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UP News : अदालती कार्यवाही में अनावश्यक हस्तक्षेप न करें वकील : हाईकोर्ट

हाई कोर्ट ने कहा है कि न्याय, न्यायालय में अधिवक्ताओं की दोहरी जिम्मेदारियों को रेखांकित करता है। उन्हें मुवक्किलों के हितों का निष्ठापूर्वक प्रतिनिधित्व व देखभाल करनी चाहिए, वहीं उनका यह कर्तव्य भी है कि वह कोर्टरूम में सम्मानजनक वातावरण बनाए रखें।

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Vivek Srivastav
24 aug 14

प्रतीकात्‍मक Photograph: (सोशल मीडिया)

लखनऊ, वाईबीएन संवाददाता। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने आदेश होने के बाद भी बहस जारी रखने वाले अधिवक्ता की निंदा की है और कहा है कि वकीलों की भूमिका दोहरी होती है, वे अपना कर्तव्य निभाएं। न्यायमूर्ति कृष्ण पहल की एकल पीठ ने कहा,  'न्याय, न्यायालय में अधिवक्ताओं की दोहरी जिम्मेदारियों को रेखांकित करता है। उन्हें एक तरफ  मुवक्किलों के हितों का निष्ठापूर्वक प्रतिनिधित्व और देखभाल करनी चाहिए, वहीं उनका यह भी कर्तव्य है कि वह न्यायालय कक्ष में सम्मानजनक और अनुकूल वातावरण बनाए रखें। अधिवक्ताओं को अदालती कार्यवाही में व्यवधान उत्पन्‍न करने के बजाय न्यायालय की सहायता करनी चाहिए।' हमीरपुर निवासी नरेंद्र सिंह की दूसरी जमानत अर्जी खारिज करते हुए एकल पीठ ने यह टिप्पणी की। आरोपित के खिलाफ थाना मझगवां में यौन उत्पीड़न का केस दर्ज है।

वकील द्वारा ठीक से व्याख्या नहीं की गई

जनवरी 2025 से जेल में बंद आवेदक के अधिवक्ता ने कहा कि एफआइआर में लगभग नौ दिन की देरी हुई है और इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं है। प्राथमिकी के आरोपों को पीड़िता ने बीएनएसएस की धारा 180 के तहत दर्ज बयान में दोहराया है, लेकिन बाद में बीएनएसएस की धारा 183 के तहत आरोपों को बढ़ा दिया गया है। पीड़िता लगभग 47 वर्ष की है और घटना की चिकित्सकीय पुष्टि नहीं हुई है। कुल चार मामले दर्ज हैं, जिनमें यह भी है। अन्य में जमानत मिल चुकी है। एजीए ने जमानत आवेदन का विरोध करते हुए कहा कि आपराधिक इतिहास में उल्लिखित दो मामलों की ठीक से व्याख्या नहीं की गई है। कोर्ट ने माना कि आपराधिक इतिहास की अपीलार्थी के वकील द्वारा ठीक से व्याख्या नहीं की गई है, इसलिए मामला जमानत के लिए उपयुक्त नहीं है। 

कोर्ट ने कहा, 'अपीलार्थी के अधिवक्ता तत्काल जमानत आवेदन पर जोर देने के लिए नया आधार तो नहीं बता सके, लेकिन इस बात पर अड़े रहे कि मामला जमानत का है। खुली अदालत में आदेश पारित होने के बाद भी न केवल मामले पर बहस जारी रखी, बल्कि कार्यवाही में व्यवधान भी डाला। ऐसा व्यवहार न्यायालय की आपराधिक अवमानना है, क्योंकि यह न्यायिक प्रक्रिया के अधिकार और मर्यादा को कमजोर करता है, लेकिन यह कोर्ट अवमानना कार्यवाही शुरू करने से परहेज कर रहा है। किसी भी वादी को आदेश पारित होने के बाद न्यायालय की कार्यवाही में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं दी जा सकती। आवेदक के वकील का यह रवैया निंदनीय है।' इससे पहले भी न्यायमूर्ति कृष्ण पहल की यह टिप्पणी चर्चा में रही थी कि सूचीबद्ध मामलों में अधिवक्ताओं का अदालत में उपस्थित न होना व्यावसायिक कदाचार तथा बेंच हंटिंग या फोरम शॉपिंग जैसा है।

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