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खामेनेई एक मौलवी से ईरान के 'सुप्रीम लीडर' तक का सफर! | यंग भारत न्यूज
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला अली खामेनेई, जो अमेरिका को 'बड़ा शैतान' और इजराइल को 'कैंसर ट्यूमर' मानते हैं, जिनकी हत्या से इजराइल जंग खत्म होने का दावा करता है। लेकिन क्या वाकई उनकी मौत से रुक जाएगी ईरान-इजराइल की जंग? कैसे 11 साल की उम्र में मौलवी बने खामेनेई ने ईरान की सियासत में अपनी पकड़ मजबूत की और एक मौलवी से बने देश के सर्वोच्च नेता? इस स्टोरी में जानिए ईरान के सुप्रीम लीडर खामेनेई के जीवन की अनसुनी कहानियां और क्यों अमेरिका — इज़राइल उनकी जान का प्यासा है।
ईरान के सबसे प्रभावशाली शख्सियतों में से एक, सुप्रीम लीडर खामेनेई, आज अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक ऐसे नेता के तौर पर जाने जाते हैं जो पश्चिमी देशों, खासकर अमेरिका और इजराइल, के खिलाफ अपनी सख्त बयानबाजी के लिए मशहूर हैं। लेकिन एक आम मौलवी से देश के सर्वोच्च धार्मिक और राजनीतिक नेता बनने तक का उनका सफर आसान नहीं रहा। इस सफर में उन्होंने कई हमलों का सामना किया, अपनी जान जोखिम में डाली और ईरान की इस्लामिक क्रांति में एक निर्णायक भूमिका निभाई।
मशहद के धार्मिक माहौल में जन्म और बचपन की संघर्ष
19 अप्रैल 1939 को ईरान के पवित्र शहर मशहद में एक मौलवी के घर सैयद अली खामेनेई का जन्म हुआ। आठ भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर रहे खामेनेई ने चार साल की उम्र से ही पारंपरिक इस्लामी शिक्षा ग्रहण करना शुरू कर दिया था। उनकी आत्मकथा 'सेल नम्बर 14: द ऑटोबायोग्राफी ऑफ अयातुल्लाह खामेनेई' में वह बताते हैं कि कैसे उन्होंने बचपन में ही कुरान, अरबी और इस्लामी तालीम में अपनी पकड़ बनाई। एक स्कूल कार्यक्रम में कुरान की आयतें सुनाकर उन्होंने खूब वाहवाही बटोरी और अपने पिता की तरह मौलवी बनने की ठान ली। महज 11 साल की उम्र में उन्होंने कोम शहर में मौलवी की उपाधि प्राप्त कर ली थी।
जिस दौर में खामेनेई बड़े हो रहे थे, वह ईरान के लिए बदलाव का समय था। शाह मोहम्मद रजा पहलवी का शासन था, जो पश्चिमी विचारों और पंथनिरपेक्षता को बढ़ावा दे रहे थे। ईरान में मॉडलिंग, फिल्में और नाइट क्लब आम थे, और पश्चिमी पहनावा प्रचलन में था। खामेनेई बताते हैं कि कैसे मौलवी की पोशाक पहनकर सड़कों पर खेलने पर उनके हमउम्र बच्चे उनका मज़ाक उड़ाते थे। यह बचपन का अनुभव शायद उनके अंदर पश्चिमी प्रभाव के प्रति एक गहरी असहमति पैदा करने का बीज बो गया था।
पश्चिमीकरण के खिलाफ बगावत और रूहोल्ला खोमैनी शाह का प्रभाव
खामेनेई की राजनीतिक चेतना 1950 के दशक में उस समय जागी जब मुहर्रम के पवित्र महीने में भी सिनेमाघरों और फिल्मों पर से प्रतिबंध हटा दिया गया। इस फैसले ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया और यहीं से उनके भीतर विरोध की चिंगारी भड़की। वह अपनी किताब में लिखते हैं, "यही फैसला हमारे अंदर चिंगारी बनकर भड़का।"
