सार्वजनिक सेवाओं तक अपेक्षाकृत बेहतर पहुंच को जाता है। दक्षिणी यूपी के सभी चयनित जिले कम से मध्यम सक्षम जिले के रूप में सामने आए, जो अक्षमताओं और नीतियों के असमान प्रचार-प्रसार और कार्यान्वयन को दर्शाता है।
क्षेत्रीय आधार पर तैयार जलवायु योजनाओं की जरुरत: विशेषज्ञ
सह-लेखक और जलवायु अनुकूलन शोधकर्ता डॉ. हरि नाथ सिंह के अनुसार, यह अध्ययन ज्यादा विस्तृत और क्षेत्रीय आधार पर तैयार जलवायु योजनाओं की जरुरत को सामने लाता है। उन्होंने कहा, “क्लाइमेट चेंज से निपटने के लिए क्षेत्रीय आधार पर योजनाएं बनाने की जरूरत है क्योंकि क्लाइमेट चेंज से स्थानीय लोग ही सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं, लेकिन नीतियां राष्ट्रीय या राज्य स्तर पर बनाई जाती हैं।" अध्ययन में कम सक्षम जिलों में जलवायु संकट से निपटने हेतु, भूजल उपलब्धता और फसल विविधीकरण में सुधार के लिए जल संचयन को बढ़ावा देने की अनुशंसा की गई है ताकि पर्यावरण चुनौतियों के असर को कम किया जा सके. इसके साथ-साथ ग्रामीण कृषि विस्तार सेवाओं और आपदा तैयारी तंत्र जैसे संस्थागत सहायता प्रणालियों को बेहतर बनाने की भी सिफारिश है. जमीनी स्तर पर जलवायु संकट से निपटने की क्षमता विकसित करने के लिए पारिस्थितिक बहाली (इकोलॉजिकल रेस्टोरेशन) और समुदाय के नेतृत्व वाले प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन के महत्व की पहचान दीर्घकालिक रणनीतियों के रूप में की गई है। अधव ने कहा, "जलवायु परिवर्तन से निपटने में सक्षम होना सिर्फ़ तकनीक या बुनियादी ढांचे पर निर्भर नहीं होता है। यह सामाजिक पूंजी, शासन और अनिश्चित जलवायु घटनाओं का अनुमान लगाने, उनसे संबंधित योजना बनाने और उनका सामना करने की समुदायों की क्षमता पर भी निर्भर करता है।"