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Explainer: कहानी उस 'चारा घोटाले में हुई लूट' की जिसने बदल दी बिहार की पूरी राजनीति

बिहार के 950 करोड़ के 'चारा घोटाले' की क्राइम कथा कैसे लालू प्रसाद यादव और कई नेताओं-अधिकारियों ने फर्जी बिलों से सरकारी खजाना लूटा। जानें कैसे हुआ 1996 में खुलासा, CBI जांच, 20 ट्रकों में सबूत, सीएम की कुर्सी बदलना और लालू को 14 साल की सज़ा।

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Ajit Kumar Pandey
Explainer: कहानी उस 'चारा घोटाले में हुई लूट' की जिसने बदल दी बिहार की पूरी राजनीति | यंग भारत न्यूज

Explainer: कहानी उस 'चारा घोटाले में हुई लूट' की जिसने बदल दी बिहार की पूरी राजनीति | यंग भारत न्यूज Photograph: (YBN)

नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क ।बिहार में विधानसभा चुनाव का ऐलान हो चुका है। सबसे बड़ी बात है कि इस चुनाव में मुद्दा भ्रष्टाचार, शुचिता और तमाम ऐसे शब्द सुनने को मिल रहे हैं। अगर बिहार की बात हो और उसमें लालू प्रसाद भी चुनावी मैदान हों तो बिहार में हुए सबसे बड़ा सरकारी घोटाला चारा घोटाला की चर्चा करना लाज़िमी हो जाता है। इस घोटाले ने बिहार स्टेट की राजनीति को पलट कर रख दिया था। 

बिहार के 'चारा घोटाला' को आज भी देश के सबसे बड़े सरकारी भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधीकरण के उदाहरण के रूप में देखा जाता है। 950 करोड़ रुपये के इस महाघोटाले ने न सिर्फ सरकारी खजाने को लूटा, बल्कि एक मुख्यमंत्री की कुर्सी छीन ली और लालू प्रसाद यादव, जगन्नाथ मिश्रा समेत कई बड़े नेताओं व सैकड़ों अधिकारियों को जेल के चक्कर लगवाए। 

20 ट्रकों में भरे सबूत और लंबी कानूनी लड़ाई- Young Bharat News के इस एक्सप्लेनर में जानिए कैसे शुरू हुआ यह खेल और क्या रहा इसका अंजाम। साथ ही बिहार का 'चारा घोटाला' कैसे हुआ 950 करोड़ का महा-गबन? 

बिहार के इतिहास में ऐसा घोटाला शायद ही कभी हुआ हो, जिसने राजनीति, नौकरशाही और न्यायपालिका तीनों को हिलाकर रख दिया हो। यह सिर्फ सरकारी पैसों की चोरी नहीं थी, बल्कि उस सिस्टम का पर्दाफाश था जो दशकों से बेईमानी पर टिका था। 'चारा घोटाला' के नाम से मशहूर यह मामला 950 करोड़ रुपये के गबन का था, जिसने बिहार की राजनीति का रुख ही बदल दिया। 

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यह कहानी बताती है कि जब सत्ता और सिस्टम साथ मिल जाएं, तो जनता का पैसा कैसे लूटा जा सकता है। 

1992 में पहली फुसफुसाहट जब एक ईमानदार अफसर को मिली सजा 

साल 1992 में सतर्कता विभाग के निरीक्षक विभू भूषण द्विवेदी ने अपनी रिपोर्ट में मुख्यमंत्री स्तर तक संलिप्तता की बात कही थी। लेकिन जांच के बजाय द्विवेदी को ही सजा मिली। उनका तबादला कर दिया गया और बाद में उन्हें निलंबित भी कर दिया गया। 

ये दिखाता है कि सिस्टम शुरुआत से ही इसे दबाने की कोशिश कर रहा था। हालांकि, बाद में अदालत के आदेश से वह बहाल हुए और इस मामले में गवाह बने। फाइलें दबी रहीं, लेकिन 'चारे' की फर्जी बिलिंग जारी थी। 

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फिर आया वो दिन, जिसने सारे राज खोल दिए... 