1960 के दशक में ईरान के महान धर्मगुरु रुहोल्ला खोमैनी का खामेनेई पर गहरा असर पड़ा। खोमैनी शाह की नीतियों और उनके 'व्हाइट रिवॉल्यूशन' के मुखर विरोधी थे, जिसे वे इस्लाम और ईरानी संस्कृति के खिलाफ मानते थे। खोमैनी का मानना था कि इस्लाम और राजनीति को अलग नहीं किया जा सकता, और उन्होंने विलायत-ए-फकीह, यानी इस्लामी धर्मगुरुओं के शासन की वकालत की। खामेनेई खोमैनी के विचारों से अत्यधिक प्रभावित हुए और उनके एक समर्पित अनुयायी बन गए।
1962-63 में जब खोमैनी ने शाह के खिलाफ खुला विरोध शुरू किया, तो खामेनेई ने उनकी बातों को मशहद और अन्य शहरों में फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने मशहद की एक मस्जिद में खुलकर कहा, "शाह का शासन इस्लाम और लोगों के खिलाफ है। हमें अपने धर्म और देश की हिफाजत करनी होगी।" इस बयान के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, लेकिन इस गिरफ्तारी ने उन्हें युवाओं और शाह विरोधी आंदोलनों में और अधिक प्रसिद्ध कर दिया। 1970 का दशक आते-आते खामेनेई राजनीति में माहिर हो चुके थे। जब उनके गुरु खोमैनी को देश से निकाल दिया गया, तो खामेनेई ही उनके भाषणों और संदेशों को लोगों तक पहुंचाते रहे, यहाँ तक कि गुप्त टेप के ज़रिए भी।
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इस्लामिक क्रांति और सरकार में भागीदारी
1979 में ईरान में ऐतिहासिक इस्लामिक क्रांति आई और शाह की सरकार का तख्तापलट हो गया। खोमैनी पेरिस से ईरान लौटे और एक नई इस्लामी सरकार का गठन किया। उन्होंने अपने सबसे भरोसेमंद लोगों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया, और खामेनेई को क्रांतिकारी परिषद (रिवॉल्यूशनरी काउंसिल) में शामिल किया गया। इस परिषद ने नई सरकार की नींव रखी और प्रशासन को बेहतर बनाने का काम किया।
तत्कालीन सांसद और बाद में ईरान के राष्ट्रपति बने हसन रूहानी ने संसद में खामेनेई को उप रक्षामंत्री बनाने का प्रस्ताव रखते हुए कहा था कि हमें ऐसे व्यक्ति की जरूरत है जो इस्लामी क्रांति के लिए आगे बढ़ाता रहे और सैन्य मामलों में खोमैनी के नजरिए को बुलंद करे। खामेनेई को उप रक्षामंत्री नियुक्त किया गया और उन्होंने इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर (IRGC) के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। IRGC आगे चलकर ईरान की सबसे शक्तिशाली सेना बनी, जिसका उद्देश्य न केवल बाहरी खतरों से देश की रक्षा करना था, बल्कि धार्मिक, राजनीतिक और आर्थिक मोर्चों पर भी इस्लामी राष्ट्र ईरान की रक्षा करना था।
जानलेवा हमला: खामेनेई का अदम्य साहस
1980 के दशक में ईरान-इराक युद्ध के दौरान, तेहरान के जुमा की नमाज के इमाम अयातुल्ला अली खामेनेई जंग के मोर्चे से लौट रहे थे। 27 जून 1981 को तेहरान की अबुजार मस्जिद में एक कार्यक्रम के दौरान उनके सामने रखी एक टेबल पर एक शख्स ने टेप रिकॉर्डर रख दिया। जैसे ही खामेनेई ने जवाब देना शुरू किया, टेप रिकॉर्डर से एक तेज धमाका हुआ। खामेनेई लहूलुहान हो गए। इस हमले के पीछे फोरकान समूह नाम का एक ईरानी उग्रवादी विपक्षी संगठन था, जिसे सद्दाम हुसैन का समर्थन प्राप्त था। सद्दाम ईरान में खोमैनी की सत्ता पलटना चाहता था और खामेनेई उसके रास्ते में थे।
