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डॉ. राममनोहर लोहिया Photograph: (Internet Media)
शाहजहांपुर वाईबीएन संवाददाता
23 मार्च की तारीख देश के लिए मील का पत्थर है, क्योंकि इसी दिन सन 1931 को भगत सिंह ने फांसी की अपनी इच्छा पूरी की। उनके अनुसार बलिदान उनकी ज़िम्मेदारी थी। उन्होंने हँसते हँसते फांसी का फंदा चूमा। इसी तारीख के सन 1910 में कबरपुर, फ़ैज़ाबाद में देश के पहले एंटी कांग्रेसी नेता लोहिया का जन्म हुआ था। भगत सिंह और लोहिया में कई समानताए थी, पहली यह कि दोनों नास्तिक थे और दूसरी यह कि दोनों को देश के आम गरीब आदमी और किसानो की चिंता थी। केवल अंग्रेजों से आजादी पा लेना ही इन दोनों का ध्येय नहीं था। और एक और अहम बात कि दोनों पढ़ने और लिखने के बहुत शौकीन थे , लोहिया ने वाकायदा पीएचडी की उपाधि बर्लिन से प्राप्त की परंतु भगत सिंह ने तो जेल में ही किताबे पढ़ पढ़ कर और अनेकों अखबारो और पत्रिकाओं में लिखकर खुद को तर्कों से लैस किया।
लोहिया ने अपनाई गांधी की व्यावहारिकता
गांधी के जाने के बाद उनके कथित राजनैतिक उत्तराधिकारियों ने जिस तरह से गांधी को केवल नाम से अपनाया वहीं लोहिया ने गांधी को व्यवहारिकता से अपनाकर एक अलग रास्ता अपना लिया और कांग्रेस से अलग हो गए। डा0 भीमराव अम्बेडकर का मानना था कि जो डा0 लोहिया को नहीं जानता, वो खाक पॉलिटिक्स करेगा। एक ही तो नेता है जो जाति-पांति को तोड़कर समतामूलक समाज की स्थापना करना चाहता है। डॉ0 लोहिया केवल गांधी से ही प्रभावित थे क्यूंकि गांधी दर्शन के साथ कर्म को भी जोड़ते थे और गांधी के बाद उन्हे प्रभावित करने वाला कोई आधा आदमी था तो वो थे आज़ादी से पहले के नेहरू। गहराई मे जाकर देखा जाये तो गांधी के मरने के बाद आज़ाद भारत मे गांधी के बाद गांधी की अहिंसा और सिविल नाफरमानी जैसे बेजोड़ हथियारो का अगर किसी ने ढंग से इस्तेमाल किया तो वह लोहिया ही थे। बस इस सिद्धांतो को समाजवाद का नाम दिया गया लेकिन कहीं हद तक यह गांधी की विचारधारा का नवीन रूप ही था। गांधी समाजवाद शब्द को इस्तेमाल नहीं करते थे। लोहिया मार्क्स से कभी सहमत नहीं रहे । लोहिया का मनाना था कि यह बड़ी मशीनें ही एशिया और अफ्रीका के राष्ट्रिय उद्धोग को नष्ट करने का कारण है। पिछड़े और गरीब लोगों के लिए लोहिया मशीन को घातक मानते थे। वह कहते थे " मैं तो उस परंपरा की कड़ी हूँ जो प्रह्लाद से शुरू होकर सुकरात होते हुये गांधी तक पहुँच चुकी है। मैं चाहता हूँ कि मनुष्य हथियारों या ताकत का उपयोग किए बिना अन्याय एवं शोषण का विरोध करने की कला सीखें।"
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जब तक पार्टी के गलत कार्यो कि आलोचना नहीं करेंगे लोकतन्त्र मजबूत नहीं होगा
उनका मानना था कि जब तक पार्टी के लोग ही अपनी पार्टी के गलत कार्यो कि आलोचना नहीं करेंगे तब तक लोकतन्त्र मजबूत नहीं होगा। वे एकमात्र ऐसे राजनेता थे जिन्होंने अपनी पार्टी की सरकार से खुलेआम 1954 मे त्यागपत्र की मांग की, क्योंकि उस सरकार के शासन में आंदोलनकारियों पर गोली चलाई गई थी। ध्यान रहे स्वाधीन भारत में किसी भी राज्य में यह प्रजा सोसालिस्ट पार्टी की यह पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी। उन्होने कहा -" हिन्दुस्तान की राजनीति में तब सफाई और भलाई आएगी जब किसी पार्टी के खराब काम की निंदा उसी पार्टी के लोग करें। " …….और मै यह याद दिला दूं कि मुझे यह कहने का हक है कि हम ही हिंदुस्तान में एक राजनीतिक पार्टी हैं जिन्होंने अपनी सरकार की भी निंदा की थी और सिर्फ निंदा ही नहीं की बल्कि एक मायने में उसको इतना तंग किया कि उसे हट जाना पडा़।
