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नई दिल्ली, वाईबीएन नेटवर्क । भारत, एक ऐसा देश जहां सामाजिक संरचना में जाति एक गहरी और जटिल भूमिका निभाती है, वहां जातिगत जनगणना का मुद्दा हमेशा से चर्चा और विवाद का केंद्र रहा है।
आज 30 अप्रैल बुधवार को केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव ने घोषणा की कि राष्ट्रीय जनगणना में जातिगत जनगणना को शामिल किया जाएगा। यह घोषणा भारतीय समाज में सामाजिक न्याय, समानता, और नीतिगत सुधारों के लिए एक महत्वपूर्ण कदम मानी जा रही है। लेकिन यह पहली बार नहीं है जब भारत में जातिगत जनगणना की बात उठी है।
आजादी के बाद से यह मुद्दा समय-समय पर सामने आता रहा है, और इसके पक्ष और विपक्ष में तर्क दिए जाते रहे हैं। इस स्टोरी में हम भारत में जातिगत जनगणना के इतिहास, इसके विरोधियों, प्रक्रिया, मुस्लिम समुदाय की जातियों पर इसके प्रभाव, और इससे होने वाले लाभों को तथ्यों के साथ विस्तार से देखेंगे।
भारत में जातिगत जनगणना का इतिहास
भारत में जातिगत जनगणना का इतिहास औपनिवेशिक काल से शुरू होता है। ब्रिटिश शासन के दौरान, 1871 से 1931 तक, भारत में हर दस साल में होने वाली जनगणना में जाति से संबंधित आंकड़े एकत्र किए गए। इन जनगणनाओं का उद्देश्य भारतीय समाज की सामाजिक और सांस्कृतिक संरचना को समझना था, ताकि प्रशासनिक और सामाजिक नीतियां बनाई जा सकें। 1931 की जनगणना भारत में जातिगत आंकड़े एकत्र करने वाली आखिरी औपनिवेशिक जनगणना थी, जिसमें लगभग 4,000 जातियों और उपजातियों की जानकारी दर्ज की गई थी।
आजादी के बाद, 1948 के जनगणना अधिनियम के तहत भारत में हर दस साल में जनगणना आयोजित करने का प्रावधान किया गया। हालांकि, इस अधिनियम में जातिगत जनगणना के लिए कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं था। 1951 की पहली स्वतंत्र जनगणना से, भारत सरकार ने एक नीतिगत निर्णय लिया कि जातिगत आंकड़े एकत्र नहीं किए जाएंगे, क्योंकि यह सामाजिक एकता को नुकसान पहुंचा सकता है।
सरकार का तर्क था कि संविधान जनसंख्या को मानता है, न कि जाति या धर्म को। इसके बावजूद, अनुसूचित जाति (SC) और अनुसूचित जनजाति (ST) की जनगणना नियमित रूप से की जाती रही, क्योंकि संविधान में इन समुदायों के लिए विशेष प्रावधान हैं।
2011 में, सामाजिक-आर्थिक और जातिगत जनगणना (SECC) आयोजित की गई, जो आजादी के बाद पहली बार जातिगत आंकड़े एकत्र करने का प्रयास था। लेकिन इस प्रक्रिया में एकत्र किए गए जाति से संबंधित आंकड़े कभी सार्वजनिक नहीं किए गए, क्योंकि डेटा में असंगतियां और तकनीकी त्रुटियां पाई गईं। इसके बाद, कुछ राज्यों जैसे कर्नाटक (2015) और बिहार (2023) ने स्वतंत्र रूप से जातिगत सर्वेक्षण किए, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर यह प्रक्रिया अभी तक पूरी नहीं हुई।
जातिगत जनगणना का विरोध: कौन और क्यों?