इस हमले में खामेनेई की दाहिनी बांह, वोकल कॉर्ड्स और फेफड़े को गंभीर नुकसान पहुंचा। कई महीनों के इलाज के बाद वे ठीक तो हुए, लेकिन उनके दाहिने हाथ में हमेशा के लिए लकवा मार गया और एक कान से सुनाई देना बंद हो गया। इस भयावह अनुभव के बाद भी खामेनेई ने अपने अदम्य साहस का परिचय देते हुए कहा, "अगर मेरा दिमाग और जीभ काम करे तो मुझे हाथ की जरूरत नहीं पड़ेगी। मेरे लिए मेरा दिमाग और जीभ काफी है।" यह घटना उनकी दृढ़ता और देश के प्रति उनके समर्पण को दर्शाती है।
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राष्ट्रपति पद की ओर: सत्ता में अचानक वृद्धि
30 अगस्त 1981 को तेहरान में प्रधानमंत्री कार्यालय में एक बम धमाके में राष्ट्रपति मोहम्मद अली राजाई और प्रधानमंत्री मोहम्मद जवाद बहरोन की मौत हो गई। इस घटना ने ईरान की सरकार को मुश्किल में डाल दिया। देशभर में नए राष्ट्रपति की मांग जोर पकड़ने लगी। इस समय तक खामेनेई इस्लामिक रिपब्लिकन पार्टी (IRP) के बड़े नेताओं में शुमार हो चुके थे। खोमैनी और IRP के नेताओं ने नए राष्ट्रपति के लिए खामेनेई का नाम आगे किया। अकबर हाशमी राफसंजानी ने खामेनेई का नाम बढ़ाते हुए कहा कि सैयद अली खामेनेई ने क्रांति के लिए अपनी जान जोखिम में डाली है और वे खोमैनी के भरोसेमंद आदमी हैं, जो इस मुश्किल वक्त में देश की कमान संभाल सकते हैं।
खोमैनी ने भी इस बात का समर्थन करते हुए कहा, "हमें ऐसे नेताओं की जरूरत है जो इस्लामिक रिपब्लिक ईरान की हिफाजत करें। खामेनेई ने बार-बार यह साबित किया है।" 2 अक्टूबर 1981 को देशभर में राष्ट्रपति के चुनाव हुए और 13 अक्टूबर को नतीजे आए। खामेनेई ने 95% वोटों से जीत दर्ज की और ईरान के तीसरे राष्ट्रपति बने। शपथ लेते हुए उन्होंने कहा, "मैं इस्लामी क्रांति की हिफाजत और जनता की सेवा के लिए अपनी जान भी दे दूंगा।"
'रहबर' बनने के लिए संविधान में बदलाव
1985 में रहबर अयातुल्ला रुहोल्लाह खोमैनी ने हुसैन अली मोंतजरी को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था, लेकिन बाद में किसी बात से नाराज होकर यह फैसला वापस ले लिया। 3 जून 1989 को खोमैनी का निधन हो गया, जिसके बाद अगली सुबह 'असेंबली ऑफ एक्सपर्ट्स' की बैठक शुरू हुई। राष्ट्रपति खामेनेई ने खोमैनी की 35 पन्नों की वसीयत पढ़ी।
इसके बाद अगले रहबर को लेकर चर्चा शुरू हुई। प्रस्ताव रखा गया कि एक नेतृत्व परिषद बनाई जाए या एक व्यक्ति को पूरी कमान सौंपी जाए। वोटिंग हुई तो 'एक व्यक्ति' के पक्ष में 45 वोट आए, जबकि 23 खिलाफ। जब यह तय हो गया कि एक व्यक्ति को ही ईरान की कमान सौंपी जानी चाहिए, तो ग्रैंड अयातुल्ला मोहम्मद-रजा गोलपायगानी और अली खामेनेई ने नामांकन किया। वोटिंग में खामेनेई को 60 वोट मिले, जबकि गोलपायगानी को महज 14 वोट। इस तरह खामेनेई अगले रहबर चुन लिए गए।
हालांकि, 'रहबर' बनने के लिए यह ज़रूरी था कि व्यक्ति 'मरजा' या 'अयातुल्ला' हो। इस नियम को खत्म करने के लिए ईरानी संविधान में संशोधन किया गया। 6 अगस्त 1989 को फिर से असेंबली ऑफ एक्सपर्ट्स की बैठक हुई और खामेनेई को 64 में से 60 वोट मिले। इस बदलाव ने खामेनेई के सर्वोच्च नेता बनने का रास्ता साफ कर दिया। अमेरिकी थिंकटैंक 'कार्नेगी एंडोमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस' के सीनियर फेलो करीम सादजादपुर के अनुसार, "इतिहास की इस दुर्घटना ने एक कमजोर राष्ट्रपति को शुरुआत में कमजोर सुप्रीम लीडर से सदी के पांच सबसे शक्तिशाली ईरानियों में से एक बना दिया।"
