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LACHHUMAHARAJ Photograph: (IANS)
मुंबई। लच्छू महाराज, बनारस के महान तबला वादक, भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया में अपनी अद्वितीय कला के लिए प्रसिद्ध थे। उनके हाथों की ताल ने संगीत प्रेमियों को मंत्रमुग्ध कर दिया। न केवल शास्त्रीय मंचों पर, बल्कि उन्होंने फिल्मों में भी अपने संगीत का जादू बिखेरा, जिससे श्रोताओं के दिलों में छाप छोड़ी। महाराज साहब की तकनीक और लयबद्धता उन्हें विशिष्ट बनाती थी। उनके योगदान ने तबला वादन को नई ऊंचाइयों पर पहूंचाया और युवा कलाकारों के लिए प्रेरणा का स्रोत बना। उनकी विरासत आज भी संगीत जगत में जीवित है।
बनारस के महान तबला वादक
भारतीय संगीत जगत में प्रसिद्ध तबला वादक पंडित लच्छू महाराज का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। वे एक ऐसे कलाकार थे जिन्होंने अपनी कला की गहराई से न केवल भारत बल्कि विदेशों में भी अपना नाम रोशन किया। वह केवल एक महान तबला वादक ही नहीं थे, बल्कि उनकी जिंदगी का एक और पक्ष था, जो कम लोगों को पता है। वह था उनका मुंबई के फिल्मी पर्दे से जुड़ाव।
एक सितारे की तरह चमके
वहीं फिल्मों में तबला बजाने वाले कलाकारों की भीड़ में वह अपनी अलग पहचान बनाकर एक सितारे की तरह चमके। फिर भी उन्होंने खुद को कभी फिल्मों का कलाकार नहीं माना, बल्कि एक सच्चे संगीत साधक के रूप में देखा, जो संगीत को दिल से जीते और समझते थे। इस पहलू ने उनकी कला को और भी खास बना दिया।
लच्छू महाराज का जन्म 16 अक्टूबर 1944 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी में हुआ था। उनका असली नाम लक्ष्मी नारायण सिंह था, लेकिन संगीत की दुनिया में वे लच्छू महाराज के नाम से जाने गए। उनके पिता का नाम वासुदेव महाराज था। उनके परिवार में कुल 12 भाई-बहन थे। लच्छू महाराज चौथे नंबर के थे। बचपन से ही उन्हें संगीत का काफी शौक था।उन्होंने तबला वादन की शिक्षा अपने चाचा पंडित बिंदादीन महाराज से प्राप्त की, जो खुद एक कुशल संगीतज्ञ थे। उनके गुरु से मिली सख्त और परिष्कृत प्रशिक्षण ने लच्छू महाराज को तबला वादन की बारीकियों में पारंगत बना दिया। इसके अलावा, उन्होंने पखवाज और हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की भी गहरी समझ विकसित की। उनकी मेहनत और लगन के कारण जल्दी ही वे बनारस घराने के प्रमुख तबला वादक बन गए।
फिल्मी सफर
मुंबई आने के बाद लच्छू महाराज ने अपनी कला को फिल्मों तक पहुंचाया। 1949 में 'महल' फिल्म में तबला वादन के साथ उनका फिल्मी सफर शुरू हुआ। इसके बाद वे 'मुगल-ए-आजम' (1960), 'छोटी-छोटी बातें' (1965), 'पाकीजा' (1972) जैसी कई फिल्मों में तबला वादन करते नजर आए। इन फिल्मों की धुनों में उनकी तबला की थाप ने जान डाल दी और संगीत प्रेमियों का दिल जीत लिया। हालांकि, फिल्मों के इस चमकदार मंच पर होने के बावजूद, लच्छू महाराज ने कभी खुद को सिर्फ एक फिल्मी कलाकार के रूप में नहीं देखा। वे हमेशा खुद को एक संगीत साधक मानते थे, जिनके लिए संगीत आत्मा की आवाज थी, न कि सिर्फ दर्शकों का मनोरंजन।
देश-विदेश मेंअपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया
उन्होंने कई बड़े संगीत समारोहों में देश-विदेश में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया। 1972 में उन्हें भारत सरकार द्वारा पद्मश्री पुरस्कार के लिए नामित किया गया, लेकिन उन्होंने इसे स्वीकार नहीं किया। उनका कहना था कि श्रोताओं की तालियां और प्यार ही कलाकार के लिए सबसे बड़ा पुरस्कार है।
प्रेरणादायक सफर
लच्छू महाराज का जीवन केवल संगीत तक ही सीमित नहीं था। उनका परिवार भी कला और मनोरंजन से जुड़ा था। उनकी बहन निर्मला देवी गोविंदा की मां थीं, जो बॉलीवुड के प्रसिद्ध अभिनेता हैं। लच्छू महाराज ने फ्रांस की महिला टीना से शादी की और उनकी एक बेटी नारायणी है।
मुंबई के फिल्मी पर्दे से लेकर विश्व के बड़े मंचों तक, उनका सफर काफी प्रेरणादायक था। 27 जुलाई 2016 को उनका निधन हार्ट अटैक के चलते हुआ। उन्होंने अपनी कला से संगीत प्रेमियों के दिलों में अमिट छाप छोड़ी है।
(इनपुट-आईएएनएस)