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10 ट्रेड यूनियनें – ₹26,000 सैलरी – OPS की बहाली – मनरेगा सुधार : जानिए — क्या इस बार फिर झुकेगी सरकार? | यंग भारत न्यूज Photograph: (Google)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । यह कहानी 10 ट्रेड यूनियनों के भारत बंद की है, जिसमें मजदूरों, किसानों और आम जनता की आवाज बुलंद हुई। क्या हैं उनकी 10 अहम मांगें और क्यों उठ रहा है श्रम नीतियों व बिजली कंपनियों के निजीकरण पर विवाद? यह बंद सिर्फ एक प्रदर्शन नहीं, बल्कि सरकार की नीतियों पर एक गहरा सवाल है। यह स्टोरी उन अनसुने पहलुओं को उजागर करेगा जो इस आंदोलन की जड़ में हैं और देश के भविष्य को कैसे प्रभावित कर सकते हैं।
देश की 10 प्रमुख ट्रेड यूनियनों ने आज बुधवार 9 जुलाई 2025 को ‘भारत बंद’ का आह्वान कर केंद्र सरकार के सामने अपनी मांगों की एक लंबी सूची दी है। इस आंदोलन की नींव में सार्वजनिक क्षेत्र में नई भर्तियां शुरू करने और ठेका प्रथा, आउटसोर्सिंग व निजीकरण पर पूर्ण विराम लगाने की सशक्त मांग है। मजदूर वर्ग का मानना है कि निजीकरण से न केवल उनकी नौकरियों पर तलवार लटक रही है, बल्कि इससे आम जनता के लिए मूलभूत सेवाओं की उपलब्धता और गुणवत्ता भी प्रभावित हो रही है। यह सिर्फ रोजगार का मुद्दा नहीं, बल्कि देश के आर्थिक ढांचे की दिशा तय करने का सवाल है।
इन ट्रेड यूनियनों ने भारत बंद बुलाया
ये हैं भारत की प्रमुख 10 ट्रेड यूनियनें जो भारत बंद कराने में शामिल हैं।
- भारतीय राष्ट्रीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (INTUC)
(कांग्रेस से संबद्ध) - अखिल भारतीय ट्रेड यूनियन कांग्रेस (AITUC)
(सीपीआई से संबद्ध) - हिन्द मजदूर सभा (HMS)
(स्वतंत्र समाजवादी पृष्ठभूमि वाली) - भारतीय ट्रेड यूनियन केंद्र (CITU)
(सीपीएम से संबद्ध) - अखिल भारतीय संयुक्त ट्रेड यूनियन केंद्र (AIUTUC)
(सीपीआई (ML) से जुड़ी) - ट्रेड यूनियन समन्वय केंद्र (TUCC)
(अखिल भारतीय फॉरवर्ड ब्लॉक से जुड़ी) - स्व-रोजगार महिला संघ (SEWA)
(स्वतंत्र और महिला-आधारित) - श्रम प्रगतिशील संघ (LPF)
(DMK से जुड़ी) - यूनाइटेड ट्रेड यूनियन कांग्रेस (UTUC)
(आरएसपी से जुड़ी) - भारतीय ट्रेड यूनियन महासंघ (IFTU)
(क्रांतिकारी वाम संगठनों से जुड़ी)
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श्रम नीतियों और अधिकारों पर कुठाराघात या सुधार की पहल?
बंद का एक बड़ा कारण सरकार द्वारा लाई गई चार नई श्रम नीतियां हैं। यूनियनें इन नीतियों को रद्द करने की मांग कर रही हैं। उनका आरोप है कि ये नीतियां मजदूरों के हितों के खिलाफ हैं और उन्हें कमजोर करेंगी। संगठनों का कहना है कि इन कोड्स से कंपनियों को मजदूरों को आसानी से निकालने की छूट मिल जाएगी और उनके सामाजिक सुरक्षा लाभों में कटौती होगी। वहीं, सरकार का तर्क है कि ये नीतियां श्रम कानूनों को सरल बनाने और ईज ऑफ डूइंग बिजनेस को बढ़ावा देने के लिए लाई गई हैं। इस खींचतान में कौन सही है और इन नीतियों का भविष्य क्या होगा, यह देखना दिलचस्प होगा।
मनरेगा और शहरी रोजगार: ग्रामीण-शहरी खाई पाटने की कोशिश
ट्रेड यूनियनों की मांगों में मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम) के तहत मजदूरी और कार्यदिवस बढ़ाने के साथ-साथ शहरी बेरोजगारों के लिए भी योजनाएं बनाने की मांग शामिल है। ग्रामीण भारत में मनरेगा एक जीवन रेखा रही है, लेकिन इसकी अपर्याप्त मजदूरी और सीमित कार्यदिवस मजदूरों की जरूरतों को पूरा करने में विफल रहे हैं। शहरी क्षेत्रों में बेरोजगारी एक गंभीर चुनौती बनी हुई है, जिसके लिए कोई ठोस सरकारी योजना नहीं है। यूनियनें इस ग्रामीण-शहरी खाई को पाटने और सभी के लिए न्यूनतम आय सुनिश्चित करने पर जोर दे रही हैं। क्या सरकार इस दोहरी चुनौती का समाधान निकाल पाएगी?
