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Monday Special : अब देश में समान नागरिक संहिता की बारी, हाईकोर्ट जज की टिप्पणी ने दी हवा

कर्नाटक हाईकोर्ट की एकल पीठ के जस्टिस हंचाटे संजीव कुमार ने देश में UCC का तार छेड़कर एक बार फिर से इस मामले को हवा दे दी है। न्यायमूर्ति ने यूसीसी पर टिप्पणी करते हुए संसद और राज्य विधानसभाओं से इसे जल्द कानून का रूप देने की अपील की है।

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Mukesh Pandit
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नई दिल्ली, वाईबीएन नेटवर्क।

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कर्नाटक हाईकोर्ट की एकल पीठ के जस्टिस हंचाटे संजीव कुमार ने देश में Uniform Civil Code का तार छेड़कर एक बार फिर से इस मामले को हवा दे दी है। एक संपत्ति विवाद से जुड़े मामले की सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति ने यूसीसी पर टिप्पणी करते हुए संसद और राज्य विधानसभाओं से इसे जल्द कानून का रूप देने की अपील की है। इस फैसले का कानूनी पहलू तो संपत्ति विवाद से जुड़ा था, लेकिन न्यायमूर्ति कुमार की टिप्पणी ने इस बहस को छेड़ दिया है कि क्या अब वाकई देश में UCC लागू करने का वक्त आ गया है? हालांकि भाजपा नीत उत्तराखंड और गोवा ने यह पहले ही लागू कर दिया है और देश में समान नागरिक संहिता को चर्चाओं में ला दिया है। आइए इस विशेष रिपोर्ट के माध्यम से करते हैं यूसीसी की पूरी पड़ताल।

संविधान के अनुच्छेद 44 में उल्लिखित है

UCC समान नागरिक संहिता देश का एक ऐसा प्रस्तावित कानूनी ढांचा है, जिसका उद्देश्य सभी नागरिकों के लिए विवाह, तलाक, भरण-पोषण, विरासत, और गोद लेने जैसे व्यक्तिगत मामलों में एक समान कानून लागू करना है, चाहे उनका धर्म, जाति, लिंग कुछ भी हो। यह संविधान के अनुच्छेद 44 में उल्लिखित है, जो राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों  का हिस्सा है। अनुच्छेद 44 कहता है, "राज्य पूरे भारत के नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।" हालांकि, यह एक नीति-निर्देशक सिद्धांत होने के कारण कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है, और इसे लागू करना सरकारों की इच्छाशक्ति और नीतिगत प्राथमिकताओं पर निर्भर करता है। वर्तमान में, विभिन्न धार्मिक समुदायों के लिए अलग-अलग व्यक्तिगत कानून (Personal Laws) लागू हैं, जो उनके धार्मिक ग्रंथों और परंपराओं पर आधारित हैं। इस कारण समान नागरिक संहिता का मुद्दा लंबे समय से बहस और विवाद का विषय रहा है। 

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Uniform Civil Code
सांकेतिक तस्वीर।

समान नागरिक संहिता की वैधानिक स्थिति

समान नागरिक संहिता की वैधानिक स्थिति को समझने के लिए संवैधानिक प्रावधानों, ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, और न्यायिक व्याख्याओं पर नजर डालते हैं। संविधान के भाग IV में शामिल राज्य नीति के निदेशक सिद्धांत देश के शासन के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत हैं, लेकिन ये न्यायिक रूप से लागू करने योग्य नहीं हैं। अनुच्छेद 44 का उद्देश्य राष्ट्रीय एकता और लैंगिक समानता को बढ़ावा देना है, लेकिन इसे लागू करने की जिम्मेदारी विधायिका को सौंपी गई है। संविधान सभा में इस मुद्दे पर गहन बहस हुई थी। संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. बीआर आंबेडकर जैसे नेता इसके पक्ष में थे, वहीं कुछ मुस्लिम प्रतिनिधियों ने इसे धार्मिक स्वतंत्रता (अनुच्छेद 25) के अधिकार के खिलाफ माना। इस असहमति के कारण इसे मूल अधिकारों के बजाय निदेशक सिद्धांतों में शामिल किया गया।

