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Russia से तेल पर NATO की दो टूक : India-China को दी इशारों में धमकी, आखिर कौन है NATO? | यंग भारत न्यूज Photograph: (Google)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।जिस संगठन की स्थापना ही सोवियत संघ के विरोध में हुई हो वह तो अब रूस का विरोध करेगा ही। नाटो की स्थापना का मकसद की सोवियत संघ को टुकड़ों में तोड़ना था और वह अपने इस उद्देश्य में सफल भी हो गया। लेकिन, रूस के राष्ट्रपति पुतिन के आने बाद नाटो का विरोध और तेज इसलिए हुआ क्योंकि पुतिन रूस को सोवियत संघ बनाने का सपना देख रहे हैं। और रूस से अलग हुआ देश यूक्रेन अब नाटो में शामिल होना चाहता है। नाटो इसलिए यूक्रेन को सपोर्ट देकर रूस से युद्ध करवा रहा है ताकि रूस टूट जाए। हालांकि रूसी प्रेसिंडेंट पुतिन डटकर मुकाबला कर रहे हैं।
इस दौरान नाटो चाहता है कि दुनिया का कोई भी देश रूस से आर्थिक अथवा किसी भी प्रकार का संबंध न रखे। क्योंकि यूक्रेन रूस वार के दौरान यानि आज भी रूस से भारत और चीन अमेरिका द्वारा थोपे गए तमाम प्रतिबंधों के बावजूद तेल समेत कई कारोबारी रिश्ते जारी रखे हुए हैं इसलिए अब अमेरिका ने नाटो महासचिव को आगे करके भारत चीन समेत ऐसे देशों को आर्थिक प्रतिबंध की चेतावनी देने के लिए आगे कर दिया है।
इसी क्रम में बीते दिनों नाटो संगठन के महासचिव स्टोलटेनबर्ग ने उन देशों को अप्रत्यक्ष रूप से चेतावनी दी है जो रूस से तेल और गैस खरीद रहे हैं, खासकर यूक्रेन युद्ध के संदर्भ में। उनकी चेतावनी का मुख्य सार यह है कि रूस के ऊर्जा निर्यात से मिलने वाला पैसा यूक्रेन के खिलाफ उसके युद्ध प्रयासों को वित्त पोषित कर रहा है। उन्होंने बार-बार इस बात पर जोर दिया है कि रूस पर आर्थिक दबाव बनाए रखना महत्वपूर्ण है ताकि वह युद्ध समाप्त करने के लिए मजबूर हो।
वर्तमान में नाटो के महासचिव जेन्स स्टोलटेनबर्ग (Jens Stoltenberg) हैं, जो नॉर्वे के पूर्व प्रधानमंत्री हैं। उन्होंने अक्टूबर 2014 में यह पद संभाला था।
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रूस पर दबाव बढ़ाना: स्टोलटेनबर्ग का बयान रूस पर और अधिक आर्थिक दबाव डालने की नाटो की रणनीति का हिस्सा है। नाटो चाहता है कि रूस को मिलने वाले राजस्व में कमी आए ताकि वह युद्ध के लिए धन जुटा न सके।
एकता का संदेश: यह बयान नाटो सदस्य देशों और उनके सहयोगियों को यह संदेश भी देता है कि उन्हें रूस के खिलाफ एक एकजुट मोर्चा बनाना चाहिए, जिसमें ऊर्जा पर निर्भरता कम करना भी शामिल है।
भारत और चीन पर परोक्ष निशाना: भारत और चीन रूस से बड़े पैमाने पर तेल और गैस आयात करते रहे हैं, खासकर पश्चिमी प्रतिबंधों के बाद रियायती दरों पर। स्टोलटेनबर्ग की टिप्पणियां सीधे तौर पर इन देशों का नाम नहीं लेतीं, लेकिन उनका परोक्ष निशाना इन्हीं पर होता है। नाटो और पश्चिमी देश चाहते हैं कि भारत और चीन रूस के साथ अपने व्यापारिक संबंधों को कम करें।
यूक्रेन का समर्थन: यह चेतावनी यूक्रेन के प्रति नाटो के अटूट समर्थन को भी दर्शाती है। नाटो चाहता है कि यूक्रेन को हर संभव मदद मिले, जबकि रूस को अलग-थलग किया जाए।
क्या यह धमकी मूर्त रूप ले सकती है?
