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नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क। महाराष्ट्र की राजनीति में जब भी “ठाकरे” नाम लिया जाता है, तो लोगों के जहन में सिर्फ एक नेता या पार्टी नहीं, बल्कि एक विचारधारा का चेहरा उभर आता है। एक समय पर महाराष्ट्र की राजनीति का अर्थ ही सिर्फ ठाकरे परिवार था। पूरे महाराष्ट्र में शिवसैनिकों और ठाकरे परिवार की तूती बोलती थी। लेकिन धीरे-धीरे महाराष्ट्र की सत्ता में ठाकरे परिवार की पकड़ कमजोर होती गई और अन्य पार्टियों का दबदबा बढ़ता गया। शिवसेना की मौजूदा स्थिति के पीछे सिर्फ राजनीतिक ही नहीं पारिवारिक कारण भी जिम्मेदार हैं। इसके लिए ठाकरे बंधुओं की प्रतिद्वंदिता को भी बड़ा कारण माना जाता है। कभी एक साथ राजनीतिक सफर की शुरुआत करने वाले उद्धव और राज ठाकरे कैसे एक-दूसरे के धुर विरोधी बन गए। आइए जानते हैं कि उद्धव और राज ठाकरे के बीच कैसे दूरियां आईं।
बाल ठाकरे
बाल ठाकरे महाराष्ट्र की सियासत की पहचान हैं। बाल ठाकरे का जन्म 23 जनवरी 1926 को पुणे में हुआ था। उनके पिता केशव सीताराम ठाकरे, जिन्हें प्रबोधनकार ठाकरे कहा जाता था, एक प्रखर समाजसुधारक, पत्रकार और हिंदुत्व के प्रवक्ता थे। बाल ठाकरे ने अपने पिता के विचारों से प्रेरणा लेकर शुरुआत की, लेकिन उनका मंच था- कार्टून। उन्होंने मुंबई के प्रतिष्ठित अखबार ‘द फ्री प्रेस जर्नल’ में राजनीतिक कार्टून बनाने से करियर की शुरुआत की। उनके बनाए कार्टून केवल हास्य नहीं थे, उनमें सामाजिक और राजनीतिक आलोचना छिपी रहती थी। उनकी कला को जापान के अखबार Asahi Shimbun और New York Times जैसी अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं में भी जगह मिली। लेकिन जैसे-जैसे महाराष्ट्र में भाषाई राजनीति का स्वर तेज हुआ, बाल ठाकरे का ध्यान कला से ज़्यादा विचारों के प्रचार की ओर मुड़ गया।
शिवसेना की स्थापना
1966 में बाल ठाकरे ने ‘शिवसेना’ की स्थापना की। यह एक ऐसी पार्टी थी जो उस समय के किसी भी पारंपरिक राजनीतिक ढांचे में फिट नहीं बैठती थी। उनका एजेंडा स्पष्ट था- मराठी लोगों को रोजगार में प्राथमिकता, मुंबई में बाहरी राज्यों के लोगों का सीमित प्रवेश और हिंदू राष्ट्रवाद का प्रसार। शिवसेना का पहला चेहरा एक सांस्कृतिक आंदोलन जैसा था, जिसमें मराठी युवाओं को सड़कों पर उतरकर अपनी पहचान की लड़ाई लड़नी थी। बाल ठाकरे ने इस आंदोलन को "सेना" की शक्ल दी- नारे, अनुशासन, भावनात्मक अपील और टकराव इसके मूल तत्व बने।
बाल ठाकरे का राजनीतिक अंदाज