जातिगत जनगणना का विरोध आजादी के बाद से विभिन्न समूहों और राजनीतिक दलों द्वारा किया जाता रहा है। इन विरोधों के पीछे सामाजिक, राजनीतिक, और प्रशासनिक कारण रहे हैं। नीचे कुछ प्रमुख विरोधियों और उनके तर्कों का उल्लेख है:
1. केंद्र सरकार और नीति निर्माता
आजादी के बाद, जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार ने जातिगत जनगणना का विरोध किया। उनका मानना था कि जाति पर आधारित आंकड़े सामाजिक एकता को कमजोर करेंगे और समाज में विभाजन को बढ़ावा देंगे। 1951 की जनगणना में, सरकार ने स्पष्ट किया कि जाति आधारित डेटा संग्रह संविधान की भावना के खिलाफ है, जो समानता और एकता को बढ़ावा देता है।
2. सुप्रीम कोर्ट
सुप्रीम कोर्ट ने कई बार जातिगत जनगणना के खिलाफ टिप्पणी की है। उदाहरण के लिए, बिहार में 2023 के जातिगत सर्वे को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए, कोर्ट ने कहा कि जनगणना का अधिकार केवल केंद्र सरकार के पास है, क्योंकि यह संविधान की सातवीं अनुसूची की पहली सूची में आता है। कोर्ट ने यह भी दोहराया कि संविधान जनसंख्या को मानता है, न कि जाति या धर्म को।
3. भारतीय जनता पार्टी (BJP) और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS)
कई सामाजिक संगठनों और राजनीतिक दलों, विशेष रूप से BJP और RSS, पर यह आरोप लगता रहा है कि वे जातिगत जनगणना का विरोध करते हैं। X पर कुछ पोस्ट में दावा किया गया कि BJP और RSS जातिगत जनगणना के आंकड़े सामने लाने से डरते हैं, क्योंकि इससे OBC, SC, और ST समुदायों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में अधिकार देने पड़ेंगे।
हालांकि, BJP ने आधिकारिक रूप से कभी यह नहीं कहा कि वे जातिगत जनगणना के खिलाफ हैं। 2025 में, केंद्रीय मंत्री अश्विनी वैष्णव की घोषणा से यह स्पष्ट हो गया कि BJP अब इस मुद्दे पर सकारात्मक रुख अपना रही है।
4. उच्च जाति समूह
कुछ उच्च जाति समूहों ने जातिगत जनगणना का विरोध किया है, क्योंकि उनका मानना है कि इससे उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति पर सवाल उठ सकते हैं। प्रोफेसर सतीश देशपांडे जैसे समाजशास्त्रियों का कहना है कि जातिगत जनगणना से यह स्पष्ट हो जाएगा कि समाज के संसाधनों में किस समूह की कितनी हिस्सेदारी है, जिससे उच्च जातियों की विशेषाधिकार वाली स्थिति को चुनौती मिल सकती है।
5. प्रशासनिक और तकनीकी चिंताएं
कुछ विशेषज्ञों ने जातिगत जनगणना का विरोध इस आधार पर किया है कि भारत में हजारों जातियां और उपजातियां हैं, जिन्हें परिभाषित करना और गिनना एक जटिल और महंगा काम है। 2011 की SECC में भी डेटा की गुणवत्ता पर सवाल उठे थे, जिसके कारण आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए।
पूरे भारत में जातिगत जनगणना की प्रक्रिया
जातिगत जनगणना को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करना एक जटिल और बहु-चरणीय प्रक्रिया होगी। नीचे इसकी संभावित प्रक्रिया का विवरण दिया गया है:
1. कानूनी ढांचा
वर्तमान में, 1948 का जनगणना अधिनियम जातिगत जनगणना के लिए स्पष्ट प्रावधान नहीं देता। इसलिए, केंद्र सरकार को इस अधिनियम में संशोधन करना होगा या एक नया कानून बनाना होगा। यह कानून जातियों की परिभाषा, डेटा संग्रह की प्रक्रिया, और गोपनीयता के नियमों को स्पष्ट करेगा।
2. जातियों की परिभाषा और वर्गीकरण