नाटो सीधे तौर पर भारत या चीन पर सैन्य कार्रवाई करने की धमकी नहीं दे रहा है क्योंकि ये नाटो के सदस्य नहीं हैं। हालांकि, इसके कई आर्थिक और कूटनीतिक मायने हो सकते हैं:
द्वितीयक प्रतिबंध (Secondary Sanctions): नाटो और उसके पश्चिमी सहयोगी सैद्धांतिक रूप से ऐसे देशों या संस्थाओं पर द्वितीयक प्रतिबंध लगाने पर विचार कर सकते हैं जो रूस के साथ महत्वपूर्ण व्यापारिक संबंध बनाए रखते हैं। हालांकि, भारत और चीन जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं पर ऐसे प्रतिबंध लगाना पश्चिमी देशों के लिए भी आर्थिक रूप से महंगा साबित हो सकता है।
कूटनीतिक दबाव: नाटो देश भारत और चीन पर रूस से तेल आयात कम करने के लिए कूटनीतिक दबाव बढ़ा सकते हैं।
व्यापारिक संबंधों पर असर: कुछ पश्चिमी कंपनियां उन देशों से दूरी बना सकती हैं जो रूस के साथ व्यापार जारी रखते हैं, जिससे इन देशों के व्यापारिक संबंधों पर अप्रत्यक्ष रूप से असर पड़ सकता है।
स्टोलटेनबर्ग की धमकी सीधे सैन्य कार्रवाई की बजाय आर्थिक और कूटनीतिक दबाव बढ़ाने पर केंद्रित है। भारत और चीन जैसे देश अपनी ऊर्जा सुरक्षा और राष्ट्रीय हितों के आधार पर निर्णय लेते हैं। रूस-यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक भू-राजनीति को जटिल बना दिया है, और नाटो लगातार उन देशों पर दबाव बना रहा है जो रूस के साथ संबंध बनाए हुए हैं। यह देखना बाकी है कि यह दबाव कितना प्रभावी साबित होता है और क्या इससे भारत और चीन जैसे देशों की नीतियों में कोई बड़ा बदलाव आता है।
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क्या तीसरे विश्व युद्ध की आहट है?
रूस-यूक्रेन युद्ध ने निश्चित रूप से विश्व को एक नाजुक मोड़ पर खड़ा कर दिया है। नाटो और रूस के बीच सीधा सैन्य टकराव तीसरे विश्व युद्ध का कारण बन सकता है। नाटो सीधे तौर पर यूक्रेन में अपने सैनिक नहीं भेज रहा है, लेकिन यूक्रेन को भारी सैन्य और वित्तीय सहायता दे रहा है, जिससे युद्ध लंबा खिंच रहा है। स्टोलटेनबर्ग जैसे नेताओं के बयान, हालांकि कूटनीतिक रूप से सावधानीपूर्वक दिए गए हैं, तनाव को बढ़ाते हैं।
फिलहाल, नाटो और रूस दोनों ही पक्ष सीधे टकराव से बचने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि, किसी भी अप्रत्याशित घटना या गलत अनुमान से स्थिति बिगड़ सकती है। वैश्विक स्तर पर, देशों के बीच आर्थिक और राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ रहा है। उम्मीद है कि कूटनीति और समझदारी से काम लिया जाएगा ताकि यह युद्ध और न फैले और विश्व एक बड़े संकट से बच सके।
नाटो (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) 32 सदस्य देशों का एक अंतरसरकारी सैन्य गठबंधन है। इसकी स्थापना 4 अप्रैल, 1949 को हुई थी, जिसका मुख्य उद्देश्य सोवियत संघ के विस्तारवाद को रोकना और सदस्य देशों की सामूहिक सुरक्षा सुनिश्चित करना था। नाटो का सिद्धांत "एक सबके लिए, सब एक के लिए" पर आधारित है, जिसका अर्थ है कि किसी भी सदस्य देश पर हमला पूरे गठबंधन पर हमला माना जाएगा और सभी मिलकर उसका जवाब देंगे।