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Photograph: (Google)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क। इसरायल द्वारा ईरान पर हमले जारी रखने के साथ ही अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और अन्य वैश्विक नेता इस इस्लामिक देश के खिलाफ अपना रुख कड़ा कर रहे हैं। ईरान के परमाणु स्थलों ठिकानों अमेरिका द्वारा हमला किए जाने के बाद स्थितियां तेजी से बदल रही हैं। दो सप्ताह की मोहतल के बाद जिस तरह रविवार को अमेरिका ने ईरान के परमाणु ठिकानों को निशाना बनाया है, उससे एक बाद साफ हो गई है कि ट्रंप शक्तिशाली कट्टर यहूदी लॉबी के दबाव में काम कर रहे हैं। इस पर रूस, चीन और उत्तर कोरिया का क्या रुख रहेगा, इसका आने वाले दिनों में पता चलेगा। इस हमले से ट्रंप को दोहरा चरित्र भी दुनिया के सामने आ गया है।
ट्रंप ने कहा, इसरायली सेना का बेहतर रूख
हमले के बाद डोनाल्ड ट्रंप ने बयान में कहा कि ईरान ने इसरायल और मिडिल ईस्ट के कई लोगों की जान ली है। इस तरह से अगर अगर शांति अभी स्थापित नहीं होती है तो हम और अन्य साइट पर अटैक करेगें जिसमें हमें कुछ मिनट ही लगेंगे। इसके अलावा ट्रंप ने इजरायल के पीएम बेंजामिन नेतन्याहू और उनकी टीम को धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा कि इसरायली सेना ने बहुत अच्छा काम किया है। बता दें कि हमले के बाद ट्रंप ने नेतन्याहू को फोन पर सारी जानकारी दी थी।
यूरोपीय देशों को साथ मिला
इस बीच, जर्मनी, कनाडा, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों ने अपना रुख कड़ा करते हुए ईरान से पूरी तरह अपना परमाणु कार्यक्रम छोड़ने की मांग की थी। क्या ईरान पर दबाव बढ़ने के कारण उसे अकेले ही लड़ना पड़ेगा? या फिर उसके पास ऐसे सहयोगी हैं जो उसकी मदद कर सकते हैं? क्या ईरान का ‘प्रतिरोध आधार’ पूरी तरह ध्वस्त हो गया है? ईरान लंबे समय से अपनी प्रतिरोध रणनीति के तहत पश्चिम एशिया में सहयोगी अर्धसैनिक समूहों के नेटवर्क पर निर्भर रहा है। इस दृष्टिकोण ने लगातार धमकियों और दबाव के बावजूद, अमेरिका या इजराइल द्वारा सीधे सैन्य हमलों से इसे काफी हद तक बचाया है।
इजराइल ने इस नेटवर्क को भारी नुकसान पहुंचाया
इस तथाकथित ‘प्रतिरोध आधार’ में लेबनान में हिज्बुल्ला, इराक में पॉपुलर मोबिलाइजेशन फोर्सेस (पीएफएफ), यमन में हूती आतंकवादियों के साथ ही गाजा में हमास जैसे समूह शामिल हैं। ईरान सीरिया में बशर अल-असद की सरकार का भी समर्थन करता रहा है, लेकिन पिछले साल उसे सत्ता से हटा दिया गया। हालांकि, पिछले दो वर्ष में इजराइल ने इस नेटवर्क को भारी नुकसान पहुंचाया है। एक समय में ईरान के सबसे शक्तिशाली गैर-सरकारी सहयोगी रहे हिज्बुल्ला को इसरायल ने महीनों तक हमले कर पस्त कर दिया है। लेबनान में इसके हथियारों के भंडार को व्यवस्थित तरीके से निशाना बनाया गया और नष्ट कर दिया गया।
युद्ध का तेजी से विस्तार हो सकता है
साथ ही इस समूह को अपने सबसे प्रभावशाली नेता हसन नसरल्लाह की हत्या से बड़ी मनोवैज्ञानिक और रणनीतिक क्षति हुई। सीरिया में असद सरकार के पतन के बाद ईरान समर्थित मिलिशिया को बड़े पैमाने पर खदेड़ दिया गया है, जिससे ईरान का क्षेत्र में एक और महत्वपूर्ण आधार छिन गया है। हालांकि, ईरान, इराक और यमन में मजबूत प्रभाव बनाए हुए है। इराक में पीएमएफ के पास करीब 2,00,000 लड़ाके हैं, जो कि एक बहुत बड़ी ताकत है। यमन में हूतियों के पास भी इतने ही लड़ाकों का दल है। यदि स्थिति ईरान के लिए अस्तित्व का खतरा बन जाती है, जो कि क्षेत्र में एकमात्र शिया नेतृत्व वाला देश है तो धार्मिक एकजुटता इन समूहों को सक्रिय रूप से शामिल होने के लिए प्रेरित कर सकती है। इससे पूरे क्षेत्र में युद्ध का तेजी से विस्तार होगा। उदाहरण के लिए, पीएमएफ इराक में तैनात 2,500 अमेरिकी सैनिकों पर हमला कर सकता है।
क्या वैश्विक सहयोगी इस लड़ाई में कूदेंगे?
