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family court का मकसद बच्चों की मदद करना, लेकिन वे उनके मन की बातें नहीं सुनतीं

family court भले ही तय करते हैं कि किसी बच्चे के 'सर्वोत्तम हित' में कौन-सी चीजें हैं, लेकिन ज्यादातर बच्चों का मानना है कि इन अदालतों की कारवाई में उनके मन की बात नहीं सुनी जाती।

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Mukesh Pandit
िोसगतब

सांकेतिक तस्वीर

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Family Court:जब माता-पिता के बीच अलगाव की लड़ाई परिवार न्यायालय (family court)में पहुंचती है, तो अक्सर पारिवारिक हिंसा, बाल उत्पीड़न, शराब एवं नशीले पदार्थों का सेवन और मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं जैसे गंभीर खतरे उभरकर सामने आते हैं। परिवार न्यायालय भले ही तय करते हैं कि किसी बच्चे के 'सर्वोत्तम हित' में कौन-सी चीजें हैं, लेकिन ज्यादातर बच्चों का मानना है कि इन अदालतों की कारवाई में उनके मन की बात नहीं सुनी जाती। 

फैमिली कोर्ट में बच्चे कैसा अनुभव करते हैं

सदर्न क्रॉस यूनिवर्सिटी की शोधकर्ता एलिजा ह्यू, मेघन वोस्ज और हेलेन वाल्श ने अपने नये शोधपत्र में यह पता लगाने की कोशिश की है कि बच्चे परिवार न्यायालयों में अपने अनुभवों के बारे में क्या महसूस करते हैं? यह शोधपत्र 'चाइल्ड एंड फैमिली सोशल वर्क' पत्रिका में प्रकाशित किया गया है। शोध के लिए क्वींसलैंड, न्यू साउथ वेल्स, ऑस्ट्रेलियन कैपिटल टेरिटरी और विक्टोरिया के 10 से 19 साल की उम्र के 41 प्रतिभागियों से कुछ सवाल पूछे। 

चार मुख्य मुद्दे उभरकर सामने आए। 

1.मन की बात बयां करने नहीं दिया जाता, जिन बच्चों से बात की, उनमें से कुछ ने कहा कि पारिवारिक कानून के पेशेवरों ने उनके मन की बात सुनी। हालांकि, कई बच्चों ने शिकायत की कि कानून पेशेवरों ने उन्हें अपने मन की बात बयां करने का मौका नहीं दिया। 14 साल की पेनी (बदला हुआ नाम, पहचान गोपनीय रखने के लिए लेख में सभी बच्चों के नाम बदल दिए गए हैं) ने कहा, “(ऐसा लग रहा था) मानो कोई वहां खड़ा था और मेरे मुंह में कुछ डाल रहा था, ताकि मैं बोल न सकूं। मुझे अदालत कक्ष में जाने और वह कहने का मौका दिया जाना चाहिए था, जो मैं कहना चाहती थी।' 15 वर्षीय चेल्सी ने कहा, “मुझे लगा कि कोई मुझे दबा रहा है। मैं सिर्फ वही कह सकती थी, जो मुझसे बोलने के लिए कहा गया था। मेरे पास चुप रहने और सबकुछ स्वीकार करने के अलावा कोई और विकल्प नहीं था, जबकि मैं ऐसा नहीं चाहती थी।' 

कोर्ट का फैसला बच्चों की इच्छा के खिलाफ

परिवार न्यायालय के आदेश के मुताबिक, 17 वर्षीय पेज और उसकी बहन को अपने पिता के साथ समय बिताना होगा, जो उनकी इच्छा के खिलाफ था। पेज इसके लिए खुद को कसूरवार ठहराता है। वह कहता है, "मुझे ताउम्र इसका अफसोस रहेगा, क्योंकि मुझे लगता है कि अगर मैंने कुछ अलग तरीके से कहा होता, या अपनी बात पर अधिक जोर दिया होता, तो शायद वे समझ गए होते कि मैं वास्तव में क्या कहना चाहता हूं। इससे हमें इतने दर्दनाक अनुभवों का सामना नहीं करना पड़ता, जो हमने उनसे (पिता) मिलने के लिए मजबूर होने के कारण झेले।' 

बच्चे चाहते हैं उनकी बातें सुनी जाएं

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2. शोध में शामिल बच्चे चाहते थे कि परिवार अदालतें सीधे उनकी बात सुनें। 14 साल के ट्रॉय ने कहा, “हमसे बात कीजिए, हमारे बारे में नहीं।” बच्चों ने शोधकर्ताओं ने यह भी कहा कि वे चाहते हैं कि पारिवारिक कानून के पेशेवर उनकी बातों को अदालत तक सही ढंग से पहुंचाएं। 10 साल की लीजा के अनुसार, “यह किसी दूसरे व्यक्ति से फुसफुसाकर बात करने जैसा है, और फिर आप फुसफुसाते रहते हैं, फुसफुसाते रहते हैं, और फिर अंत में सारी चीजें इस कदर उलझ जाती हैं कि कुछ अलग ही निष्कर्ष निकलकर सामने आता है।” कई बच्चों को लगता है कि अपनी बात कहने का कोई फायदा नहीं है। 