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद दुनिया दो ध्रुवों में बंट गई थी - एक तरफ अमेरिका और पश्चिमी देश, तो दूसरी तरफ सोवियत संघ और उसके सहयोगी। सोवियत संघ के लगातार बढ़ते प्रभाव और पश्चिमी यूरोप में साम्यवाद के प्रसार के डर ने पश्चिमी देशों को एक साथ आने पर मजबूर किया। इसी पृष्ठभूमि में 4 अप्रैल, 1949 को वाशिंगटन डीसी में उत्तरी अटलांटिक संधि पर हस्ताक्षर किए गए, जिसके साथ नाटो का जन्म हुआ। इसके संस्थापक सदस्य बेल्जियम, कनाडा, डेनमार्क, फ्रांस, आइसलैंड, इटली, लक्ज़मबर्ग, नीदरलैंड, नॉर्वे, पुर्तगाल, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका थे।
नाटो की स्थापना का मुख्य उद्देश्य सामूहिक सुरक्षा प्रदान करना था। इसका अनुच्छेद 5 सबसे महत्वपूर्ण है, जो यह कहता है कि किसी भी सदस्य देश पर सशस्त्र हमला सभी सदस्यों पर हमला माना जाएगा। यह अनुच्छेद नाटो को एक मजबूत और एकजुट सैन्य शक्ति बनाता है, जिसने कई बार अपनी ताकत का प्रदर्शन किया है।
नाटो के सदस्य देश और उनकी सैन्य शक्ति: कौन कितना ताकतवर?
वर्तमान में नाटो के 32 सदस्य देश हैं, जिनमें से 30 यूरोप और 2 उत्तरी अमेरिका से हैं। इन देशों की कुल सैन्य शक्ति और आबादी मिलकर नाटो को दुनिया का सबसे बड़ा और शक्तिशाली सैन्य गठबंधन बनाते हैं। यहां कुछ प्रमुख सदस्य देशों और उनकी अनुमानित सैन्य ताकत (2024 के आंकड़ों के अनुसार) का एक संक्षिप्त विवरण है:
संयुक्त राज्य अमेरिका: दुनिया की सबसे बड़ी और शक्तिशाली सेना। रक्षा बजट: $886 बिलियन (अनुमानित)। सक्रिय सैनिक: 1.3 मिलियन+।
यूनाइटेड किंगडम: यूरोप की प्रमुख सैन्य शक्तियों में से एक। रक्षा बजट: $75 बिलियन (अनुमानित)। सक्रिय सैनिक: 1.5 लाख+।
जर्मनी: यूरोप की बड़ी आर्थिक शक्ति, जिसकी सेना भी मजबूत हो रही है। रक्षा बजट: $68 बिलियन (अनुमानित)। सक्रिय सैनिक: 1.8 लाख+।
फ्रांस: परमाणु शक्ति से लैस, यूरोप की एक और प्रमुख सैन्य ताकत। रक्षा बजट: $61 बिलियन (अनुमानित)। सक्रिय सैनिक: 2 लाख+।
इटली: एक महत्वपूर्ण यूरोपीय शक्ति। रक्षा बजट: $36 बिलियन (अनुमानित)। सक्रिय सैनिक: 1.7 लाख+।
कनाडा: उत्तरी अमेरिका में अमेरिका का सहयोगी। रक्षा बजट: $26 बिलियन (अनुमानित)। सक्रिय सैनिक: 65 हज़ार+।
तुर्की: नाटो की दूसरी सबसे बड़ी सेना। रक्षा बजट: $15 बिलियन (अनुमानित)। सक्रिय सैनिक: 4.2 लाख+।
पोलैंड: रूस की सीमा से सटा एक महत्वपूर्ण सदस्य, अपनी सैन्य क्षमता बढ़ा रहा है। रक्षा बजट: $32 बिलियन (अनुमानित)। सक्रिय सैनिक: 1.2 लाख+।
फिनलैंड और स्वीडन: हाल ही में शामिल हुए सदस्य, जिनकी सेनाएं उच्च तकनीक से लैस हैं और रूस के लिए चुनौती पेश करती हैं।
नाटो सदस्य देशों की कुल सक्रिय सैन्यकर्मियों की संख्या 3.5 मिलियन से अधिक है और उनका संयुक्त रक्षा बजट सालाना 1.2 ट्रिलियन डॉलर से अधिक है, जो इसे दुनिया का सबसे बड़ा सैन्य गठबंधन बनाता है।
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नाटो की मुख्य नीतियां: किन सिद्धांतों पर टिका है ये संगठन?
