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नई दिल्ली , वाईबीएन डेस्क । दुनिया के दो देशों के बीच अगर किसी विवाद को लेकर तनातनी बढ़ जाए, तो दुनिया के अधिकांश देश चाहते हैं कि महाशक्ति कहा जाने वाला देश अमेरिका, उनके पक्ष में खड़ा हो जाए। या यूं कहें कि जब भी किसी देश पर संकट आता है तो उसकी नजर अमेरिका की ओर जरूर जाती है। इन देशों को भरोसा होता है कि अमेरिका का साथ खड़ा होना ही, उनका पलड़ा भारी कर देगा।
किसी प्राकृतिक आपदा की स्थिति में आर्थिक मदद और किसी युद्ध की स्थिति में सामरिक मदद । इसके साथ ही अमेरिका कूटनीतिक और रणनीतिक मदद भी करता है, लेकिन पिछले कुछ समय में , रूस – यूक्रेन और इजरायल - ईरान के बीच हुए युद्ध में अमेरिकी की कथनी और करनी में जो अंतर नजर आया, उसने साफ कर दिया कि अमेरिका भले ही कहता कुछ हो , लेकिन उसकी करनी ‘अमेरिकी फर्स्ट’ को देखते हुए ही तय होती है। हाल के दिनों में इजरायल – ईरान युद्ध के बीच एक बार फिर से सवाल उठ रहा है कि क्या अमेरिकी मदद वाकई बिना शर्त होती है? या यह सिर्फ ‘अमेरिका फर्स्ट’ की आड़ में अपने हित साधने की रणनीति?
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यूक्रेन के बाद अब इजरायल...
बता दें कि रूस और यूक्रेन के बीच बढ़ते गतिरोध के दौरान अमेरिकी प्रशासन ने यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की को इस कदर मदद देने का आश्वासन दिया था कि वह रूस के आगे झुके न। इस आश्वासन की आड़ में यूक्रेन – रूस से भिड़ गया, लेकिन अमेरिका ने मदद करने के साथ ही अमेरिकी फर्स्ट की नीति को अपना। अमेरिका ने यूक्रेन को हथियारों से तो मदद की, लेकिन इस युद्ध में अपने सैनिक नहीं उतारे, जबकि वह यूक्रेन को लगातार युद्ध के लिए उकसाता भी रहा, जिसके चलते इतने लंबे समय से दोनों देशों के बीच युद्ध जारी है।
हालांकि अमेरिका ने इस दौरान यूक्रेन को 130 अरब डॉलर की आर्थिक मदद की है, लेकिन अपने सैनिक यूक्रेन के साथ युद्ध में नहीं उतारे। इसी क्रम में अब इजरायल की बात करें तो अमेरिकी प्रशासन ने यूक्रेन जैसी नीति ही इजरायल भी लागू की। ईरान इजरायल के बीच जारी सैन्य कार्रवाइयों के बीच अमेरिका इजरायल को सामरिक मदद देता तो नजर आ रहा है , लेकिन वह कई बार की हड़कियां देने के बावजूद ईरान के खिलाफ अपने सैनिक नहीं उतार रहा। ऐसे में इजरायल को काफी नुकसान भी सहना पड़ा है।
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अमेरिकी मदद सिर्फ हथियारों और पैसों की
बता दें कि रूस द्वारा फरवरी 2022 में जब यूक्रेन पर हमला किया, तो उस दौरान अमेरिका में बाइडन की सरकार थी। रूस से युद्ध के दौरान अमेरिका ने यूक्रेन को अब तक 130 अरब डॉलर से ज्यादा की सैन्य और आर्थिक मदद दी। जो बाइडेन की इस आर्थिक मदद ने रूस – यूक्रेन के बीच जारी युद्ध को लंबा खींच दिया। इस बीच यह बात साफ हो गई कि अमेरिका ने अपने सैनिक नहीं भेजे, उसकी यूक्रेन को मदद सिर्फ हथियारों और आर्थिक सहयोग तक ही सीमित थी।
