लखनऊ, वाईबीएन संवाददाता
आज यानि 22 मई को उर्दू साहित्य, समाज सुधार और महिला जागरूकता की पुरोधा मुहम्मदी बेगम की जन्मतिथि पर पसमांदा मुस्लिम समाज के राष्ट्रीय अध्यक्ष और पूर्व मंत्री अनीस मंसूरी ने उन्हें याद करते हुए कहा कि "मुहम्मदी बेगम सिर्फ एक नाम नहीं, बल्कि भारतीय समाज की पसमांदा और वंचित तबकों की महिलाओं के आत्मसम्मान, शिक्षा और हक की पहली मज़बूत आवाज़ थीं।
तीस साल की उम्र में लिखी 30 किताबें
अनीस मंसूरी ने कहा कि उन्होंने जिस दौर में महिला अधिकारों की बात की, वह दौर पर्दे, पाबंदी और परंपराओं की जंजीरों से जकड़ा हुआ था। उस दौर में तहज़ीब-ए-निस्वान जैसी पत्रिका निकालना अपने आप में एक बगावत थी – एक रौशनी थी, जो आज तक राह दिखा रही है।" अनीस मंसूरी ने आगे कहा कि मुहम्मदी बेगम ने महज़ 30 साल की उम्र में तीस किताबें लिखकर यह साबित कर दिया कि महिला यदि शिक्षित हो और सामाजिक बदलाव की इच्छाशक्ति रखती हो, तो वह सदियों पुरानी परंपराओं को झकझोर सकती है। उनकी रचना ‘शरीफ़ बेटी’ आज भी बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं पर सबसे सशक्त आलोचना है।
मोहम्मदी बेगम के साहित्यों को स्कूलों तक पहुंचाने की मांग
मंसूरी ने कहा, “मुहम्मदी बेगम ने पसमांदा समाज की उस घुटन को शब्द दिए, जिसकी चर्चा तक उस समय मुमकिन नहीं थी। आज जब हम पसमांदा आंदोलन को सामाजिक न्याय की बुनियाद पर मज़बूत करने की कोशिश कर रहे हैं, तो हमें मुहम्मदी बेगम जैसी पूर्वजों से प्रेरणा लेनी चाहिए।”अनीस मंसूरी ने पसमांदा समाज से आह्वान किया कि मुहम्मदी बेगम के साहित्य और कार्यों को स्कूलों, मदरसों और सामुदायिक केंद्रों में पहुँचाया जाए, ताकि लड़कियों को प्रेरणा मिले और वे शिक्षा के ज़रिए आत्मनिर्भर बनें।
आज की महिलाओं को अपने अंदर की मोहम्मदी बेगम को होगा पहचानना
उन्होंने कहा कि मुहम्मदी बेगम ने सिर्फ अशराफ महिलाओं की नहीं, बल्कि पसमांदा और तमाम वंचित तबकों की नारियों की आवाज़ बुलंद की थी। यह हमारी जिम्मेदारी है कि उनकी उस क्रांतिकारी सोच को आज की पीढ़ी तक पहुँचाएं। अंत में अनीस मंसूरी ने कहा कि “मुहम्मदी बेगम की विरासत पसमांदा समाज की बहनों-बेटियों के लिए मशाल है। आज उनका यौमे पैदाइश एक अवसर है – अपने अंदर की मुहम्मदी बेगम को पहचानने का, और पसमांदा नारी जागरूकता की अलख को और ऊँचा करने का।”
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