नाटो की नीतियां इसके संस्थापक सिद्धांतों और बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य के अनुसार विकसित हुई हैं। इसकी 10 मुख्य नीतियां और सिद्धांत हैं:
सामूहिक रक्षा (Collective Defense): नाटो संधि का अनुच्छेद 5 इसका आधार है, जिसमें एक सदस्य पर हमले को सभी पर हमला माना जाता है।
संकट प्रबंधन (Crisis Management): नाटो अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बनाए रखने के लिए विभिन्न संकटों का प्रबंधन करता है, जिसमें सैन्य हस्तक्षेप भी शामिल है।
सहकारी सुरक्षा (Cooperative Security): नाटो गैर-नाटो देशों और संगठनों के साथ साझेदारी विकसित करता है ताकि साझा सुरक्षा चुनौतियों का सामना किया जा सके।
खुले द्वार की नीति (Open Door Policy): नाटो लोकतांत्रिक सिद्धांतों का पालन करने वाले और संगठन के लक्ष्यों में योगदान देने वाले किसी भी यूरोपीय देश को सदस्यता के लिए आमंत्रित करता है।
परमाणु निवारण (Nuclear Deterrence): नाटो अपने परमाणु शस्त्रागार को सामूहिक रक्षा के अंतिम साधन के रूप में रखता है, ताकि किसी भी संभावित हमलावर को रोका जा सके।
रक्षा खर्च (Defense Spending): सदस्य देशों को अपनी GDP का कम से कम 2% रक्षा पर खर्च करने का लक्ष्य दिया गया है, ताकि नाटो की क्षमताएं बनी रहें।
आधुनिकीकरण और अनुकूलन (Modernization and Adaptation): नाटो लगातार अपनी सैन्य क्षमताओं का आधुनिकीकरण करता है और नई चुनौतियों, जैसे साइबर युद्ध और हाइब्रिड खतरे के अनुकूल होता है।
सैन्य अभ्यास (Military Exercises): सदस्य देशों की सेनाएं नियमित रूप से संयुक्त अभ्यास करती हैं ताकि उनकी अंतःक्रियाशीलता और युद्ध तत्परता बनी रहे।
आतंकवाद विरोधी (Counter-Terrorism): नाटो आतंकवाद को एक गंभीर खतरे के रूप में देखता है और इसके खिलाफ अंतरराष्ट्रीय प्रयासों का समर्थन करता है।
लोकतांत्रिक मूल्य (Democratic Values): नाटो अपने सदस्य देशों में लोकतंत्र, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कानून के शासन को बढ़ावा देता है।
इन नीतियों के माध्यम से नाटो ने खुद को एक शक्तिशाली और बहुमुखी संगठन साबित किया है जो बदलती वैश्विक परिस्थितियों के अनुरूप ढलने में सक्षम है।
नाटो संगठन में एकजुटता: क्या सभी सदस्य देश एक खेमे में हैं?