बाल ठाकरे की नेतृत्व शैली बिल्कुल अलग थी। वे कभी चुनाव नहीं लड़े, लेकिन सरकारें उनकी मर्ज़ी के बिना नहीं बनती थीं। उनका पहनावा- भगवा वस्त्र, मोटा काला चश्मा, गले में रुद्राक्ष और हाथ में चिलम ने उन्हें एक आध्यात्मिक योद्धा की छवि दी। वे खुद को नेता नहीं, "हिंदू हृदय सम्राट" कहते थे। भाषणों में आक्रोश, शब्दों में तल्खी, और कार्यकर्ताओं में अंधभक्ति ये सारे तत्व मिलकर बाल ठाकरे को सबसे जुदा बनाते थे। शिवाजी, मराठा गौरव, और हिंदू सांस्कृतिक प्रतीकों को उन्होंने आम जनमानस से इस तरह जोड़ा कि शिवसेना मुंबई में एक अजेय ताकत बन गई।
ठाकरे के इशारे पर चलती थी सत्ता
1970 के दशक में शिवसेना ने मुंबई महानगरपालिका चुनावों में महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त की। यह पहली बार था जब पार्टी ने वास्तविक सत्ता की ओर कदम बढ़ाया। 1984 में शिवसेना ने भारतीय जनता पार्टी (BJP) से गठबंधन कर लिया। यह गठबंधन राजनीतिक दृष्टि से क्रांतिकारी साबित हुआ, क्योंकि इससे शिवसेना को वैचारिक समर्थन और भाजपा को महाराष्ट्र में क्षेत्रीय आधार मिला। 1995 में, शिवसेना और भाजपा की सरकार बनी और मनोहर जोशी मुख्यमंत्री बने। इस सरकार ने मुंबई का नाम 'बॉम्बे' से बदलकर 'मुंबई' रखा और बाल ठाकरे की राजनीतिक मांगों को सरकारी मान्यता दी। उस समय माना जाता था कि सरकार बाल ठाकरे के इशारे पर ही चलती है।
राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे
इस दौरान ठाकरे परिवार की अगली पीढ़ी राजनीति में प्रवेश कर रही थी। राज ठाकरे, जिनका जन्म 1968 में हुआ था, बाल ठाकरे के भतीजे थे और बचपन से ही राजनीतिक मंच पर सहज महसूस करते थे। वह तेज़तर्रार, करिश्माई और भाषण कला में निपुण थे। उन्होंने 1985 में बाल ठाकरे की पत्रिका 'मार्मिक' में कार्टूनिस्ट के रूप में काम करना शुरू किया और 1988 में ‘भारतीय विद्यार्थी सेना’ की स्थापना की। वहीं उद्धव ठाकरे, बाल ठाकरे के बेटे, राजनीति में धीरे-धीरे प्रवेश कर रहे थे। वे मंच से ज़्यादा संगठनात्मक कामों में रुचि रखते थे। यह स्पष्ट होता जा रहा था कि दोनों में नेतृत्व के दो अलग-अलग मॉडल तैयार हो रहे हैं- एक जो स्टेज पर चमकता है, और दूसरा जो पार्टी को व्यवस्थित करता है।
बाल ठाकरे ने उद्धव-राज को पढ़ाई सियासत
उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे का रिश्ता भारतीय राजनीति, विशेष रूप से महाराष्ट्र की राजनीति में सबसे दिलचस्प और जटिल पारिवारिक-सियासी रिश्तों में से एक है। ये रिश्ता खून का भी है और कटुता का भी, सहयोग का भी है और प्रतिस्पर्धा का भी। दोनों एक ही राजनीतिक विरासत में पले-बढ़े, एक ही नेता (बाल ठाकरे) के साये में तैयार हुए, लेकिन राजनीति के रास्ते और स्वभाव दोनों ने उन्हें दो ध्रुवों पर ला खड़ा किया।
बाल ठाकरे के दूसरे बेटे 'राज'
राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे, दोनों का बचपन एक ही ठाकरे परिवार में बीता। राज, बाल ठाकरे के छोटे भाई शांताराम के बेटे हैं। पारिवारिक रूप से दोनों चचेरे भाई हैं लेकिन चूंकि राज, बाल ठाकरे के घर में ही बड़े हुए, इसलिए उन्हें एक प्रकार से बाल ठाकरे का “दूसरा बेटा” माना जाता था। बाल ठाकरे ने राज के अंदर नेतृत्व की संभावना शुरू से देखी थी। राज का व्यक्तित्व मुखर था, वे कला, कार्टून, संगीत और पब्लिक स्पीकिंग में निपुण थे। वहीं उद्धव, अपने स्वभाव से अधिक शांत, परिपक्व और रणनीतिक सोच वाले थे।
राजनीति में कैसे आगे बढ़े उद्धव और राज
राज ठाकरे ने1985 में बाल ठाकरे की पत्रिका 'मार्मिक' में कार्टूनिस्ट के रूप में काम करना शुरू किया और 1988 में ‘भारतीय विद्यार्थी सेना’ की स्थापना की। शिवसेना के शुरुआती दिनों में जब पार्टी अपने विस्तार की ओर बढ़ रही थी, तब राज ठाकरे सार्वजनिक कार्यक्रमों, रैली, भाषणों में पार्टी का चेहरा बनते जा रहे थे। पार्टी कार्यकर्ताओं में भी उनकी पकड़ मजबूत थी। वहीं उद्धव संगठन के अंदर काम करने लगे थे- प्रचार, पोस्टर डिजाइन, ‘सामना’ अखबार का संपादन आदि में। इस दौर में दोनों भाइयों के बीच कोई सार्वजनिक टकराव नहीं था। एक काम करता था स्टेज पर चमकने का, और दूसरा पार्टी को अंदर से मजबूत करने का। 1995 में जब शिवसेना और भाजपा की साझा सरकार महाराष्ट्र में बनी, तो राज ठाकरे के कद में अचानक इज़ाफा हुआ। वे पार्टी के प्रमुख चेहरे बन गए, विशेषकर युवाओं में। इस दौरान बाल ठाकरे अक्सर उन्हें मंचों पर बोलने के लिए आगे करते थे, और कई लोगों को लगने लगा कि अगला उत्तराधिकारी वही होंगे। लेकिन इसी समय उद्धव भी धीरे-धीरे संगठन पर पकड़ मजबूत करने लगे। 1996-2002 के बीच उन्होंने शिवसेना की राजनीतिक रणनीति, गठबंधन वार्ता और जिला स्तर पर सांगठनिक विस्तार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।यह दौर उस “अनकही प्रतिस्पर्धा” का था, जहाँ दोनों अपने-अपने तरीके से पार्टी को आगे ले जा रहे थे, लेकिन नेतृत्व को लेकर सस्पेंस गहराता जा रहा था।
उद्धव-राज में दरार की वजह
2003 में एक निर्णायक मोड़ आया जब बाल ठाकरे ने उद्धव ठाकरे को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष घोषित कर दिया। यह घोषणा न केवल पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए चौंकाने वाली थी, बल्कि राज ठाकरे के लिए भी व्यक्तिगत आघात थी। राज ने सार्वजनिक रूप से यह कहा कि उन्हें ठगा हुआ महसूस हुआ है। उन्होंने सवाल उठाया कि उन्हें उत्तराधिकारी की दौड़ से बाहर क्यों कर दिया गया, जबकि उन्होंने पार्टी के लिए पूरे महाराष्ट्र में दौरे किए, आंदोलनों में भाग लिया, और पार्टी के विस्तार में योगदान दिया। पार्टी कार्यकर्ताओं में भी दो धड़े बनने लगे- एक जो राज के नेतृत्व को पसंद करता था, और दूसरा जो उद्धव की रणनीतिक समझ और स्थिरता का समर्थक था। यह पहली बार था जब ठाकरे परिवार का आंतरिक मामला सार्वजनिक मंच पर चर्चा का विषय बना।
