गाजियाबाद, वाईबीएन संवाददाता
लोनी में एक निर्माणाधीन व्यावसायिक भवन की छत ने ऐसा धोखा दिया कि मजदूरों की सांसें थम गईं। छत के नीचे मेहनत कर रहे छह मजदूर मलबे में दब गए, जबकि ऊपर काम कर रहे चार अन्य घायल होकर तड़पने लगे। यह हादसा नहीं, लापरवाही का वह काला सच है जो बार-बार हमारे सामने आता है, फिर भी हम आंखें मूंद लेते हैं।
क्या हुआ उस दिन?
लोनी कोतवाली क्षेत्र में उस निर्माणाधीन इमारत की छत, जो शायद जल्दबाजी या लापरवाही का शिकार थी, भरभराकर गिर पड़ी। मजदूर, जिनके पसीने से इमारतें खड़ी होती हैं, उसी मलबे में दफन हो गए। स्थानीय लोगों ने बताया कि आवाज इतनी तेज थी कि लगा, जैसे कोई बम फटा हो। धूल का गुबार और चीख-पुकार ने पूरे इलाके को सन्न कर दिया।
बचाव का जज्बा
हादसे की सूचना मिलते ही एनडीआरएफ और पुलिस की टीमें मौके पर पहुंची। लेकिन उससे पहले, आसपास के लोग, जिनमें दुकानदार, राहगीर और पड़ोसी शामिल थे, मलबा हटाने में जुट गए। यह इंसानियत की ताकत थी, जो उस भयावह मंजर में उम्मीद की किरण बनी। एनडीआरएफ ने अपने अनुभव और उपकरणों से मलबे में दबे मजदूरों को एक-एक कर बाहर निकाला। सभी को तुरंत अस्पताल पहुंचाया गया, जहां कुछ की हालत गंभीर बताई जा रही है।
सवाल, जो चीख रहे हैं
यह हादसा महज एक दुर्घटना नहीं, बल्कि हमारे सिस्टम की नाकामी का नमूना है। आखिर क्यों निर्माण स्थलों पर सुरक्षा मानकों को ताक पर रखा जाता है? क्या मजदूरों की जान इतनी सस्ती है कि ठेकेदार और बिल्डर बिना किसी डर के नियम तोड़ते हैं? क्या इस हादसे के लिए जिम्मेदार लोगों को सजा मिलेगी, या यह भी फाइलों में दबकर रह जाएगा?एक कड़वा सच
भारत में हर साल सैकड़ों मजदूर निर्माण स्थलों पर हादसों का शिकार होते हैं। श्रम मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 2023 में ही 1,200 से ज्यादा मजदूर निर्माण कार्यों के दौरान जान गंवा चुके हैं। फिर भी, न तो ठेकेदारों पर सख्ती होती है, न ही सुरक्षा उपकरणों का इस्तेमाल अनिवार्य किया जाता है। लोनी का यह हादसा उसी कड़वी हकीकत का एक और अध्याय है।
आगे क्या?
पुलिस ने मामले की जांच शुरू कर दी है। स्थानीय लोग और मजदूर संगठन दोषियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग कर रहे हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह मांग सिर्फ कुछ दिनों की सुर्खियां बनकर रह जाएगी? या इस बार सरकार और प्रशासन कोई ठोस कदम उठाएंगे?लोनी का यह हादसा हमें याद दिलाता है कि हर इमारत, जो गर्व से आसमान छूती है, उसके पीछे मजदूरों का खून-पसीना है। उनकी जान की कीमत पर बने सपनों को हम कैसे स्वीकार कर सकते हैं? यह वक्त है जागने का, सवाल उठाने का, और यह सुनिश्चित करने का कि मजदूरों की मेहनत को सम्मान के साथ-साथ सुरक्षा भी मिले
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