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प्राचीन स्थिति क्या है

औपनिवेशिक काल में ब्रिटिश सरकार ने व्यक्तिगत कानूनों में हस्तक्षेप से परहेज किया था। हिंदू और मुस्लिम समुदायों के लिए अलग-अलग कानून बनाए गए थे, जो स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहे। स्वतंत्रता के बाद, हिंदू व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध करने के लिए 1950 के दशक में हिंदू विवाह अधिनियम (1955), हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (1956) जैसे कानून बनाए गए, लेकिन मुस्लिम, ईसाई, और पारसी समुदायों के व्यक्तिगत कानूनों को यथावत रखा गया। इस असमानता ने समान नागरिक संहिता की मांग को जन्म दिया।

UCC BILL

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सुप्रीम कोर्ट कई बार आवश्यकता पर दे चुका है जोर

सुप्रीम कोर्ट ने कई मौकों पर समान नागरिक संहिता की आवश्यकता पर जोर दिया है। वर्ष 1985 के चर्चित शाह बानो केस में कोर्ट ने कहा कि एक समान नागरिक संहिता सामाजिक एकता और लैंगिक न्याय को बढ़ावा देगी। इसी तरह, सरला मुद्गल केस (1995) में बहुविवाह और धर्म परिवर्तन के दुरुपयोग को रोकने के लिए UCC की वकालत की गई। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिम महिला को गुजारा भत्ता देने का फैसला सुनाया, लेकिन इसके बाद तत्कालीन सरकार ने मुस्लिम समुदाय के दबाव में कानून बनाकर इस फैसले को पलट दिया। इस घटना ने UCC को लागू करने की दिशा में विश्वास को कम किया और इसे सांप्रदायिक मुद्दे के रूप में स्थापित कर दिया।  हालांकि, इन टिप्पणियों के बावजूद, इसे लागू करने का अधिकार संसद और राज्य विधानसभाओं के पास है, क्योंकि व्यक्तिगत कानून समवर्ती सूची का विषय हैं। 

भाजपा के संकल्प पत्र में शामिल है यूसीसी लागू करना

वर्तमान में, केंद्र सरकार ने समान नागरिक संहिता को लागू करने के लिए कोई एकीकृत कानून पारित नहीं किया है। यह भाजपा (BJP) के घोषणापत्र का हिस्सा रहा है, और समय-समय पर इसकी चर्चा होती रही है। वर्ष 2016 में विधि आयोग ने कहा था कि UCC अभी "न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय," लेकिन वर्ष 2023 में 22वें विधि आयोग ने इस पर जनता और धार्मिक संगठनों से राय मांगी थी। संगठनों की राय सरकार के पास हैं, लेकिन यह पिटारे में बंद हैं।

कितने राज्यों में लागू है?

समान नागरिक संहिता को राष्ट्रीय स्तर पर लागू नहीं किया गया है। हालांकि, कुछ राज्यों में इसे पूर्ण या आंशिक रूप से लागू करने के प्रयास हुए हैं। 

1. गोवा

गोवा भारत का एकमात्र राज्य है, जहां समान नागरिक संहिता प्रभावी रूप से लागू है। यह व्यवस्था पुर्तगाली शासन से विरासत में मिली है, जब 1867 में पुर्तगाली सिविल कोड लागू किया गया था। स्वतंत्रता के बाद, जब गोवा 1961 में भारत का हिस्सा बना, तो यह कोड बरकरार रखा गया। गोवा सिविल कोड सभी धर्मों के नागरिकों पर समान रूप से लागू होता है और विवाह, तलाक, उत्तराधिकार, और संपत्ति जैसे मामलों में एकरूपता प्रदान करता है। उदाहरण के लिए, गोवा में बहुविवाह प्रतिबंधित है, भले ही व्यक्ति किसी भी धर्म का हो। हालांकि, कुछ अपवाद हैं, जैसे कैथोलिक ईसाइयों के लिए चर्च में विवाह के नियम। गोवा का मॉडल अक्सर UCC के समर्थकों द्वारा उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

