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नजरिया। अश्लीलता सामाजिक परिवेश को विकृत करती है- प्रो. कनक रानी

आजकल सोशल मीडिया पर अश्लील रील्स/हास्य व्यंग्य में अपशब्दों का प्रयोग/चुटकुलों में द्वयर्थक पुट/गीतो में अपवचनों का चलन समाज के मानकों को आहत कर रहा है। इस संवेदनशील मुद्दे पर अपने विचार प्रस्तुत कर रही हैं वरिष्ठ लेखिका प्रो.कनक रानी

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Dr. Swapanil Yadav
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Addiction Photograph: (INTERNET MEDIA)

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 शाहजहांपुर, वाईबीएन संवाददाता 

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 सामाजिक स्वास्थ्य को लक्षित करते हुए अश्लीलता से सतर्कता आवश्यक है। क्योंकि इससे अपसंस्कृति के अंकुरण की संभावनाओ से इंकार नहीं किया जा सकता। अनैतिकता/ अभद्रता से जुड़े बिंदुओं से सामाजिक वातावरण में खिन्नता का व्यापित होना आश्चर्य की बात नहीं।

          आजकल सोशल मीडिया पर अश्लील रील्स/ हास्य व्यंग्य में अपशब्दों का प्रयोग/चुटकुलों में द्वयर्थक पुट/गीतो में अपवचनों का चलन समाज के मानकों को आहत कर रहा है। ध्यातव्य है कि सोशल मीडिया/टीवी सीरियल्स में कामुकता अथवा फूहड़ता के उन्मुक्त प्रदर्शन को कदाचित् ही कला की श्रेणी में रखा जा सकता है।

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          ज्ञातव्य है कि अपसंस्कृति को बढ़ावा देने बाले भाषिक-उल्लंघन, मर्यादा-अतिक्रमण जैसे प्रकरण न तो लोकप्रियता के साधन हैं और न ही वैश्विक स्तर पर अनुकरणीय संस्कृति के संवाहक। इस संदर्भ में संस्कृत साहित्य निर्देशित करता है कि व्यक्ति मोती-माणिक्य-वस्त्रों से सुशोभित नहीं होता। शील ही ऐसा तत्त्व है जो उसे अलंकृत करता है- न मुक्ताभि र्न माणिक्यैः न वस्त्रै र्न परिच्छदैः। अलंक्रियेत् शीलेन केवलेन हि मानवः।।

          जहाँ तक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात है, यह नागरिकों का अधिकार है किंतु इसका दुरुपयोग कदाचित् समाजिक व्यवस्था को असंस्पृष्ट नहीं रहने देता। स्वार्थपूति की लालसा से, टीआरपी बढ़ाने के लोलुपत्व से अथवा सस्ती लोकप्रियता के प्रति लोभवृत्ति से निचले दर्जे की प्रस्तुति आज की विडम्बना है। चूंकि अश्लीलता एक सुसंगत सामाजिक वातावरण बनाने में व्यवधान डालती है, इसलिए सामाजिक नियमों के विरुद्ध अमर्यादित संदर्भ के प्रस्तुतीकरण से जन सामान्य में रोष का व्यापना स्वाभाविक ही है। ऐसे में, अभिव्यक्ति की कथित स्वतंत्रता से/सांस्कृतिक मूल्यों पर प्रहार करने बाले तत्वों से समाज पर पड़ने बाले हानिकर प्रभावों पर गहनता से विचार करना जरूरी बन जाता है।

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          आज, मोबाइल संचार के समक्ष तथ्यों पर आधारित जानकारी देना एक बड़ा दायित्व है। यह गंभीर जिम्मेदारी है। और चुनौती भी। सोशल मीडिया नेटवर्किंग साधारण नहीं। इसमें जनसामान्य को परिक्षेत्र की जटिलताओं से रूबरू करने का विलक्षण सामथ्र्य है। किंतु यहां आधुनिकता/प्रगतिशीलता के नाम पर अशालीनता का दुष्प्रयोग भी एक कड़वी सच्चाई है। इसके अवांछित असर के फलस्वरूप समाज में विद्रूपता की आशंका की अनदेखी नहीं की जा सकती। इसके अतिरिक्त तथ्यात्मक जानकारी का अभाव वातावरण में भ्रामक स्थिति का आधार बन सकता है।