MNS की स्थापना और राज की राजनीति
27 नवंबर 2005 को राज ठाकरे ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्पष्ट शब्दों में कहा, “मैंने केवल इज़्ज़त मांगी थी, मुझे अपमान मिला।” 18 दिसंबर 2005 को, उन्होंने शिवाजी पार्क से सार्वजनिक रूप से शिवसेना छोड़ने की घोषणा कर दी। कुछ हफ्तों बाद, 9 मार्च 2006 को उन्होंने ‘महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (MNS)’ की स्थापना की। इस नई पार्टी का एजेंडा पुराना ही था- मराठी युवाओं की नौकरी, मुंबई की स्वच्छता और बाहरी लोगों पर नियंत्रण—but with a modern branding. राज ठाकरे ने खुद को बाल ठाकरे के अनुयायी के रूप में प्रस्तुत किया लेकिन यह भी कहा, “मैं उनका चेहरा हूँ, अनुकरण नहीं।”
राजनीति से परिवार में दरार
राज के इस फैसले से ठाकरे परिवार में गहरी दरार पड़ गई। बाल ठाकरे ने सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं कहा, लेकिन उद्धव ने इसे ‘राजनीतिक अहंकार’ का नतीजा बताया। इस बंटवारे ने न सिर्फ परिवार को, बल्कि मराठी राजनीति को भी दो हिस्सों में बांट दिया। अब एक ही विचारधारा के दो चेहरे आमने-सामने थे। हालांकि, MNS की राजनीति जल्दी ही विवादों में घिर गई। 2008 में उत्तर भारतीय छात्रों पर हुए हमलों, रेलवे परीक्षा में हिंसा और फिल्मी हस्तियों के खिलाफ टिप्पणियों ने MNS की छवि को नुकसान पहुंचाया।
जब शून्य पर आ गए रिश्ते
समय के साथ राज और उद्धव के रिश्ते शून्य पर आ गए थे। वे एक-दूसरे से न मिलते, न मंच साझा करते और न ही एक-दूसरे पर बयानबाज़ी से चूकते। जहां उद्धव ने शिवसेना को शांत और लोकतांत्रिक रूप देने की कोशिश की, वहीं राज ठाकरे ने खुद को बाल ठाकरे की शैली का असली उत्तराधिकारी बताया।
बाल ठाकरे का निधन
हालांकि, 2012 में जब बाल ठाकरे का निधन हुआ, यह शिवसेना के लिए बड़ा झटका था। दोनों भाई अंतिम संस्कार में एक साथ दिखे। मीडिया ने इसे संभावित मेल का संकेत माना, लेकिन अगले ही महीनों में यह साफ हो गया कि यह साथ केवल संस्कार तक ही सीमित रहेगा।
MNS और शिवसेना आमने-सामने
समय बीता और दोनों के बीच सियासी संघर्ष तेज़ हो गया। मुंबई महानगरपालिका चुनावों में कई बार MNS और शिवसेना आमने-सामने हुए। राज की पार्टी को शुरुआती दौर में जो जनसमर्थन मिला था, वह समय के साथ घटता गया। वहीं उद्धव ने पार्टी को स्थायित्व और गठबंधन की राजनीति में मजबूत किया। उनकी पार्टी के विधायक 2009 में चुनकर आए, लेकिन 2014 के बाद उनका राजनीतिक ग्राफ गिरता गया। बार-बार की राजनीतिक घोषणाएं- जैसे 'हिंदुत्व की वापसी', 'मोदी समर्थन', फिर विरोध ने उनकी साख को नुकसान पहुंचाया। 2019 तक MNS राजनीति के मुख्यधारा से लगभग बाहर हो चुकी थी।
शिवसेना कैसे हुई कमजोर?
