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नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्कःहिंदुस्तान की राजनीति में शरद पवार को एक ऐसा नेता माना जाता है जो सियासत के बदलते रुख का एहसास समय से काफी पहले कर लेता है। लेकिन लगता है कि उनका ये हुनर अब चूक गया है। इसी वजह से वो अपनी पार्टी पर नियंत्रण रख पाने में भी नाकारा साबित हो रहे हैं। पार्टी और विधायक तो पहले ही अजित के साथ हो लिए थे अब उनके साथ वो लोग भी नहीं रहे जिनका दामन थामकर वो राजनीति में आगे बढ़े थे। भतीजे अजित पवार ने Malegaon Cooperative Sugar Mill के चुनाव में उन्हें बुरी तरह से गच्चा दे दिया। कुल 21 पदों के लिए चुनाव हुए थे और अजित 20 को जीतने में सफल रहे। कापरेटिव सोसायटीज में शरद पवार की पैठ को उनकी बेजोड़ ताकत माना जाता रहा है। अब वो ताकत ही उनसे उनके भतीजे ने छीन ली। छीनाझपटी भी धोखाधड़ी के अंदाज में हुई।
किसानों की राजनीति से आगाज, 27 में बन गए एमएलए और 38 में सीएम
1940 में जन्मे शरद पवार को दिग्गज नेता यूं ही नहीं माना जाता है। कहते हैं कि वो समय की चाल को समय रहते भांप लेते हैं। किसानों के आंदोलन से सियासी पारी का आगाज करने वाले शरद पवार ने जब देखा कि आगे बढ़ने के लिए कुछ और करने की जरूरत है तो वो छात्र राजनीति में उतर गए। यहां उन्होंने राजनीति के कुछ गुर सीखे और फिर से आगे बढ़ गए। सियासत में उनकी उड़ान बेहद तेज रही। 1958 में वो यूथ कांग्रेस से जुड़े और फिर महज 27 साल की उम्र में विधायक बन बैठे। उनकी लालसाएं एमएलए बनकर नहीं सिमटीं। जब वो 38 की उम्र में महाराष्ट्र के सीएमं बने तब जाकर लगा कि उनको उनकी मंजिल मिल गई।
अपने गुरु को धोखा देकर बने थे महाराष्ट्र के चीफ मिनिस्टर
शरद पवार सीएम की कुर्सी तक यूं ही नहीं पहुंच गए। जिस यशवंत राव चव्हाण से उन्होंने राजनीति का ककहरा सीखा उन्होंने उसकी ही पीछ में छुरा घोंप दिया। दरअसल, चव्हाण कांग्रेस के दिग्गज नेता माने जाते थे। लेकिन 1978 में उन्होंने कांग्रेस को अलविदा कह दिया। शरद पवार उनके साथ हो लिए। चव्हाण ने कांग्रेस (यू) का गठन किया। चुनाव हुए तो जनता पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। चव्हाण ने कांग्रेस से गठजोड़ करके सूबे में सरकार बना ली। शरद पवार कैबिनेट मंत्री बने। समय को पहले से भांपने की क्षमता उनके यहां काम आई। पवार ने ऐन मौके पर अपने गुरु को धोखा देकर सरकार तोड़ दी। उन्होंने जनता पार्टी के साथ गठबंधन किया और महज 38 की साल में सीएम बन गए।
इंदिरा ने की सरकार बर्खास्त पर राजीव के आते ही पवार फिर हो गए पावरफुल
जब इंदिरा गांधी सत्ता में वापस आईं तो उन्होंने शरद पवार को सबक सिखाने के लिए उनकी सरकार को बर्खास्त कर दिया। लेकिन पवार तो पवार थे। इंदिरा की मौत होते ही उन्होंने फिर से समय को भांपा और राजीव गांधी का हाथ पकड़कर फिर से अपनी पुरानी पार्टी में लौट आए। राजीव की नजदीकी हासिल करके वो पहले केंद्रीय मंत्री बने और फिर महाराष्ट्र के सीएम। लेकिन उनकी लालसाएं खत्म नहीं हुई थीं। उन्होंने कांग्रेस पर काबिज होने के लिए राजीव की मौत के बाद सीताराम केसरी के खिलाफ चुनाव लड़ा। हालांकि वो चुनाव हार गए पर हिम्मत नहीं हारी। उनको राजीव का सबसे विश्वस्त नेता माना जाता था। इतना कि कहते हैं कि राजीव उनसे पूछे बगैर कोई फैसला नहीं करते थे। लेकिन जब उसी राजीव की पत्नी ने कांग्रेस अध्यक्ष की बागडोर संभाली तो शरद पवार विदेशी के मुद्दे पर कांग्रेस को छोड़ गए।
अजित ने चाचा को उनके ही हथियार से दे डाली शिकस्त
पवार को तब लगता था कि सोनिया सियासत में अपनी जगह नहीं बना पाएंगी। लेकिन जब उनको ताकतवर होते देखा तो पांच साल के भीतर ही कांग्रेस की अगुवाई में बने यूपीए गठबंधन में शामिल होकर केंद्रीय मंत्री बन बैठे। अब तक पवार बूढ़े हो चुके थे। लेकिन उनकी पाला बदलने की सियासत में कोई बदलाव नहीं आया। चुनाव से ऐन पहले वो अडानी के मुद्दे पर कांग्रेस का साथ छोड़ गए तो जब सावरकर के विरोध की बात आई तो भी वो मोदी के साथ खड़े दिखे। कुल मिलाकर धोखा शरद पवार की फितरत माना जाता है। लेकिन भतीजा उनसे भी दो कदम आगे निकल चुका है। वो चाचा को उनकी ही सियासी पिच पर मात दे रहा है। पहले धोखे से उनकी पार्टी कब्जाई और अब कापरेटिव से भी उनको निकाल फेंका। अजित ने अपने चाचा को उनके ही हथियार से हाशिए पर ला खड़ा किया है। trending not present in content
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