फ्लोरिडा इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में पॉलिटिक्स और इंटरनेशनल रिलेशंस के एसोसिएट प्रोफेसर एरिक लोब ने भी कहा, "1989 में ईरानी संविधान में संशोधन किया गया ताकि खामेनेई जैसे निचली श्रेणी के मौलवी को यह पद मिल सके। खोमैनी का उत्तराधिकारी बनने के बाद खामेनेई को रातों-रात एक महान अयातुल्ला बना दिया गया। खामेनेई भले ही लंबे समय से वफादार और सत्ता के अंदरूनी व्यक्ति थे, लेकिन उनमें खोमैनी जैसा करिश्मा और धार्मिक ताकत नहीं थी।" इन बदलावों के बावजूद, खामेनेई ने अपनी दूरदर्शिता, दृढ़ता और राजनीतिक सूझबूझ से देश की कमान संभाली और ईरान को अंतरराष्ट्रीय मंच पर एक मजबूत स्थिति में पहुंचाया।
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खामेनेई की नीतियां और विवाद
खामेनेई के नेतृत्व में ईरान ने कई महत्वपूर्ण बदलाव देखे हैं। उन्होंने देश में विरोधियों को कुचलने, पत्रकारों को प्रताड़ित करने, कट्टरपंथ को बढ़ावा देने और महिलाओं की आजादी को खत्म करने जैसे आरोपों का सामना किया है। उनके शासनकाल में ईरान में धार्मिक कानूनों का कड़ाई से पालन कराया गया है और पश्चिमी प्रभाव को कम करने का प्रयास किया गया है। इन नीतियों के कारण उन्हें अक्सर आलोचकों और मानवाधिकार संगठनों के निशाने पर रहना पड़ता है।
इजराइल और अमेरिका क्यों हैं खामेनेई की जान के पीछे?
इजराइल और ईरान के बीच दशकों से चला आ रहा संघर्ष अब चरम पर है। हाल के दिनों में दोनों देशों के बीच खूनी संघर्ष ने दुनिया भर में चिंता बढ़ा दी है। इस संघर्ष के केंद्र में सुप्रीम लीडर खामेनेई हैं। इज़राइल के दो प्रमुख मकसद हैं: ईरानी न्यूक्लियर प्रोग्राम को खत्म करना और इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कोर (IRGC) को निष्क्रिय करना। इजराइल का मानना है कि इन दोनों लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए खामेनेई की हत्या आवश्यक है, क्योंकि वही ईरान की हर महत्वपूर्ण नीति और दुनिया के लिए उसके रुख पर अंतिम निर्णय लेते हैं।
न्यूक्लियर प्रोग्राम और IRGC: इजराइल के लिए सबसे बड़ा खतरा
इजराइल ने ईरान के न्यूक्लियर प्लांट्स पर हवाई हमले किए हैं और सैन्य ठिकानों पर स्ट्राइक करके IRGC के टॉप कमांडर्स को निशाना बनाया है। इसके बावजूद, खामेनेई ने लगातार नए सैन्य अधिकारियों को नियुक्त किया है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वे अपनी नीतियों पर अटल हैं। इजराइल का मानना है कि खामेनेई के रहते ईरानी न्यूक्लियर प्रोग्राम और IRGC को पूरी तरह से खत्म करना असंभव है। वे यह भी मानते हैं कि उनकी हत्या से ईरान में सत्ता परिवर्तन होगा, जिससे देश की विदेश नीति में बदलाव आ सकता है।
सत्ता परिवर्तन और उत्तराधिकार का सवाल