आखिर सैनिकों को क्यों नहीं उतारा अमेरिका ने
रूस के साथ यूक्रेन के भीड़ जाने के दौरान अमेरिका के वादों और जमीनी हकीकत के बीच बड़ा अंतर यह रहा कि अमेरिका ने मदद सिर्फ हथियार और पैसों तक सीमित रखी। सैनिकों के रूप में नहीं। यूक्रेन को रूस के खिलाफ लड़ाई सिर्फ अपनी सेनाओं पर ही निर्भर होकर लड़नी पड़ी और अभी भी पड़ रही है। रूस – यूक्रेन युद्ध जब शुरू हुआ उस दौरान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन थे।
अमेरिका ने उस दौरान यूक्रेन को हथियारों के साथ पैसे से मदद तो की, लेकिन अपने सैनिक रूस के खिलाफ नहीं उतारे। कुछ समय पहले अमेरिका में ट्रंप सत्ता में लौटे और आते ही उन्होंने बड़ा बयान दिया कि अगर वह सत्ता में होते तो रूस-यूक्रेन युद्ध होता ही नहीं। हालांकि इससे पहले अमेरिका ने यूक्रेन को हथियार और पैसा देकर मदद तो की, पर सीधे सैनिक न भेजने की नीति उनकी पहले दिन से ही स्पष्ट थी। यह अमेरिका की विदेश नीति की स्थायी लाइन है — 'अमेरिका फर्स्ट' यानी खुद के सैनिकों की जान को खतरे में नहीं डालना।
असल में, अमेरिका के भीतर जनता और कई सांसद लगातार सरकार की दूसरे देशों में हो रहे युद्ध को लेकर अमेरिका की नीति पर सवाल उठा चुके हैं। लोग और जनता के चुने हुए प्रतिनिधि नहीं चाहते कि अमेरिका अफगानिस्तान और इराक युद्ध जैसे महंगी सैन्य कार्रवाईयों से सबक न ले। ट्रंप के समय से अमेरिका की नीति रही है: ‘America First’ - यानी विदेशी युद्धों में सीधे सैनिक फंसाने से बचना। बाइडेन प्रशासन ने भी इसी नीति को नए स्वरूप में रखा कि हथियार देंगे, पैसा देंगे, ट्रेनिंग देंगे — पर जवान नहीं भेजेंगे।
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अमेरिका के पीछे हटने का एक बड़ा कारण ये भी
यह सब जानते हैं कि रूस दुनिया की सबसे बड़ी परमाणु शक्ति में से एक है। अगर अमेरिका अपने सैनिक सीधे युद्ध में उतार देता, तो रूस इसे NATO बनाम रूस की सीधी लड़ाई मान लेता। इससे तीसरे विश्व युद्ध और परमाणु हथियारों के इस्तेमाल का खतरा पैदा हो सकता था। इतना ही नहीं यूक्रेन NATO का सदस्य नहीं है। NATO के अनुच्छेद 5 के तहत केवल सदस्य देश पर हमला होने पर सब मिलकर रक्षा करते हैं। अब क्योंकि यूक्रेन NATO में नहीं है, इसलिए NATO (और अमेरिका) पर सैनिक भेजने की कानूनी बाध्यता नहीं थी।
यूक्रेन से क्या लाभ उठाया
इस सबके बीच पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की के बीच व्हाइटहाउस से कुछ तस्वीरें और वीडियो सामने आए। इनमें दोनों के बीच काफी गर्मागर्म बहस हुई। ट्रंप रूस-यूक्रेन के युद्ध को खत्म करने के लिए मध्यस्तता करने की जुगत में थे, लेकिन बातों बातों में माहौल इतना खराब हो गया कि जेलेंस्की को व्हाइट हाउस से जाने के लिए कह दिया गया। इसके बाद नजर आई अमेरिकी की कूटनीति।