भारत में हजारों जातियां और उपजातियां हैं, जिनमें कई क्षेत्रीय और सांस्कृतिक विविधताएं हैं। जातिगत जनगणना के लिए एक मानकीकृत सूची तैयार करना आवश्यक होगा। मंडल आयोग (1980) ने OBC की पहचान के लिए 3,743 जातियों की सूची तैयार की थी, जो एक आधार हो सकती है। इसके अलावा, SC और ST की मौजूदा सूचियों को भी शामिल किया जाएगा।
3. डेटा संग्रह
जातिगत जनगणना को राष्ट्रीय जनगणना के हिस्से के रूप में आयोजित किया जाएगा, जो हर दस साल में होती है। डेटा संग्रह के लिए प्रशिक्षित गणनाकर्ता घर-घर जाएंगे और प्रत्येक व्यक्ति की जाति, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, और अन्य जनसांख्यिकीय जानकारी एकत्र करेंगे। डिजिटल तकनीक, जैसे मोबाइल ऐप्स और ऑनलाइन पोर्टल, का उपयोग डेटा की सटीकता और गति बढ़ाने के लिए किया जा सकता है।
4. डेटा विश्लेषण और प्रकाशन
एकत्र किए गए डेटा का विश्लेषण भारत के रजिस्ट्रार जनरल और जनगणना आयुक्त के कार्यालय द्वारा किया जाएगा, जो गृह मंत्रालय के अधीन काम करता है। विश्लेषण के बाद, आंकड़े सार्वजनिक किए जाएंगे, ताकि नीति निर्माता और शोधकर्ता इसका उपयोग कर सकें।
5. गोपनीयता और सुरक्षा
जातिगत डेटा संवेदनशील होता है, इसलिए इसकी गोपनीयता सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण होगा। सरकार को डेटा सुरक्षा के लिए मजबूत नियम और तकनीकी उपाय लागू करने होंगे।
मुस्लिम समुदाय और जातिगत जनगणना
मुस्लिम समुदाय भारत की जनसंख्या का दूसरा सबसे बड़ा धार्मिक समूह है, जो 2011 की जनगणना के अनुसार 14.2% (17.2 करोड़) है। हालांकि इस्लाम में जाति व्यवस्था को सैद्धांतिक रूप से मान्यता नहीं दी जाती, भारतीय मुस्लिम समुदाय में सामाजिक स्तरीकरण और जाति जैसी संरचनाएं मौजूद हैं। ये संरचनाएं मुख्य रूप से हिंदू समाज से धर्मांतरण और क्षेत्रीय सांस्कृतिक प्रभावों का परिणाम हैं।
मुस्लिम समुदाय में जातियां
मुस्लिम समुदाय में जातियां मुख्य रूप से तीन श्रेणियों में विभाजित की जाती हैं:
अशराफ: ये उच्च वर्ग के मुस्लिम हैं, जो अरब, तुर्क, या फारसी मूल का दावा करते हैं। इसमें सैयद, शेख, और पठान जैसी जातियां शामिल हैं।
अजलाफ: ये मध्यम वर्ग के मुस्लिम हैं, जो स्थानीय हिंदू जातियों से धर्मांतरण के बाद मुस्लिम बने। इसमें कुनबी, मेमन, और जुलाहा जैसी जातियां शामिल हैं।
अरजाल: ये निम्न वर्ग के मुस्लिम हैं, जो सामाजिक और आर्थिक रूप से हाशिए पर हैं। इसमें हलालखोर, धोबी, और भंगी जैसी जातियां शामिल हैं।
क्या मुस्लिम जातियों की जनगणना होगी?
जातिगत जनगणना में मुस्लिम समुदाय की जातियों को शामिल करने का निर्णय नीतिगत और राजनीतिक रूप से संवेदनशील होगा। मंडल आयोग ने कई मुस्लिम जातियों को OBC की सूची में शामिल किया था, जैसे कि मप्पिला (केरल) और (गुजरात)। इसलिए, यह संभावना है कि जातिगत जनगणना में मुस्लिम समुदाय की जातियों को भी शामिल किया जाएगा, विशेष रूप से उन जातियों को जो पहले से OBC, SC, या ST श्रेणियों में सूचीबद्ध हैं।
हालांकि, इस प्रक्रिया में चुनौतियां होंगी। कुछ मुस्लिम संगठन यह तर्क दे सकते हैं कि इस्लाम में जाति का कोई स्थान नहीं है, और इसलिए उनकी जातियों को गिनना अनुचित होगा। इसके अलावा, मुस्लिम जातियों की परिभाषा और वर्गीकरण क्षेत्रीय विविधताओं के कारण जटिल हो सकता है।
जातिगत जनगणना से लाभ
जातिगत जनगणना के पक्षधर इसे सामाजिक न्याय और समावेशी विकास के लिए एक आवश्यक कदम मानते हैं। नीचे इसके प्रमुख लाभों का उल्लेख है:
1. सामाजिक न्याय और समानता