साल 1996 में हुआ सबसे बड़ा खुलासा एक युवा डीसी ने खोला 'राज' 

जनवरी 1996 में रांची उस समय बिहार के युवा उपायुक्त DC अमित खरे ने चाईबासा कोषागार में अचानक छापा मारा। वहां मिले दस्तावेजों ने बिहार के सबसे बड़े वित्तीय घोटाले का पर्दाफाश कर दिया। जांच में सामने आया कि फर्जी बिलों, काल्पनिक पशुओं और झूठे सप्लायर्स के ज़रिए करोड़ों रुपये सरकारी खजाने से निकाले गए थे। इस बात की गवाही वो दस्तावेज दे रहे थे, जो छापा-मारी के दौरान बरामद किए गए थे। 

मीडिया ने किया सनसनीखेज खुलासा राष्ट्रीय सुर्खियों में आया घोटाला 

चाईबासा की कार्रवाई के बाद, बिहार के स्थानीय पत्रकार रवि एस. झा ने पहली बार इस घोटाले को राष्ट्रीय सुर्खियों में ला दिया। उनकी रिपोर्ट में यह साफ था कि सिर्फ अधिकारी ही नहीं, बल्कि नेताओं तक की इसमें संलिप्तता है। इस खुलासे ने सारे घोटाले की पोल खोलकर रख दी। उन्होंने दिखाया कि कैसे सरकारें और ठेकेदार मिलकर बिहार के संसाधनों की लूट कर रहे थे। मामला सिर्फ एक जिले का नहीं था। 

इस घोटाले की आंच पटना तक पहुंची और फिर सीबीआई की एंट्री हुई... 

पटना हाईकोर्ट का आदेश और CBI को जांच मामला मीडिया से लेकर सियासी गलियारों तक गर्मा चुका था। लोग हैरान थे कि इतने बड़े स्तर पर खेल कैसे हुआ। जनता के दबाव और अदालत की निगरानी में मार्च 1996 में पटना हाईकोर्ट ने केस की जांच CBI को सौंप दी। जांच शुरू होते ही कई बड़े नाम सामने आए, जिनमें तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव, पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा और कई IAS अधिकारी शामिल थे। धीरे-धीरे घोटाले का दायरा 50 से ज़्यादा केसों तक फैल गया। 

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लालू प्रसाद यादव पर मुकदमे की इजाजत: अब पूरे मामले की जांच की ज़िम्मेदारी CBI के पास थी। लिहाजा, 10 मई 1997 को CBI ने राज्यपाल से लालू प्रसाद यादव पर मुकदमा चलाने की अनुमति मांगी। बिहार के तत्कालीन राज्यपाल एआर किदवई ने सबूतों को देखकर इसकी इजाज़त दे दी। इसी बीच लालू के करीबी अधिकारी और मंत्री भी जांच के घेरे में आ गए। 

गिरफ्तारी की नौबत आते ही लालू प्रसाद यादव ने एक ऐसा राजनीतिक दांव चला, जिसने बिहार के सीएम की कुर्सी बदल दी। 

कुर्सी गई, पत्नी बनीं मुख्यमंत्री सत्ता का बड़ा बदलाव 

जैसे ही गिरफ्तारी की नौबत आई, लालू प्रसाद यादव ने 5 जुलाई 1997 को अपनी नई पार्टी राष्ट्रीय जनता दल RJD बनाई और अलग दल से अलग हो गए। 25 जुलाई को उन्होंने सीएम पद से इस्तीफा दिया और अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का नया मुख्यमंत्री बना दिया। 

लालू के इस कदम ने बिहार की राजनीति में एक नया अध्याय खोल दिया। 

जेल और मुकदमों का सिलसिला, 20 ट्रकों में सबूत 

साल 1997 में लालू प्रसाद यादव को पहली बार गिरफ्तार किया गया और उन्हें रांची जेल में रखा गया। इसके बाद 1998 और 2000 में उन्हें फिर अलग-अलग मामलों में गिरफ्तार किया गया। जगन्नाथ मिश्रा को भी बार-बार जेल और अदालत के चक्कर लगाने पड़े। जांच इतनी पुख्ता चल रही थी कि कोर्ट में सबूतों के अंबार लग गए थे। 20 ट्रकों में लादकर अदालत के सामने दस्तावेज़ पेश किए गए थे। 