दूसरी तरफ उद्धव ठाकरे की अगुवाई में शिवसेना की स्थिति भी थोड़ी कमजोर हो रही थी, हालांकि मोदी युग के बाद भाजपा का वर्चस्व बढ़ता गया और शिवसेना सहयोगी की बजाय अधीनस्थ पार्टी लगने लगी। इस असंतुलन को उद्धव लगातार महसूस कर रहे थे। 2014 में भाजपा ने अकेले बहुमत हासिल किया और मुख्यमंत्री पद भी अपने पास रखा, जबकि शिवसेना की अपेक्षा थी कि उसे बराबरी का स्थान मिले। इस तरह भाजपा और शिवसेना के बीच दरार पड़ना शुरू हुई। हालांकि उद्धव ने साझेदारी बनाए रखी और सही समय का इंतजार किया। 2019 महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भाजपा-शिवसेना ने साथ चुनाव लड़ा, लेकिन चुनाव परिणाम आने के बाद भाजपा और शिवसेना की खटास खुलकर सामने आ गई। सीएम पद को लेकर दोनों पार्टियों के बीच मतभेद हुए। उद्धव ने भाजपा पर आरोप लगाया कि सीएम पद को लेकर वादा तोड़ा गया। इसके बाद उन्होंने एनसीपी और कांग्रेस के साथ मिलकर महाविकास आघाड़ी (MVA) गठबंधन बनाया और खुद मुख्यमंत्री बने। यह फैसला शिवसेना के इतिहास का सबसे बड़ा वैचारिक मोड़ था- एक हिंदुत्ववादी पार्टी अब सेक्युलर और उदार दलों के साथ सरकार चला रही थी। उद्धव ने इसे "महाराष्ट्रहित में निर्णय" बताया, लेकिन भाजपा और बाल ठाकरे के कई पुराने समर्थक इसे "विचारधारा से धोखा" कहने लगे।
जब टूट गई शिवसेना
इससे कहीं न कहीं शिवसेना की कट्टर हिंदुत्व और मराठी मानुष के समर्थक वाली पार्टी के रूप में छवि कमजोर हुई। उद्धव के मुख्यमंत्रई रहते हुए पार्टी के एक गुट में धीरे-धीरे नाराजगी बढ़ती जा रही थी। उद्धव को तब झटका लगा जब 2022 में पार्टी के कद्दावर नेता एकनाथ शिंदे ने उद्धव के खिलाफ विद्रोह कर दिया। उन्होंने आरोप लगाया कि पार्टी की परंपरागत हिंदुत्ववादी दिशा को छोड़ दिया गया है, और निर्णय केवल परिवार के भीतर लिए जा रहे हैं। शिंदे ने 40 विधायकों के साथ बगावत कर दी और भाजपा के समर्थन से नई सरकार बना ली। इस बगावत ने उद्धव से मुख्यमंत्री पद, पार्टी का नाम और चुनाव चिन्ह छीन लिया। चुनाव आयोग ने बाद में शिवसेना का 'धनुष-बाण' चिन्ह शिंदे गुट को दे दिया। उद्धव अब ‘शिवसेना (उद्धव बालासाहेब ठाकरे)’ नामक अलग पहचान के साथ बचे। वो शिवसेना जो कभी महाराष्ट्र की राजनीति की पहचान थी, अब अपनी अस्मिता के लिए संघर्ष करती हुई नजर आ रही है।
उद्धव और राज के साथ आने के सियासी मायने
उद्धव और राज ठाकरे के एकसाथ आने को महाराष्ट्र की सियासत में ऐतिहासिक मोड़ माना जा रहा है। दोनों भाई मंच पर एकसाथ नजर आए। गले मिले और एक जैसा संदेश दिया। उद्धव और राज के संदेश से स्पष्ट है कि अब ठाकरे परिवार मिलकर एक बार फिर महाराष्ट्र और मराठी के मुद्दे पर पर राजनीतिक नींव को दोबारा खड़ी करने की कोशिश कर रहा है। अब देखना होगा कि ठाकरे बंधुओं के साथ आने से महाराष्ट्र की सियासत पर क्या असर पड़ेगा। Maharashtra | Raj and Uddhav together | uddhav Thackeray