जातिगत जनगणना से विभिन्न जाति समूहों की जनसंख्या, सामाजिक-आर्थिक स्थिति, और संसाधनों में उनकी हिस्सेदारी का सटीक आंकड़ा मिलेगा। इससे सरकार को ऐसी नीतियां बनाने में मदद मिलेगी जो हाशिए पर मौजूद समुदायों, जैसे OBC, SC, और ST, को उनके जनसंख्या अनुपात में अवसर प्रदान करें। उदाहरण के लिए, बिहार के 2023 के जातिगत सर्वे में पता चला कि OBC और EBC (अत्यंत पिछड़ा वर्ग) की जनसंख्या 63% से अधिक है, जिसके आधार पर राज्य सरकार ने आरक्षण कोटा बढ़ाया।
2. नीतिगत सुधार
जातिगत आंकड़े नीति निर्माताओं को शिक्षा, रोजगार, और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों में लक्षित योजनाएं बनाने में मदद करेंगे। उदाहरण के लिए, यदि किसी जाति समूह की साक्षरता दर कम है, तो सरकार उस समूह के लिए विशेष शैक्षिक योजनाएं लागू कर सकती है।
3. सामाजिक गतिशीलता
जातिगत जनगणना सामाजिक गतिशीलता को समझने में मदद करेगी। यह दिखाएगा कि विभिन्न जाति समूह समय के साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से कितना आगे बढ़े हैं। इससे सरकार को यह मूल्यांकन करने में मदद मिलेगी कि मौजूदा आरक्षण और कल्याणकारी योजनाएं कितनी प्रभावी हैं।
4. विवादों का समाधान
कई समुदाय, जैसे मराठा, पाटीदार, और जाट, आरक्षण की मांग करते रहे हैं। जातिगत जनगणना से उनके दावों को वस्तुनिष्ठ आधार पर जांचा जा सकता है, जिससे राजनीतिक और सामाजिक विवाद कम हो सकते हैं।
5. मुस्लिम समुदाय के लिए लाभ
मुस्लिम समुदाय की निम्न और पिछड़ी जातियों, जैसे अरजाल और अजलाफ, को जातिगत जनगणना से विशेष लाभ हो सकता है। अगर इन जातियों को OBC या अन्य श्रेणियों में शामिल किया जाता है, तो उन्हें शिक्षा, नौकरी, और सरकारी योजनाओं में आरक्षण मिल सकता है। यह उनके सामाजिक और आर्थिक उत्थान में मदद करेगा।
चुनौतियां और आलोचनाएं
जातिगत जनगणना के कई लाभ होने के बावजूद, इसके सामने कई चुनौतियां भी हैं। कुछ प्रमुख आलोचनाएं निम्नलिखित हैं:
सामाजिक विभाजन: कई आलोचकों का मानना है कि जातिगत जनगणना समाज में जातिवाद को और मजबूत करेगी, क्योंकि यह लोगों को उनकी जातिगत पहचान के आधार पर वर्गीकृत करेगी।
प्रशासनिक जटिलता: हजारों जातियों और उपजातियों को परिभाषित करना और उनका डेटा एकत्र करना एक कठिन और महंगा काम होगा।
राजनीतिक दुरुपयोग: कुछ आलोचकों का कहना है कि जातिगत आंकड़ों का उपयोग राजनीतिक दलों द्वारा वोट बैंक की राजनीति के लिए किया जा सकता है।
डेटा की गुणवत्ता: 2011 की SECC में डेटा की गुणवत्ता पर सवाल उठे थे, जिसके कारण इसे सार्वजनिक नहीं किया गया। ऐसी त्रुटियों से बचने के लिए मजबूत तकनीकी ढांचा आवश्यक होगा।
जातिगत जनगणना भारत में सामाजिक न्याय और समावेशी विकास की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम हो सकता है। यह न केवल विभिन्न जाति समूहों की जनसंख्या और सामाजिक-आर्थिक स्थिति को समझने में मदद करेगा, बल्कि नीतिगत सुधारों और सामाजिक गतिशीलता को बढ़ावा देने में भी योगदान देगा। मुस्लिम समुदाय की जातियों को शामिल करने से इस प्रक्रिया का दायरा और व्यापक होगा, जिससे हाशिए पर मौजूद मुस्लिम समूहों को भी लाभ मिलेगा।
हालांकि, इस प्रक्रिया के सामने कई चुनौतियां हैं, जैसे सामाजिक विभाजन, प्रशासनिक जटिलता, और डेटा की गुणवत्ता। इन चुनौतियों से निपटने के लिए सरकार को एक मजबूत कानूनी और तकनीकी ढांचा तैयार करना होगा। अगर सही तरीके से लागू किया जाए, तो जातिगत जनगणना भारत को एक अधिक समावेशी और न्यायपूर्ण समाज बनाने में मदद कर सकती है।
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