आय से अधिक संपत्ति का मामला 

साल 1998 में लालू प्रसाद यादव और उनकी पत्नी राबड़ी देवी पर आय से अधिक संपत्ति रखने का केस दर्ज हुआ। उन पर आरोप था कि उन्होंने सरकारी खजाने से 46 लाख रुपये की अवैध संपत्ति बनाई। हालांकि, साल 2006 में CBI की विशेष अदालत ने दोनों को इस मामले में बरी कर दिया था, लेकिन यह मामला राजनीतिक रूप से बेहद असरदार साबित हुआ। 

अदालत में लंबी-चौड़ी लड़ाई और लालू को सजा 

वक्त का पहिया तेज़ी से घूम रहा था। साल 2000 के बाद से चारा घोटाले से जुड़े 53 मामलों में सुनवाई शुरू हुई। मई 2013 तक 44 केसों का निपटारा हो चुका था। करीब 500 से ज़्यादा आरोपी पाए गए। लालू प्रसाद यादव को विभिन्न मामलों में कुल 14 साल की सज़ा हुई। 

सितंबर 2013 रांची की CBI अदालत ने लालू प्रसाद यादव को पहले मामले में दोषी ठहराया, जिसमें उनकी लोकसभा सदस्यता चली गई और वह चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित हो गए। यह बिहार की राजनीति के लिए एक बड़ा झटका था। 

6 जनवरी 2018 को साढ़े तीन साल की कैद के साथ-साथ उन पर 5 लाख का जुर्माना भी लगाया गया। लालू प्रसाद यादव को कुछ मामलों में सज़ा हुई और कुछ मामलों में सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में अपीलें लंबित हैं। स्वास्थ्य को देखते हुए उनकी जमानत मंज़ूर कर ली गई। कुछ फैसलों के दौरान अदालतों ने उन्हें अस्पताल में देखभाल के दौरान ज़मानत दी। 

जगन्नाथ मिश्रा का अंजाम: बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्रा का अगस्त 2019 में निधन हो गया। उनका करियर विवादों से भरा रहा क्योंकि उनका नाम चारा घोटाले में आया था। वह पहले दोषी पाए गए लेकिन बाद में कोर्ट ने उन्हें सबूतों के अभाव में बरी कर दिया था। 

सिर्फ एक-दो जिलों तक सीमित नहीं था घोटाला 

950 करोड़ की लूट का पैमाना जांच के मुताबिक, चारा घोटाला सिर्फ एक-दो जिलों तक सीमित नहीं था। चाईबासा, चाईबासा कोषागार, डोरंडा, देवघर, दुमका व झारखंड उस समय बिहार के अन्य हिस्सों से सरकारी खजाने से करोड़ों रुपये नकली बिलों और काल्पनिक पशुपालन सामग्री के नाम पर निकाले गए। 

डोरंडा ट्रेजरी मामला: करीब 600 गवाहों की गवाही रिकॉर्ड हुई और 50000 पन्नों से ज़्यादा दस्तावेज़ सबूत के तौर पर पेश किए गए थे। इस केस में 124 आरोपियों में से 89 दोषी पाए गए और 35 को बरी किया गया। 

राजनीति पर गहरा असर 'जंगलराज' और विश्वासघात: इस घोटाले ने न सिर्फ बिहार की छवि को धूमिल किया बल्कि सरकारी योजनाओं में जनता के भरोसे को भी तोड़ा। यह मामला 'जंगलराज' और राजनीतिक संरक्षण के प्रतीक के रूप में देखा गया। 

किसानों और पशुपालकों तक सरकारी मदद पहुंचने की जगह भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गई। आज भले ही इस मामले में कई दोषियों को सज़ा मिल चुकी है, लेकिन गबन की गई रकम का बड़ा हिस्सा अब तक वापस नहीं आया है। 

चारा घोटाला आज भी भारत में सरकारी भ्रष्टाचार और राजनीतिक अपराधीकरण का सबसे बड़ा उदाहरण माना जाता है। 

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