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Explainer : बिहार विधानसभा चुनाव 2025 में कहां है AAP? इन 5 वजहों से बैकफुट पर हैं केजरीवाल! | यंग भारत न्यूज Photograph: (YBN)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । “लोभ सकल पापन्ह कर मूला, करइं पाप नर होइ अकूला॥” श्रीरामचरित मानस में तुलसी दास जी ने उत्तरकांड के दोहा 44 में लिखा है कि “लोभ सकल पापन्ह कर मूला, करइं पाप नर होइ अकूला॥” यानि लोभ सभी पापों की जड़ है, लोभी व्यक्ति अंत में संकट में पड़ता ही जाता है। वाकई आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल पर सटीक बैठती प्रतीत हो रही है।
आइए Young Bharat News के इस Explainer में समझते हैं कि आज पूरे देश में बिहार की राजनीति और चुनाव छाई हुई है और केजरीवाल कहां हैं पता नहीं है। केजरीवाल और उनके सलाहकारों की वो 5 बड़ी गलतियां जिन्होंने आम आदमी पार्टी की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को देश की राजनीति से सिर्फ बाहर ही नहीं किया है बल्कि पिछलग्गू पार्टी बना दिया है।
आम आदमी पार्टी AAP की कहानी भारतीय राजनीति में एक meteoric rise और फिर एक नाटकीय गिरावट की गाथा है। जिस पार्टी का जन्म देश में भ्रष्टाचार को जड़ से उखाड़ फेंकने के संकल्प के साथ हुआ था, आज वही पार्टी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरी है। एक समय था जब अरविंद केजरीवाल की छवि 'परिवर्तन' के प्रतीक के रूप में देखी जाती थी। दिल्ली में अभूतपूर्व जीत और पंजाब में सत्ता हासिल करने के बाद, ऐसा लगा कि 'आप' राष्ट्रीय राजनीति का अपरिहार्य हिस्सा बन जाएगी, लेकिन आज स्थिति बिल्कुल उलट है।
अब सवाल ये है कि 2013-14 में देश को हिला देने वाली यह 'आंदोलन' की पार्टी, 2024 में आते-आते अपनी चमक क्यों खो बैठी? बिहार चुनाव हो या 'इंडिया' गठबंधन से दूर हटना, ये संकेत देते हैं कि केजरीवाल की रणनीति उन्हें राष्ट्रीय पटल से दूर धकेल रही है।
5 बड़ी वजहें आसमान से ज़मीन पर आने का सफ़र
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पार्टी की गिरावट के पीछे पांच मूलभूत और घातक गलतियां हैं। ये गलतियां केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक और संगठनात्मक भी हैं, जिन्होंने पार्टी के मूल चरित्र को ही बदल दिया।
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वजह 1: भ्रष्टाचार से समझौता – जिस थाली में खाया, उसी में छेद किया
'आप' की बुनियाद ही लोकपाल आंदोलन पर टिकी थी। जनता को लगा था कि ये नेता सत्ता में आएंगे और भ्रष्टाचार खत्म होगा। लेकिन जब पार्टी के शीर्ष नेता, उप-मुख्यमंत्री तक, गंभीर भ्रष्टाचार के आरोपों में घिरे, तो जनता का विश्वास टूटा। शराब नीति घोटाला यह शायद सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट रहा। जिस पॉलिसी को खत्म करने का वादा था, उसी में अनियमितताओं के आरोपों ने केजरीवाल की नैतिक उच्चता को खत्म कर दिया।
नैतिकता का पतन: यह केवल आरोप नहीं थे, बल्कि पार्टी का नैतिक ढुलमुल रवैया भी था। जिन नेताओं पर सवाल उठे, उनका समर्थन करना और उन्हें 'ईमानदार' का प्रमाण पत्र देना, कार्यकर्ताओं के लिए सबसे बड़ा झटका था।
