शाहजहांपुर वाईबीएन संवाददाता । 1857 की क्रांति में शाहजहांपुर यकायक उस समय राष्ट्रीय क्रांति का केंद्र बन गया जब मौलवी अहमद उल्लाह शाह अपने 12 हजार क्रांतिकारी सिपाहियों के साथ यहां पहुंचे। ब्रिटिश शासन के लिए वे सबसे खतरनाक क्रांतिकारियों में गिने जाते थे। सरकार ने उनके जिंदा या मुर्दा पकड़े जाने पर ₹50,000 का इनाम घोषित किया था। मौलवी पहले ही लखनऊ के पास चिनहट की लड़ाई में अंग्रेजों को मात दे चुके थे। ऐसा भी माना जाता है कि 'रोटी-कमल योजना' जैसी गुप्त रणनीति भी उन्हीं के दिमाग की उपज थी। जनमानस में मौलवी की छवि रहस्यमयी थी वे हाथी पर सवार होते और उनके आगे-आगे एक डंका बजता चलता था। इसी कारण वे 'डंका शाह' के नाम से प्रसिद्ध हो गए थे।
तोपों की गरज और जेल पर नौ दिन का घेरा
मौलवी अवध से मोहमदी होते हुए शाहजहांपुर पहुंचे थे। उनकी योजना की भनक लगते ही अंग्रेज अधिकारी कर्नल हेल ने शाहजहांपुर गैरिसन की सुरक्षा के निर्देश दिए। गहरी खाइयां खुदवाई गईं, तोपें अंदर कर ली गईं और अनाज जमा किया गया। 2 मई 1857 को मौलवी की सेना ने हमला बोला। चर्च के पास ब्रिटिश अफसर डी. कांटाजो घायल हुए। क्रांतिकारियों ने जेल के सामने तोपें तान दीं और नौ दिन तक गोले दागे गए। जेल परिसर (जो उस समय कैंट क्षेत्र में था) कांप उठा। पुरानी नाल की तोपें ज़रूर कमजोर पड़ीं लेकिन क्रांतिकारियों ने गैरिसन पर कब्जा कर लिया। अंग्रेज सेना हिल चुकी थी।
ब्रिटिश सेना की घेराबंदी भी न कर सकी असर
कमांडर इन चीफ कैम्पबेल ने तत्काल ब्रिगेडियर जॉन जोन्स के नेतृत्व में सेना भेजी, लेकिन मौलवी की रणनीति के कारण वह शहर में प्रवेश नहीं कर सकी। गुर्री चौकी के पास सेना रुकी रही। 18 मई को जब कैम्पबेल खुद शाहजहांपुर पहुंचे, तब तक मौलवी रणनीति से शहर छोड़ चुके थे। निर्णायक युद्ध अभी बाकी था...यह समस्त विवरण शाहजहांपुर के इतिहास पर आधारित पुस्तक अद्भुत शाहजहांपुर (लेखक: विकास खुराना) से लिया गया है।
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