कानपुर, वाईबीएन संवाददाता।
कानपुर देहात। जिले में भाजपा कई सालों से दो खेमे में बटी है। यह दिनोंदिन मजबूत हो रही है। जिलाध्यक्ष के चुनाव में इसकी कई बानगी देखने को मिली। अब पिछड़े वर्ग की महिला रेणुका सचान को जिलाध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंपी गई है। उनके सामने दोनों खेमे के बीच संतुलन बैठाने की बड़ी चुनौती होगी।
दोनों खेमों के मंसूबों पर फिरा पानी
भारतीय जनता पार्टी का कार्यकर्ता चाहता था कि ऐसा व्यक्ति जिलाध्यक्ष बने जिस पर किसी के नाम की मोहर न लगी हो। पार्टी ने लगभग वैसा ही कर दिया। हालाकि पार्टी के इस फैसले पर कई पुराने कार्यकर्ता सवाल भी खड़े कर रहे हैं। यह अलग बात है कि वह नए जिलाध्यक्ष का स्वागत भी कर रहे हैं। भाजपा में तगड़ी गुटबाजी लंबे समय से चल रही है। संगठन और चुनाव परिणाम की चिंता न कर ये खद्दरधारी हर समय अपना झंडा बुलंद करने पर फोकस करते दिखते हैं। ऐसा ही पिछले कई वर्षों से हर कोई देख रहा है। पार्टी में जिलाध्यक्ष के चुनाव की बारी आई तो तमाम दावेदार सक्रिय हो गए। निर्वतमान जिलाध्यक्ष मनोज शुक्ला को लेकर जिले के एक माननीय खूब जोर लगाए थे। उनके समर्थक भी खूब बयानबाजी कर रहे थे लेकिन पार्टी का फैसला आने पर उनमें खमोशी छा गई है, जबकि दूसरा खेमा मनोज के नाम का जबरदस्त विरोध करता रहा, क्योंकि मनोज शुक्ला पर एक खेमे की मुहर लगी है। दूसरा खेमा जिसे चाह रहा था उसे बनाने में वह भी सफल नहीं हो सका। पार्टी ने महिलाओं और पिछड़े वर्ग को समाहित करने के लिए जिले में महिला रेणुका सचान को जिम्मेदारी सौंप कर सबको चौंका दिया।
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झंडा बुलंद करने वाले हो गए ठंडे
लोकसभा चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन बेहद खराब रहा। गुटबाजी के चलते ही चार लोकसभा सीट से जुड़ी अलग अलग चारों विधानसभा क्षेत्र में पार्टी की हार हो गई। अब रेणुका सचान के सामने चुनौती होगी कि वह जिले में गुटबाजी खत्म करके निर्विवाद संगठन खड़ा करें। इसके बाद दोनों खेमे के बीच संतुलन बनाकर गुटबाजी के असर को खत्म करें लेकिन दोनों खेमों को साथ लेकर चलना भी बड़ी चुनौती है। ऐसा बहुत कम ही संभव दिख रहा है। पार्टी नेतृत्व ने दोनों खेमे के माननीयों को मायूस कर दिया है। दोनों पक्ष के कार्यकर्ता जो अपने नेता का झंडा बुलंद कर रहे थे उनकी आवाज भी अब शांत है।
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लड़ते रहे खेमे, दांव चल गया किसी और का
भाजपा में दो खेमे हर कोई जानता है लेकिन एक पक्ष ऐसा है जिसके साथ सगंठन के पूर्व पदाधिकारी और माननीय अधिकांश दूर भागते हैं, जबकि दूसरे पक्ष के साथ कुछ माननीय समय के अनुसार खड़े हो जाते हैं। कहा जाए तो इन दोनों खेमों से कई माननीय भी खुश नहीं है। कई पुराने कार्यकर्ता कहते हैं कि खेमेबंदी की इस लड़ाई में दूसरे दल से इंट्री मारने वाले एक माननीय का दांव जिलाध्यक्ष के चुनाव में सफल हो गया। मूछें ऊंची करने का दंभ भरने वाले अब सन्नाटे में हैं।