गठबंधन की मजबूरी: इसके अलावा, खुद भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से घिरे अन्य नेताओं या पार्टियों से राजनीतिक लाभ के लिए गठबंधन करना, पार्टी के मूल सिद्धांतों से पूरी तरह विश्वासघात था। यह कार्यकर्ताओं और समर्थकों को यह बताने में विफल रहा कि उनका आंदोलन आखिर किस दिशा में जा रहा है।
क्या आप जानते हैं? पार्टी के कई पुराने कार्यकर्ताओं ने खुलकर कहा कि अब 'आप' और पारंपरिक पार्टियों में कोई अंतर नहीं रहा।
वजह 2: पार्टी में 'मनमानी' बनाम 'लोकतंत्र' – कार्यकर्ताओं का घोर अपमान
'आप' का दावा था कि यह एक अलग तरह की पार्टी होगी, जहां कार्यकर्ताओं की आवाज़ सुनी जाएगी। लेकिन हकीकत में, केजरीवाल की शख्सियत और उनके इर्द-गिर्द केंद्रित कोर टीम की 'मनमानी' ने आंतरिक लोकतंत्र को खत्म कर दिया। स्थापना काल के नेताओं का निष्कासन प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव जैसे संस्थापक सदस्यों को बाहर का रास्ता दिखाना, यह दर्शाता है कि पार्टी में असहमति Dissent के लिए कोई जगह नहीं थी।
कार्यकर्ताओं की उपेक्षा: जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं को नज़रअंदाज़ किया गया। टिकट वितरण से लेकर महत्वपूर्ण निर्णयों तक, उन्हें दरकिनार किया गया।
महिला सांसद का अपमान: पार्टी की वरिष्ठ और जमीन से जुड़ी महिला सांसद को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने की खबरें आईं। यह पार्टी के अंदर महिलाओं के प्रति सम्मान और आंतरिक पारदर्शिता पर बड़ा सवाल खड़ा करता है, जिससे महिला वोटर्स का भरोसा डगमगाया।
एक नेता-केंद्रित पार्टी Leader-Centric Party का उदय हुआ, जिसने आंदोलन को संगठन से ऊपर रखा। संगठन कमजोर हुआ और आंदोलन की आग ठंडी पड़ गई।
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वजह 3: लोकपाल का 'हवाई' वादा और चुनावी घोषणापत्र का बोझ
लोकपाल 'आप' का जन्म प्रमाण पत्र था। लेकिन सत्ता में आने के बाद, इस वादे को पूरा करने की गति धीमी रही। लोकपाल पार्टी का मुख्य एजेंडा था, उसे हकीकत में लाने के बजाय, यह केवल एक चुनावी जुमला बनकर रह गया। जनता ने महसूस किया कि वादों और इरादों में बड़ा अंतर है।
फ्रीबी पॉलिटिक्स पर अत्यधिक निर्भरता: 'आप' ने 'बिजली-पानी मुफ्त' की राजनीति पर अत्यधिक फोकस किया, जिससे पार्टी की छवि 'सिर्फ मुफ्तखोरी वाली पार्टी' की बन गई। इस वजह से, पार्टी के वैचारिक और राष्ट्रीय मुद्दे गौण हो गए, जो इसे राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता दिलाने में विफल रहे।
वजह 4: 'बाहरी' धनपशुओं को टिकट – पूंजीवाद का प्रवेश
'आप' ने हमेशा 'पैसे वाले लोगों' और 'वोट के बदले नोट' की राजनीति का विरोध किया। लेकिन समय के साथ, टिकट वितरण में बाहरी धनपशुओं का प्रभाव बढ़ने लगा।
योग्यता पर धन हावी: कई मौकों पर, साफ छवि और लंबी मेहनत वाले कार्यकर्ताओं के बजाय, पैसे और प्रभाव वाले लोगों को टिकट दिया गया। यह पार्टी की पारदर्शिता और नैतिक मानकों पर एक बड़ा दाग था।
विचारधारा से भटकाव: यह कदम स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि पार्टी ने विचारधारा को छोड़, सत्ता हासिल करने के लिए पूंजीवादी मॉडल को अपनाना शुरू कर दिया, जो इसे मूल समर्थकों की नज़रों में गिरा गया।
वजह 5: 'तुष्टिकरण' की राजनीति का आरोप – संतुलन खोना
राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता पाने के लिए पार्टी को सभी समुदायों का समर्थन चाहिए था, लेकिन उसकी रणनीति ने उसे ध्रुवीकरण की राजनीति के घेरे में ला दिया।