...कोई अंदाजा ही नहीं था कि क्या हो रहा है

11 साल की ऑलिव ने कहा कि उसे “कोई अंदाजा ही नहीं था कि क्या हो रहा है”,जबकि 13 वर्षीय लियो ने कहा, “मुझे कुछ भी पता नहीं था। ऐसा लग रहा था कि मैं अनुमान लगाने का खेल खेल रहा हूं।” कुछ बच्चों को अपनी उत्सुकता और गुप्त प्रयासों के माध्यम से जानकारी मिली। 13 वर्षीय एवा ने कहा, “मैं मां का कमरा खंगाल रही थी, तभी मुझे कुछ कागजात मिले।” इसके बाद एवा ने अपने माता-पिता के मामले में फैसला करने वाले परिवार न्यायालय के न्यायाधीश के बारे में गूगल से जानकारी जुटाई। 

एवा ने कहा, “मुझे उस व्यक्ति के बारे में जानना था, क्योंकि उसने मेरी जिंदगी बर्बाद कर दी थी।” कुछ बच्चों को उनकी उम्मीद से ज्यादा जानकारी मिली। 12 साल की ईवा ने कहा, “मां ने मेरे साथ अदालत से जुड़ी बहुत-सी बातें साझा कीं, लेकिन मैं वास्तव में चाहती थी कि वह ऐसा न करें, क्योंकि मैं अपना बचपन जीना चाहती थी। इन बातों ने अचानक मुझमें जिम्मेदारी का भाव जगा दिया और मेरे मन में मेरी मां के प्रति नकारात्मक विचार पनपने लगे।” 

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3.अदालती आदेश को मानने से इनकार -कुछ बच्चों ने कहा कि उन्होंने अपनी परवरिश के संबंध में परिवार न्यायालय के आदेश को मानने से इनकार कर दिया है। 13 वर्षीय एवा कहती है, “अगर वे मेरी बात नहीं सुन सकते, तो मैं भी उनकी बात नहीं सुनूंगी।” 15 वर्षीय चेल्सी ने कहा, “मेरी बात बिल्कुल नहीं सुनी गई। अंत में मैं अड़ गई और दो टूक कह दिया कि मैं अपने पापा के पास नहीं जा रही हूं।” 16 साल के ऐरन और उसके भाई-बहनों ने अदालत के आदेश के विपरीत अपने पिता के साथ रहने का विकल्प चुना। ऐरन ने कहा, “उन्होंने कहा कि हमें हमारी मां के साथ रहना होगा, लेकिन हम अपने पिता के साथ ही रह रहे हैं। उनका काम मदद करना है, लेकिन उन्होंने बिल्कुल इसका उल्टा किया।” 

4.दूसरों पर भरोसा नहीं कर पाते -शोध में शामिल बच्चों ने इस बात पर जोर दिया कि कानूनी पेशेवरों को बच्चों का भरोसा जीतने और उसे बनाए रखने पर अधिक ध्यान देने की जरूरत है। कई बच्चों को लगता है कि कानूनी पेशेवरों ने उनके माता-पिता को यह बताकर उनके साथ विश्वासघात किया है कि उनके बच्चे उनके बारे में क्या सोचते हैं। ट्रॉय (14) ने कहा, “अगर मुझे पता होता कि मैंने जो कहा है, वह पापा तक पहुंच जाएगा, तो मैं कभी ऐसा नहीं कहता।” 16 साल की जेसिका चाहती थी कि “उसे इस बात को लेकर आश्वस्त किया जाए कि वह अपने पिता के बारे में जो कह रही है, वह बात उन तक न पहुंचेगी, क्योंकि अदालत के फैसले के मुताबिक अगर उसे उसके पिता के साथ रहने के लिए भेजा जाता है, तो उसकी मुश्किलें बढ़ सकती हैं।” 

गैब्रियल (18) कहती है, “वयस्कों को ऐसा व्यक्ति माना जाता है, जिस पर आप भरोसा कर सकते हैं, खासकर जब वे कहते हैं कि वे आपके सर्वोत्तम हित के लिए हैं। लेकिन मेरा भरोसा कई बार तोड़ा गया है। और अब मैं फिर से किसी पर भरोसा नहीं करना चाहती।” बच्चों की रक्षा -हमने शोध में शामिल बच्चों से परिवार न्यायालय के आदेश का विवरण देने को नहीं कहा, इसलिए यह संभव है कि, जैसा कि 16 वर्षीय ऐरोन ने कहा, “जो लोग यह शोध करना चाहते थे, उन्होंने भी संभवतः इस तरह का अन्याय झेला होगा।” लेकिन, हमारे निष्कर्ष महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि वे परिवार न्यायालयों में बच्चों और उनके अधिकारों के बारे में चिंताजनक रुख को उजागर करते हैं, तथा अदालती कार्यवाही में बच्चों का सार्थक एवं सुरक्षित प्रतिनिधित्व करने की कानूनी पेशेवरों की क्षमता पर भी सवाल उठाते हैं। अब हम उन बच्चों के साथ मिलकर काम कर रहे हैं, जिन पर हमने शोध किया था, ताकि अदालती कार्यवाही में बच्चों की सार्थक भागीदारी सुनिश्चित करने और उन्हें उनके अधिकारों से अवगत कराने के लिए एक प्रभावी ‘टूलकिट’ तैयार की जा सके। 
(साभार: द कन्वरसेशन) 

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