वास्तव में, पीएमएफ के अधिक कट्टरपंथी गुटों में से एक, कताइब हिज्बुल्ला के प्रमुख ने ऐसा करने का वादा किया है। क्या ईरान के क्षेत्रीय और वैश्विक सहयोगी इस लड़ाई में कूदेंगे? कई क्षेत्रीय शक्तियों के ईरान के साथ घनिष्ठ संबंध हैं। इनमें सबसे उल्लेखनीय है पाकिस्तान, जो इकलौता इस्लामिक देश है जिसके पास परमाणु शस्त्रागार है। कई हफ्तों से ईरानी नेता खामेनेई ने गाजा में इसरायल की कार्रवाइयों का मुकाबला करने के लिए पाकिस्तान से नजदीकी बढ़ाने की कोशिश की। इसरायल-ईरान संघर्ष में पाकिस्तान की महत्ता के मद्देनजर ट्रंप ने एशियाई देश के सेना प्रमुख से वाशिंगटन में मुलाकात की है। पाकिस्तान के नेताओं ने भी अपनी निष्ठाएं काफी हद तक स्पष्ट कर दी हैं।
क्या पाकिस्तान ईरान का साथ देगा?
प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ ने ईरान के राष्ट्रपति को ‘‘इसरायल के हमले की सूरत में अटूट एकजुटता’’ की पेशकश की है। पाकिस्तान के रक्षा मंत्री ख्वाजा आसिफ ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा कि इजराइल ‘‘पाकिस्तान से मुकाबला करने से पहले कई बार सोचेगा।’’ हालांकि, पाकिस्तान भी तनाव कम करने के लिए काम कर रहा है। उसने अन्य मुस्लिम बहुल देशों और अपने रणनीतिक साझेदार चीन से आग्रह किया है कि वे हिंसा के व्यापक क्षेत्रीय युद्ध में बदलने से पहले कूटनीतिक हस्तक्षेप करें। हाल के वर्षों में, ईरान ने पूर्व क्षेत्रीय प्रतिद्वंद्वियों सऊदी अरब और मिस्र से भी संबंध सुधारने के प्रयास किए हैं। इन बदलावों से ईरान के लिए व्यापक क्षेत्रीय समर्थन जुटाने में मदद मिली है।
क्या करेंगे 24 मुस्लिम देश
करीब 24 मुस्लिम बहुल देशों ने संयुक्त रूप से इसरायल की कार्रवाई की निंदा की है और उससे तनाव कम करने का अनुरोध किया है, इनमें से कुछ के इसरायल के साथ राजनयिक संबंध भी हैं। हालांकि, यह संभावना नहीं है कि सऊदी अरब, मिस्र, संयुक्त अरब अमीरात और तुर्किये जैसी क्षेत्रीय शक्तियां अमेरिका के साथ अपने मजबूत गठबंधन को देखते हुए ईरान को भौतिक रूप से समर्थन देंगी। ईरान के प्रमुख वैश्विक सहयोगी रूस और चीन ने भी इजराइल के हमलों की निंदा की है।
क्या ईरान में सत्ता परिवर्तन होगा।
उन्होंने पहले भी संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में दंडात्मक प्रस्तावों से तेहरान को बचाया है। बहरहाल, कोई भी देश कम से कम अभी तक ईरान को प्रत्यक्ष सैन्य सहायता प्रदान करके या इसरायल और अमेरिका के साथ गतिरोध में उलझकर टकराव को बढ़ाने के लिए तैयार नहीं दिख रहा है। यदि संघर्ष बढ़ता है और अमेरिका खुले तौर पर तेहरान में सत्ता परिवर्तन की रणनीति अपनाता है तो सैद्धांतिक रूप से यह स्थिति बदल सकती है।
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