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           ऑनलाइन सोशल नेटवर्क सूचनाओं को आम जनता तक पहुंचाने का माध्यम बना है। यहां आम नागरिक पत्रकार की भूमिका में है और व्यष्टि स्तर पर सामाजिक चेतना में कार्य कर रहा है। जन जागृति के संचार में इसकी भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।

          जहां तक सामाजिक मानसिकता का प्रश्न है, संचार माध्यम का कोई भी प्लेटफाॅर्म हो, जन सामान्य रुग्ण अथवा विलासी नजरिए के प्रदर्शन की अपेक्षा नहीं करता। नैतिकता की उपेक्षा समाज की सकारात्मक संकल्पना को धुँधला बनाती है, रचनात्मकता को ओझल करती है। अभिव्यक्ति में सकारात्मक तथा सुधारात्मक दृष्टिकोण को तरजीह देना मानवीय तर्क है। यह लोकहित का प्रयोजन है। संस्कृति संरक्षण का आदर्श है। मर्यादित बर्ताव का ध्येय है।  

          सम्प्रति, विरासत से प्राप्त संस्कृति को परिरक्षित करने की दिशा में सोशल मीडिया की बड़ी जिम्मेदारी है। सोशल मीडिया पर भ्रम उत्पन्न करने बाली सूचनाओं के सापेक्ष तथ्यपरक तथा निष्पक्ष दृष्टिकोण की अपेक्षा की जाती है। वस्तुतः अशिष्टता की मुखरता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बीच सीमा-रेखा की परख जरूरी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर स्वच्छंदता के आवरण को कदाचित् ही उचित ठहराया जा सकता है। स्वतंत्र अभिव्यक्ति को सामाजिक विद्रूपता का आधार नहीं बनना चाहिए। स्मरणीय है कि नैतिक नियमों को निर्बाध रखने बाले तथ्यों का प्रसारण सामाजिक व्यवस्था में सहायता करता है। निस्संदेह, अशिष्टता को नियंत्रित करना सांस्कृतिक प्रदूषण से बचाव में कारगर हो सकता है।

          सामाजिक संस्थिति को बचाने के लिए अभद्रता को नजरअंदाज करना समीचीन नहीं। इस तथ्य के मद्देनजर सोशल मीडिया के फेसबुक, यूट्यूब, इंस्टाग्राम, ट्विटर और व्हाट्सएप जैसे प्लेटफाॅर्म पर अश्लीलता पर नियंत्रणकारी प्रक्रिया अपनाने की कवायद जारी है। यह सही है कि सोशल मीडिया पर निर्लज्जता से संदर्भित प्रतिबंध संस्कृति के बचाव का हिस्सा है। किंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अक्षुण्णता को एक गंभीर मुद्दा मानना गलत नहीं।

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          यह संदर्भ गहन विचार का आग्रह करता है क्योंकि मीडिया एक ऐसा माध्यम है जिसमें समाज/राष्ट्र को आइना दिखाने की शक्ति होती है। सही और गलत को ज्ञापित करने की निपुणता होती है। क्या बेहतर है और क्या नहीं, यह स्पष्ट करने की सुघड़ता होती है। सामाजिकों को समुचित दृष्टिकोण देने की पात्रता होती है। अन्ततः संस्कृति को विकृति से बचाने के लिए/भावी पीढ़ी में नैतिकता को संजोने के लिए संचार प्रणाली का अश्लीलता के दोष से पृथक्करण आज की महती आवश्यकता है।

लेखक 

लेखिका आर्य महिला डिग्री कॉलेज की पूर्व प्राचार्य हैं 

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प्रो. कनक रानी Photograph: (वाईवीएन संवाददाता )

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