मुस्लिमों का स्पष्ट समर्थन: कुछ मौकों पर पार्टी ने ऐसे बयान और कदम उठाए जिन्हें आलोचकों ने 'मुस्लिम तुष्टिकरण' बताया। जबकि यह ज़रूरी था कि पार्टी सभी समुदायों को समान रूप से साथ लेकर चले।
हिंदुओं की उपेक्षा का आरोप: इसके विपरीत, कई हिंदू मतदाताओं ने महसूस किया कि पार्टी ने उनकी चिंताओं और मुद्दों को नज़रअंदाज़ किया है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ RSS और भाजपा के मजबूत हिंदुत्व एजेंडे के सामने, 'आप' खुद को 'सॉफ्ट हिंदुत्व' या 'सर्व धर्म समभाव' के तौर पर स्थापित करने में नाकाम रही। इस असंतुलन ने 'आप' की राष्ट्रीय महत्वाकांक्षा को नुकसान पहुंचाया, खासकर हिंदी बेल्ट में जहां धर्म एक बड़ा चुनावी कारक है।
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AAP की उत्पत्ति से उपलब्धि तक सफ़र एक नज़र में
उत्पत्ति: 2011 में अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से जन्म। 'स्वराज' और 'जन लोकपाल' मुख्य नारे।
शुरुआती सफलता: 2013 में दिल्ली में पहली बार सत्ता हासिल की। 49 दिन की सरकार से लेकर 2015 में 67 सीटें जीतकर ऐतिहासिक वापसी।
अभूतपूर्व उपलब्धि: पंजाब में पूर्ण बहुमत से जीत हासिल करना। राष्ट्रीय पार्टी बनने की ओर बड़ा कदम।
पतन की शुरुआत: 2023 में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप, शीर्ष नेताओं की गिरफ्तारी और राष्ट्रीय स्तर पर चुनावी विफलता।
इंडिया गठबंधन में 'साइडलाइन' होने का सच: बिहार चुनाव से 'आप' का अकेले चुनाव लड़ना और 'इंडिया' गठबंधन से दूर हो जाना उसकी कमजोर स्थिति की एक ही कहानी बयां करती है।
विश्वास की कमी: गठबंधन के अन्य दल, खासकर कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियां, 'आप' पर पूरी तरह भरोसा नहीं कर पा रही हैं। उन्हें लगता है कि केजरीवाल केवल दिल्ली और पंजाब के हितों को प्राथमिकता देंगे।
राष्ट्रीय चेहरा बनने में विफलता: केजरीवाल खुद को नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर पेश करने की कोशिश में थे, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों ने उनकी छवि को कमज़ोर किया।
ताकत का कम होना: पंजाब में मिली जीत के बावजूद, राष्ट्रीय राजनीति में 'आप' की उपस्थिति सीमित है। यह उसकी ताकत को कम करता है, जिसके कारण गठबंधन में उसे 'साइडलाइन' होना पड़ा है।
अब क्या है 'AAP' का भविष्य?
अरविंद केजरीवाल के पास अब दो रास्ते हैं या तो पार्टी को केवल एक क्षेत्रीय दल दिल्ली और पंजाब केंद्रित बनाए रखना या फिर अपने मूल सिद्धांतों की ओर लौटना। अगर 'आप' को राष्ट्रीय राजनीति में प्रासंगिक बने रहना है तो उसे अपनी गिरती नैतिक साख को बहाल करना होगा। उसे आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करना होगा और कार्यकर्ताओं की उपेक्षा को खत्म करना होगा।
भ्रष्टाचार के खिलाफ 'जीरो टॉलरेंस' की नीति को सिर्फ भाषणों में नहीं, बल्कि अपने आचरण में भी उतारना होगा। क्या 'आप' अपनी गलतियों से सीख लेगी? यह सवाल ही तय करेगा कि भारतीय राजनीति में इस पार्टी का भविष्य क्या होगा।
फिलहाल, यह साफ है कि केजरीवाल की महत्वाकांक्षा पर लगे ब्रेक ने इस पार्टी को उसके जन्म के उद्देश्य से बहुत दूर ला खड़ा किया है।
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