2. उत्तराखंड

उत्तराखंड समान नागरिक संहिता को औपचारिक रूप से लागू करने वाला पहला भारतीय राज्य बन  है। वर्ष 2022 के विधानसभा चुनाव में BJP ने इसे अपने घोषणापत्र में शामिल किया था। सरकार बनने के बाद, मई 2022 में एक विशेषज्ञ समिति गठित की गई, जिसने फरवरी 2024 में अपना मसौदा प्रस्तुत किया। 6 फरवरी 2024 को उत्तराखंड विधानसभा में UCC विधेयक पेश किया गया और 7 फरवरी को इसे ध्वनिमत से पारित कर दिया गया। यह कानून 2025 की शुरुआत में लागू हो गया। इस कानून के तहत बहुविवाह, बाल विवाह, और कुछ पारंपरिक प्रथाओं पर रोक लगाई गई है, हालांकि अनुसूचित जनजातियों को इससे छूट दी गई है। उत्तराखंड का यह कदम अन्य राज्यों के लिए एक मिसाल बन सकता है।

3. अन्य राज्यों में क्या है स्थिति

उत्तर प्रदेश: राज्य सरकार ने समय-समय पर UCC को लागू करने की इच्छा जताई है, लेकिन अभी तक कोई ठोस कानून पारित नहीं हुआ है। वर्ष 2022 में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इसकी वकालत की थी, और इसे लागू करने की संभावनाओं पर चर्चा चल रही है।

गुजरात और मध्य प्रदेश: इन BJP शासित राज्यों ने भी UCC को लागू करने की बात कही है, लेकिन अभी तक यह प्रस्ताव के स्तर पर ही है। गुजरात में 2022 में एक समिति गठित की गई थी, लेकिन कोई विधेयक पेश नहीं हुआ।

पूर्वोत्तर राज्य: नगालैंड, मिजोरम, और मेघालय जैसे राज्यों में UCC का विरोध होता रहा है, क्योंकि वहां की जनजातीय परंपराएं और व्यक्तिगत कानून संविधान के अनुच्छेद 371 के तहत संरक्षित हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर स्थिति

राष्ट्रीय स्तर पर UCC लागू करने के लिए फिलहाल संसद में अभी तक कोई विधेयक नहीं लाया गया है। अगस्त 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में इसे "समय की मांग" बताया था। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी कहा था कि BJP अपने कार्यकाल में इसे लागू करेगी। हालांकि, भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता, वोटबैंक की राजनीति, और संवैधानिक जटिलताएं इसे लागू करने में बड़ी चुनौतियां हैं।

आइए जानते हैं क्या-क्या अड़चने आ सकती हैं

भारत में समान नागरिक संहिता  को लागू न कर पाने के पीछे कई राजनीतिक कारण जिम्मेदार हैं, जो देश की जटिल सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक संरचना से जुड़े हैं। 

धार्मिक विविधता और संवेदनशीलता

जैसा विदित है कि भारत बहुधार्मिक देश है, जहां हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, पारसी जैसे विभिन्न समुदाय अपने-अपने व्यक्तिगत कानूनों (Personal Laws) के तहत विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि मामलों को संचालित करते हैं। इन समुदायों के बीच UCC को लेकर सहमति बनाना मुश्किल रहा है, क्योंकि कई समुदाय इसे अपनी धार्मिक पहचान और स्वायत्तता पर हमला मानते हैं। खासकर अल्पसंख्यक समुदायों में यह आशंका रहती है कि UCC बहुसंख्यक हिंदू कानूनों पर आधारित हो सकता है।

वोट बैंक की राजनीति

राजनीतिक दल अक्सर धार्मिक और सांप्रदायिक आधार पर वोट बैंक बनाए रखने के लिए UCC जैसे संवेदनशील मुद्दों से बचते हैं। अल्पसंख्यक समुदायों, विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय के एक वर्ग ने UCC का विरोध किया है, और कई राजनीतिक दल इस विरोध को नजरअंदाज नहीं करना चाहते, क्योंकि इससे उनका वोट आधार प्रभावित हो सकता है।

