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नई दिल्ली,वाईबीएन डेस्क:सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को एक अहम फैसले में तेलंगाना विधानसभा अध्यक्ष को निर्देश दिया है कि वे कांग्रेस में शामिल हुए बीआरएस (भारत राष्ट्र समिति) के 10 विधायकों के खिलाफ दायर अयोग्यता याचिकाओं पर तीन महीने के भीतर निर्णय लें। मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि दलबदल से जुड़े मामलों में कार्यवाही को अनावश्यक रूप से लंबा खींचना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है और इससे जनता का भरोसा संस्थाओं से उठता है। कोर्ट ने साफ किया कि अगर कोई विधायक जानबूझकर कार्यवाही में देरी करता है, तो विधानसभा अध्यक्ष उनके खिलाफ *प्रतिकूल निष्कर्ष* निकाल सकते हैं।
विधानसभा अध्यक्ष को नहीं मिलेगा संवैधानिक संरक्षण
पीठ ने कहा कि संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत विधानसभा अध्यक्ष एक *न्यायिक प्राधिकारी* के रूप में कार्य करते हैं और उन्हें अनुच्छेद 122 और 212 के तहत किसी तरह की संवैधानिक छूट नहीं मिलती। कोर्ट ने 22 नवंबर, 2024 को तेलंगाना हाईकोर्ट की खंडपीठ द्वारा दिया गया फैसला रद्द कर दिया, जिसमें अयोग्यता याचिका पर तत्काल सुनवाई से संबंधित एकल न्यायाधीश के आदेश को पलट दिया गया था।
संसद से कानून की समीक्षा की अपील
सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में संसद से यह भी अपील की कि वह **दलबदल विरोधी कानून की वर्तमान व्यवस्था की समीक्षा** करे। कोर्ट ने कहा कि विधानसभा अध्यक्षों द्वारा अयोग्यता याचिकाओं पर निर्णय में हो रही देरी से कानून की प्रभावशीलता पर सवाल उठते हैं और यह लोकतंत्र के लिए खतरा है।
मामला क्या है?
दरअसल, बीआरएस के 10 विधायक कांग्रेस में शामिल हो गए थे, जिसके बाद उनके खिलाफ अयोग्यता याचिकाएं दायर की गईं। आरोप है कि विधानसभा अध्यक्ष की ओर से इन याचिकाओं पर लंबे समय तक कोई फैसला नहीं लिया गया। यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां याचिकाकर्ताओं ने आग्रह किया कि विधानसभा अध्यक्ष को इन मामलों में जल्द फैसला करने का निर्देश दिया जाए।
सात विधायकों की अयोग्यता की मांग की गई थी
यह फैसला सुप्रीम कोर्ट में दाखिल उन दो याचिकाओं के संदर्भ में आया, जिनमें से एक में तीन और दूसरी में सात विधायकों की अयोग्यता की मांग की गई थी। पहले तेलंगाना हाईकोर्ट की खंडपीठ ने विधानसभा सचिव को 4 सप्ताह में सुनवाई का कार्यक्रम तय करने का आदेश दिया था, जिसे अब सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि अयोग्यता से जुड़े मामलों में 90 दिन की समयसीमा के भीतर फैसला किया जाना अनिवार्य होगा, ताकि लोकतंत्र की प्रक्रिया पारदर्शी और जवाबदेह बनी रहे। supreme court