इस विवाद के बाद जेलेंस्की के साथ ट्रंप की रूस- यूक्रेन युद्ध को लेकर भले ही काफी बातें फिर से शुरू हुई हों, लेकिन सामने आई अमेरिका और यूक्रेन के बीच एक बड़ी खनिज डील। 30 अप्रैल 2025 को अमेरिका ने यूक्रेन पर दबाव बनाते हुए एक डील की, जिसके अनुसार, अब यूक्रेन के खनिज पर अमेरिका को तरजीह मिलेगी। इन खनिजों से होने वाली आय का एक हिस्सा, आने वाले समय में यूक्रेन को फिर से खड़ा करने में किया जाएगा, जो रूस के साथ युद्ध के चलते काफी खराब स्थिति में पहुंच गया है।
हालांकि इस डील अमेरिकी कूटनीति का एक हिस्सा बताया गया। बता दें कि यूक्रेन में रेयर अर्थ समेत कई अहम खनिज और प्राकृतिक संसाधन हैं। अमेरिकी जियोलॉजिकल सर्वे का मानना है कि 50 खनिज क्रिटिकल मिनरल्स हैं। इनमें निकेल और लीथियम जैसे रेयर अर्थ भी शामिल हैं, जो अमेरिका को बड़ा आर्थिक लाभ पहुंचाएंगे।
इजरायल मामले में क्या है अमेरिकी नीति
बता दें कि इज़राइल को लेकर ट्रंप ने हमेशा खुद को ‘सबसे बड़ा दोस्त’ बताया है। 2017 में ट्रंप प्रशासन ने यरुशलम को इजरायल की राजधानी के तौर पर मान्यता दी थी, जिसे एक ऐतिहासिक फैसला कहा गया था। हाल में गाजा और ईरान के तनाव पर ट्रंप ने कहा था — “अगर मैं राष्ट्रपति होता तो ईरान इतनी हिम्मत नहीं करता।”
ट्रंप ने अपनी चुनावी सभाओं में इजरायल को ‘पूर्ण मदद’ देने की बात तो कही — लेकिन सत्ता में रहते हुए भी उन्होंने कभी सैनिक नहीं भेजे, सिर्फ कूटनीतिक समर्थन ही दिया। पूर्व की बाइडेन सरकार ने तो इजरायल को रॉकेट डिफेंस सिस्टम और अरबों डॉलर के हथियार पैकेज देने की घोषणा की थी, जिसे लेकर अमेरिका के कई सांसदों और मानवाधिकार समूहों ने गाजा में नागरिकों की मौत पर सवाल उठाए।
बहरहाल, यूक्रेन की तरह की अमेरिका ने इजरायल को भी हर मंच पर साथ देने का भरोसा दिलाया — पर हमला होने पर अमेरिका सीधे युद्ध में नहीं उतरा। जानकार कहते हैं कि अमेरिका का एक अलिखित कानून है, जिसमें वह वादे तो पूरे करेंगे लेकिन युद्ध की स्थिति में अपने जवानों को भेजना उनके सबसे अंतिम विकल्प हो सकता है।
क्या कहते हैं अमेरिका मामलों के जानकार
इस मुद्दे पर अमेरिकी मामलों के जानकारों की राय लगभग एक जैसी ही है। जानकारों का कहना है कि यूक्रेन हो या इजरायल, अमेरिका की मदद सीमित और शर्तों वाली होती है।
ट्रंप हों या बाइडेन, दोनों का फोकस यही है कि अमेरिका के हित पहले सुरक्षित रहें। अमेरिका पहले अपने लोगों और अपने टेक्स पेयर्स को ध्यान में रखता है और उन्हीं को ध्यान में रखते हुए अपनी रणनीतियां बनाता है। इसलिए कहा जा सकता है कि अमेरिका के ‘मित्र’ देशों को उसके हर वादे पर आंख मूंदकर भरोसा नहीं करना चाहिए। संकट के वक्त अमेरिका अपनी जनता, अपना बजट और अपनी कूटनीति पहले देखता है - यही है अमेरिका फर्स्ट की असली तस्वीर।
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