संघीय ढांचे की जटिलता

भारत का संविधान व्यक्तिगत कानूनों को समवर्ती सूची (Concurrent List) में रखता है, जिसका मतलब है कि केंद्र और राज्य दोनों इस पर कानून बना सकते हैं। हालांकि, कई राज्य सरकारें अपनी क्षेत्रीय और सांस्कृतिक पहचान के आधार पर UCC का विरोध करती हैं। उदाहरण के लिए, गोवा को छोड़कर, जहां पहले से ही एक समान नागरिक संहिता लागू है, अन्य राज्यों में इसे लागू करने की राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव रहा है।

संविधान सभा में असहमति

संविधान सभा में भी UCC को लेकर गहरे मतभेद थे। कई मुस्लिम सदस्यों ने इसे अल्पसंख्यकों की धार्मिक स्वतंत्रता के खिलाफ माना, जबकि प्रगतिशील नेताओं जैसे डॉ. बी.आर. आंबेडकर ने इसका समर्थन किया। इस असहमति के कारण इसे नीति निदेशक तत्व (Directive Principles) में रखा गया, जो बाध्यकारी नहीं है, बल्कि केवल मार्गदर्शक है। इस समझौते ने इसे लागू करने की राजनीतिक जिम्मेदारी को कमजोर कर दिया।

सामाजिक सुधार बनाम राजनीतिक जोखिम

UCC को लागू करने के लिए व्यापक सामाजिक सुधार और जागरूकता की जरूरत है, लेकिन राजनीतिक दलों को डर रहता है कि इससे समाज में तनाव बढ़ेगा और उनकी लोकप्रियता प्रभावित होगी। इसलिए वे इसे लागू करने के बजाय इसे एक वैचारिक बहस तक सीमित रखते हैं।

कानूनी और व्यावहारिक चुनौतियां

UCC का मसौदा तैयार करना और इसे सभी समुदायों के लिए स्वीकार्य बनाना एक जटिल प्रक्रिया है। विभिन्न दलों के बीच इसकी परिभाषा और स्वरूप पर सहमति का अभाव भी इसे लागू करने में बाधा बनता है। UCC को लागू न कर पाने का एक कारण राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है, जो धार्मिक संवेदनशीलता, वोट बैंक की राजनीति और सामाजिक एकता बनाए रखने की चुनौती से प्रभावित होती है। हालांकि, समय-समय पर कुछ राजनीतिक दल (जैसे भारतीय जनता पार्टी) इसे अपने घोषणापत्र में शामिल करते हैं, लेकिन व्यावहारिक रूप से इसे लागू करने की दिशा में ठोस प्रगति सीमित रही है।

क्या कहा जस्टिस हंचाटे संजीव कुमार

दरअसल,   टिप्पणी न्यायमूर्ति हंचाटे संजीव कुमार की एकल पीठ ने एक संपत्ति विवाद से जुड़े मामले की सुनवाई के दौरान कहा कि यूसीसी लागू होने से  'न्याय की गारंटी मिल सकेगी'। संविधान के अनुच्छेद 44 में समान नागरिक संहिता का उल्लेख किया गया है और इसे लागू करने से ही नागरिकों को समानता और न्याय की गारंटी मिल सकेगी। उन्होंने खासतौर पर महिलाओं की असमान स्थिति को रेखांकित किया जो धर्म आधारित निजी कानूनों के कारण आज भी समान अधिकारों से वंचित हैं। उदाहरण स्वरूप जहां हिंदू उत्तराधिकार कानून में बेटियों को बराबर अधिकार मिलते हैं। वहीं मुस्लिम कानून में बहनों को अक्सर भाइयों से कम हिस्सा मिलता है।  मामला एक मुस्लिम महिला शाहनाज बेगम की मृत्यु के बाद उसकी संपत्ति के बंटवारे से जुड़ा था जिसमें महिला के पति और उसके भाई बहन पक्षकार थे. कोर्ट ने पाया कि विभिन्न धार्मिक कानूनों के तहत महिलाओं के अधिकारों में भारी अंतर है जिससे समानता के संवैधानिक सिद्धांत पर चोट पहुंचती है।

Directive Principles of State Policy, DPSP,Uniform Civil Code, Personal Laws

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