"लोहिया कहते थे कि हर भारतीय चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान उसे समझना होगा कि गजनी गौरी बाबर हमलावर थे और उनके पुरखे लेकिन दिल्ली के एक रेस्टोरेंट में लोहिया नहीं मकबूल फिदा हुसैन से कहा था यह जो तुम बिरला टाटा के ड्राइंग रूम में लटकने वाली तस्वीरों से घिरे हो,उससे बाहर निकलो रामायण को पेंट करो, लेकिन यह बात समझने और समझाने की बजाय परिवारवादी राजनीतिक दलों ने इस देश में हमेशा मुसलमानों को वोट बैंक की तरह प्रयोग किया।देश के हिन्दू और मुसलमान दोनों को यह सोचना होगा कि जो दल पूरे देश को नही सोच सकते, केवल अपने परिवार की ही सोच रहे हों वो देश की अखण्डता के लिये कितने ज्यादा खतरनाक होंगे।"
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लोहिया की समाजवादी विचारधारा के केंद्र में 'समता ' का सिद्धान्त मुख्य है। आर्थिक समताए सामूहिक समता, समान अवसर और विकल्प की स्वतन्त्रता को लेकर ही समाजवाद के विभिन्न संप्रदायों का गठन बना है। लोहिया कहते थे कि मैं अणु बम का पुजारी नहीं हूँ मैं हथियारों को बुरा समझता हूँ। मैं हथियारो और अणु बम को बुरा समझता हूँ, मैं चाहता हूँ कि दुनिया ऐसी हो कि जिसमे यह सब खत्म हो जाए।
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महिलाओं को किसी भी क्रांति का अविभाज्य हिस्सा मानते थे
लोहिया अँग्रेजी भाषा के सख्त विरोधी थे वह कहते थे हिन्दी को बचाए बिना देश को बचा पाना नामुमकिन है। वेषभूषा भी हमारी अपनी ही होनी चाहिए। स्त्री के शरीर पर सुहाग की निशानी को वह बंधन मानते थे। जिनका वह सख्त विरोध भी किया करते थे। लोहिया महिलाओं को किसी भी क्रांति का अविभाज्य हिस्सा मानते थे। उनका मानना था कि जब तक समाज के पुर्नगठन की प्रक्रिया में महिलाएं हिस्सा नहीं लेंगी तब तक समाजवाद को मजबूत नहीं किया जा सकेगा। प्लेटो महिलाओं को राज्य के अधीन सेवाओं में जगह देने के हामी थे। लोहिया ने इससे एक कदम आगे बढकर इस बात पर जोर दिया कि महिलाओं की मुक्ति के लिए यह आवश्यक है कि उन्हें सभी क्षेत्रों और सभी अर्थों में पुरूषों के बराबर का दर्जा दिया जाए। यहा तक कि भगवान राम द्वारा माँ सीता की अग्नि परीक्षा को भी वह सवालो के घेरे मे ले लेते हैं। उनका कहना था भारत की स्त्री को सावित्री नहीं द्रोपदी बनना होगा जो केवल अपने पति की ही जंजीरों मे न जकड़ी रहे बल्कि शास्त्रार्थ भी कर सके। स्त्री कोई जड़ वस्तु नहीं है जो पढ़ लिखने के बाद भी अपने पति की गुलाम बनकर रहे। लोहिया का अधिक उदार व समतामूलक समाज का स्वप्न उन्हें एक आधुनिक चिंतक के रूप में स्थापित करता है। अन्य समाजसुधारकों के विपरीतए लोहिया केवल समस्याओं का वर्णन ही नहीं करते थे, वे उनके हल भी सुझाते थे। वे महिलाओं को समाज की मुख्यधारा में लाना चाहते थेए विशेषकर दलित महिलाओं कोए जिन्हें संस्थागत और व्यावहारिक दोनों ही स्तरों पर सामाजिक गतिविधियों में हिस्सा लेने का अवसर नहीं मिलता। लोहिया अंतरजातीय विवाहों के हामी थे। उनका कहना था कि इससे न केवल जाति व्यवस्था टूटेगी वरन् महिलाओं को स्वयं को अभिव्यक्त करने का मौका भी मिलेगा और वे जीवन के उनके लिए वर्जित क्षेत्रों में भी सक्रिय हो सकेंगी।आज भी अंतरजातीय विवाहों का कड़ा विरोध होता है। लोहिया को गए लंबा अरसा गुजर गया है परंतु हालात जस के तस हैं। आज भी समानता और स्वतंत्रता का अभाव महिलाओं की प्रगति में बाधक बना हुआ है। लोहिया कहा करते थे कि महिलाओं की मुक्ति तब तक नहीं हो सकती जब तक कि पितृसत्तामक सामाजिक व्यवस्था कायम रहेगी और महिलाओं के साथ भेदभाव होता रहेगा।