खामेनेई के निधन के बाद नए 'रहबर' का चुनाव इतना आसान नहीं होगा। हालांकि, कई मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया जा रहा है कि खामेनेई ने अपने दूसरे बेटे मुजतबा खामेनेई को अपना उत्तराधिकारी चुन लिया है, और ईरानी असेंबली ऑफ एक्सपर्ट्स ने भी इस पर मुहर लगा दी है। इसके अलावा, पूर्व राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी, पूर्व न्यायपालिका प्रमुख सादिक लारीजानी और मौजूदा राष्ट्रपति हसन रूहानी जैसे नाम भी इस दौड़ में शामिल बताए जाते हैं।
अगर ईरान में सत्ता परिवर्तन होता है, तो इस्लामिक क्रांति के बाद देश छोड़कर भागे ईरान के पूर्व शाह के बेटे रजा पहलवी अपने पिता की गद्दी पर दावा कर सकते हैं। वे अभी अमेरिका में हैं और उन्होंने ईरान पर हो रहे इजराइली हमलों का समर्थन किया है। ट्रम्प के चुनाव जीतने के बाद रजा पहलवी ने एक इंटरव्यू में कहा था कि ईरान में लोकतांत्रिक सत्ता वापस आनी चाहिए, जो पश्चिमी देशों के साथ समृद्ध होगा, इजराइल के साथ शांतिपूर्ण रिश्ते रखेगा और अपने पड़ोसियों से दोस्ती करेगा। यह दिखाता है कि खामेनेई के बाद ईरान की राजनीतिक दिशा में एक बड़ा बदलाव आ सकता है, जिसका सीधा असर मध्य पूर्व की स्थिरता पर पड़ेगा।
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इजराइल-ईरान की रंजिश की जड़ें
इजराइल और ईरान के बीच की रंजिश के कई गहरे कारण हैं:
खामेनेई ने अमेरिका, इजराइल और पश्चिमी देशों के खिलाफ 'मजहबी राष्ट्रवाद' को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया है। उन्होंने इराक, सीरिया, लेबनान और यमन में एक मिलिटेंट नेटवर्क खड़ा किया है, जिसे 'एक्सिस ऑफ रेसिस्टेंस' कहा जाता है।
ईरान ने इजराइल के अस्तित्व को कभी स्वीकार नहीं किया है और फिलिस्तीन के मुद्दे का कट्टर समर्थन किया है। खामेनेई के नेतृत्व में ईरान ने इजराइल के खिलाफ हिजबुल्लाह, हूती और हमास जैसे मिलिटेंट नेटवर्क को खड़ा करके 'प्रॉक्सी वॉर' छेड़ रखी है।
इसके अलावा, खामेनेई ने ईरान के न्यूक्लियर प्रोग्राम को धीमा किया है, लेकिन उसे खत्म नहीं किया। इसके जरिए उन्होंने अमेरिका, इजराइल और पश्चिमी देशों पर दबाव बनाए रखा है। ईरानी न्यूक्लियर प्रोग्राम को इजराइल अपने लिए सबसे बड़ा खतरा मानता है।
समय-समय पर ईरान और इजराइल के बीच 'शैडो वॉर' यानी पर्दे के पीछे सैन्य और साइबर हमले होते रहे हैं, जो इस दुश्मनी को और गहरा करते हैं।
ईरान दुनिया का सबसे शक्तिशाली शिया देश है। खामेनेई की कमान में मध्य-पूर्व में ईरान का दबदबा बढ़ा है। ऐसे में उनकी मौत से न केवल मध्य-पूर्व का भविष्य बदल सकता है, बल्कि दुनिया भर पर इसका असर पड़ सकता है।
अमेरिकी थिंकटैंक मिडिल-ईस्ट इंस्टीट्यूट में ईरान प्रोग्राम के डायरेक्टर एलेक्स वतांका ने कहा है, "खामेनेई जितने जिद्दी हैं, उतने ही सतर्क भी हैं। यही वजह है कि वह इतने लंबे समय से सत्ता के केंद्र में बने हुए हैं।"
क्या आपको लगता है कि सुप्रीम लीडर खामेनेई के बाद ईरान में सत्ता परिवर्तन से मध्य-पूर्व में शांति आएगी, या संघर्ष और गहराएगा? अपनी राय हमें कमेंट करके बताएं।
क्या ईरान कभी फारस यानी पर्सिया था, आखिर कैसे फारस एक इस्लामी देश ईरान बन गया। क्या है इसके पीछे की असल सच्चाई। अगले भाग में पढ़िए आखिर कैसे फारस बन गया ईरान कहां गए असली पर्सियन यानी फारसी?
Iran Israel Conflict | Iran Israel Conflict Explained | Iran Israel war explained |