नाटो की सबसे बड़ी ताकत उसकी एकजुटता है, लेकिन यह कहना गलत होगा कि सभी सदस्य देश हर मुद्दे पर 100% एकमत होते हैं। आंतरिक रूप से, नाटो में कई खेमे या मतभेद मौजूद हैं, खासकर तब जब विभिन्न देशों के राष्ट्रीय हित टकराते हैं।
पूर्वी और पश्चिमी खेमा: रूस से सटे पूर्वी यूरोपीय देश (जैसे पोलैंड, बाल्टिक राज्य) रूस के प्रति अधिक आक्रामक रुख रखते हैं और नाटो से मजबूत सैन्य उपस्थिति की मांग करते हैं। वहीं, पश्चिमी यूरोपीय देश (जैसे फ्रांस, जर्मनी) रूस के साथ अधिक कूटनीतिक समाधानों की वकालत करते रहे हैं, हालांकि यूक्रेन युद्ध के बाद इसमें बदलाव आया है।
रक्षा खर्च पर मतभेद: कुछ देश नाटो द्वारा निर्धारित 2% GDP रक्षा खर्च के लक्ष्य को पूरा नहीं करते, जिससे अन्य देशों में नाराजगी रहती है, खासकर अमेरिका में।
तुर्की की भूमिका: तुर्की, जो नाटो का एक महत्वपूर्ण सदस्य है, कई बार अपनी स्वतंत्र विदेश नीति अपनाता है, जो नाटो के अन्य सदस्यों से अलग हो सकती है (उदाहरण के लिए, रूस के साथ S-400 मिसाइल प्रणाली का सौदा)।
यूक्रेन युद्ध पर प्रतिक्रिया: हालांकि सभी नाटो सदस्य यूक्रेन का समर्थन करते हैं, लेकिन युद्ध में सीधे हस्तक्षेप करने या रूसी तेल-गैस पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने जैसे मुद्दों पर उनकी राय भिन्न रही है। कुछ देश तत्काल सैन्य सहायता और प्रतिबंधों पर जोर देते हैं, जबकि अन्य आर्थिक प्रभावों को लेकर अधिक सतर्क हैं।
इन मतभेदों के बावजूद, जब सामूहिक सुरक्षा या अनुच्छेद 5 के तहत किसी सदस्य देश पर खतरे की बात आती है, तो नाटो एकजुट होकर खड़ा होता है। आंतरिक बहसें और मतभेद स्वस्थ लोकतंत्र का हिस्सा हैं और नाटो अपनी निर्णय प्रक्रिया में आम सहमति का प्रयास करता है।
नाटो अध्यक्ष: कितनी शक्ति और कैसे होता है चुनाव?
नाटो का प्रमुख अधिकारी महासचिव (Secretary General) होता है, न कि अध्यक्ष। महासचिव नाटो का मुख्य प्रवक्ता और शीर्ष प्रशासक होता है। उन्हें सदस्य देशों के राजनयिकों द्वारा चुना जाता है और आमतौर पर चार साल के कार्यकाल के लिए नियुक्त किया जाता है, जिसे बढ़ाया भी जा सकता है।
महासचिव की शक्तियां
राजनीतिक नेतृत्व: महासचिव नाटो की राजनीतिक दिशा निर्धारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और सदस्य देशों के बीच आम सहमति बनाने का काम करता है।
प्रशासनिक प्रमुख: वे नाटो मुख्यालय के कर्मचारियों और सैन्य संरचना के प्रशासनिक प्रमुख होते हैं।
मुख्य प्रवक्ता: महासचिव नाटो की नीतियों और निर्णयों को सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत करते हैं।
संकट मध्यस्थ: वे सदस्य देशों के बीच किसी भी विवाद या मतभेद को सुलझाने में मध्यस्थ की भूमिका निभाते हैं।
परिषद की अध्यक्षता: महासचिव उत्तरी अटलांटिक परिषद (North Atlantic Council - NAC) की अध्यक्षता करते हैं, जो नाटो का मुख्य निर्णय लेने वाला निकाय है।
हालांकि महासचिव की भूमिका महत्वपूर्ण है, वे कोई तानाशाह नहीं होते. सभी प्रमुख निर्णय सदस्य देशों की आम सहमति से लिए जाते हैं। महासचिव का पद सदस्य देशों के बीच संतुलन और सहयोग का प्रतीक है।
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