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'अपने समाजवादी साथियों से लोहिया हमेशा कहते हैं कि अपने बच्चों को सरकारी स्कूल में पढ़ाओ ,लेकिन यह बात उनके पदचिन्हों पर चलने वाले नेताओं को समझ में नहीं आई वह अपने बच्चों की शिक्षा,अपना इलाज सरकारी स्कूलों और अस्पतालों में कराने की बजाय महंगे, यहां तक कि विदेशी अस्पतालों में ढूंढने लगे ।'
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प्रेम और शांति का आव्हान तो रामायण में है ही
लोहिया भले ही जीवन भर कट्टर नास्तिक रहे हों लेकिन देखा जाए तो वो अंदर से सिद्धांतो को लेकर सख्त और व्यक्तित्व मे लचीले थे इसीलिए शायद हर साल रामलीला भी लगवाते थे। इसके अलावा भगवान कृष्णए राम और शिव को लेकर उनका गहरा ज्ञान और तीनों का भारतीय लोकतन्त्र पर प्रभाव को लेकर शोधपरक दृष्टिकोण बेहद रोचक था। लोहिया कहते थे कि आनंद, प्रेम और शांति का आव्हान तो रामायण में है ही, पर हिंदुस्तान की एकता जैसा लक्ष्य भी स्पष्ट है। सभी जानते हैं कि राम हिंदुस्तान के उत्तर - दक्षिण की एकता के देवता हैं । आधुनिक भारतीय भाषाओं का मूल स्रोत रामकथा है। कम्बन की तमिल रामायण, एकनाथ की मराठी रामायण , कीर्तिवास की बंगला रामायण और ऐसी ही दूसरी रामायण ने अपनी अपनी भाषा को जन्म और संस्कार दिया। इसके अलावा तुर्की, थाई, कंबोज और इन्डोनेशिया की रामायण भी ……….
1963 में जब लोहिया संसद पहुंचे तब तक देश में लगातार तीन आम चुनावों से कांग्रेस की ही सरकार थी। इस स्थिति में आवाज उठाने वाले लोहिया जी पहले व्यक्ति थे। उन्होंने सरकार के अनावश्यक व्यय पर एक पेम्फलेट लिखा "एक दिन के 25,000 रु". क्यूकि उस समय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु पर प्रति दिन 25,000रु. खर्च होते थे जबकि देश की 70% जनता महज़ तीन आना प्रति दिन पर गुजर कर रही थी ! नेहरु ने इसका यह कहकर विरोध किया की भारत के योजना आयोग के आंकड़ों के अनुसार एक दिन की प्रति व्यक्ति आय लगभग 15 आना है । लोहिया जी ने इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर विशेष चर्चा की मांग की ! यह बहस आज भी “तीन आना-पंद्रह आना” नाम से प्रसिद्ध है । और यह तो जगजाहिर है कि लोहिया ने अपने जीवन के अंतिम दौर मे अपना खुद का इलाज विदेश मे केवल इस ज़िद के चलते नहीं कराया क्यूंकि वह खुद इसके सख्त खिलाफ रहते थे और अपने इस सिद्धान्त की रक्षा अपनी जान देकर की।
असल मे समाजवाद केवल सत्ता की लड़ाई नहीं है न तो यह केवल गांधी की लड़ाई थी, न लोहिया, न ही मुलायम सिंह और न ही उनके कुनवे के अखिलेश की, समाजवाद की लड़ाई तो देश के हर उस इन्सान की है जो सामाजिक और आर्थिक रूप से बहुत कुचला हुआ है और उन महिलाओं की भी जो महज़ पुरुष के बनाए समाज मे खुद के अस्तित्व के लिए घुट रही है। लोहिया कहते थे कि अगर सड़कें सुनसान हो गईं तो संसद आवारा हो जाएगी। और ज़िंदा क़ौमें पाँच साल इंतज़ार नहीं करती।
लेखक: लेखक जीएफ कॉलेज में बायोटेक्नोलॉजी के विभागाध्यक्ष हैं
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