शिक्षा, स्वास्थ्य और जन वितरण प्रणाली: मूलभूत सुविधाओं पर फोकस
आंदोलनकारी यूनियनें शिक्षा, स्वास्थ्य और जन वितरण प्रणाली (PDS) पर सरकारी खर्च बढ़ाने की भी मांग कर रही हैं। उनका मानना है कि ये मूलभूत सुविधाएं हर नागरिक का अधिकार हैं और सरकार को इनमें अधिक निवेश करना चाहिए ताकि आम जनता को सस्ती और गुणवत्तापूर्ण सेवाएं मिल सकें। कोरोना महामारी के दौरान स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और शिक्षा क्षेत्र में बढ़ती असमानता ने इन मांगों को और भी प्रासंगिक बना दिया है।
₹26,000 न्यूनतम मासिक वेतन: सम्मानजनक जीवन की ओर एक कदम?
वेतन और पेंशन के मोर्चे पर, यूनियनें न्यूनतम मासिक वेतन ₹26,000 करने और पुरानी पेंशन योजना (OPS) को बहाल करने की मांग कर रही हैं। बढ़ती महंगाई के दौर में मौजूदा न्यूनतम मजदूरी को जीवन यापन के लिए अपर्याप्त माना जा रहा है। पुरानी पेंशन योजना की बहाली सरकारी कर्मचारियों के लिए एक भावनात्मक मुद्दा है, जिसे लेकर देश भर में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। यह मांग कर्मचारियों के भविष्य की सुरक्षा और सम्मानजनक बुढ़ापे से जुड़ी है।
किसानों का साथ: एमएसपी और कर्जमाफी की आवाज
यह भारत बंद सिर्फ मजदूरों का नहीं, बल्कि किसानों का भी आंदोलन है। यूनियनें किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) की कानूनी गारंटी और कर्जमाफी की मांग कर रही हैं। किसानों का लंबे समय से यह संघर्ष रहा है कि उन्हें उनकी फसलों का उचित मूल्य नहीं मिलता और वे कर्ज के बोझ तले दबे रहते हैं। इस आंदोलन में मजदूरों और किसानों का एक साथ आना सरकार पर दबाव बनाने की एक मजबूत रणनीति है।
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बिजली कंपनियों का निजीकरण: अंधकार या उज्जवल भविष्य?
बिजली कंपनियों के निजीकरण का मुद्दा भी इस बंद का एक प्रमुख हिस्सा है। यूनियनों का कहना है कि बिजली कंपनियों का निजीकरण कर्मचारियों और उपभोक्ताओं दोनों के लिए नकारात्मक होगा। निजीकरण से बिजली महंगी हो सकती है और कर्मचारियों की नौकरी पर खतरा मंडरा सकता है। सरकार का तर्क है कि निजीकरण से दक्षता बढ़ेगी और बेहतर सेवाएं मिलेंगी। यह मुद्दा देश की ऊर्जा सुरक्षा और आम जनता की जेब से सीधा जुड़ा है।
बार-बार होते विरोध प्रदर्शन: क्या संदेश दे रहा है देश?
यह पहली बार नहीं है जब इतने बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन हुआ है। इससे पहले नवंबर 2020, मार्च 2022 और पिछले साल फरवरी में भी इसी तरह की देशव्यापी हड़तालें हो चुकी हैं, जहां लाखों श्रमिकों ने मजदूर-समर्थक नीतियों और विवादास्पद आर्थिक सुधारों को वापस लेने की मांग की थी। इन बार-बार होने वाले विरोध प्रदर्शनों से यह स्पष्ट संदेश मिलता है कि श्रमिक वर्ग और किसान अपनी मांगों को लेकर दृढ़ हैं और सरकार को उनकी आवाज सुननी होगी।
भारत बंद ने एक बार फिर सरकार और श्रमिक संगठनों के बीच बढ़ते गतिरोध को उजागर किया है। यह प्रदर्शन सिर्फ मांगों का पिटारा नहीं, बल्कि देश के आर्थिक और सामाजिक ताने-बाने पर एक गहरी बहस की शुरुआत है। आने वाले समय में यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि सरकार इन मांगों पर क्या रुख अपनाती है – क्या वह संवाद का रास्ता चुनेगी या टकराव की स्थिति बनी रहेगी। इस आंदोलन का परिणाम देश के लाखों लोगों के जीवन और देश की दिशा को प्रभावित करेगा।
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