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बिहार चुनाव 2025: पीछे छूट रहा कैश, कॉस्ट, करप्शन! क्या ध्रुवीकरण का 'फाइनल खेल' शुरू? | यंग भारत न्यूज Photograph: (YBN)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । बिहार चुनाव 2025 में अब विकास नहीं, 'ध्रुवीकरण' निर्णायक मोड़ पर कैश, कॉस्ट, करप्शन के मुद्दे अचानक गायब हो गए हैं, और चर्चा अब मुस्लिम डिप्टी सीएम, बुर्का और वक्फ बोर्ड पर केंद्रित है। सवाल है, क्या यह चुनावी दांव 80 सीटों का समीकरण पलट देगा? बिहार चुनाव 2025 में विकास से हटकर 'पहचान' की राजनीति का मुद्दा क्यों हावी हो रहा है?
बिहार की चुनावी बिसात पर अचानक पासा पलटता हुआ प्रतीत हो रहा है। जिस चुनाव की शुरुआत सड़क, बिजली, पानी, और सबसे बढ़कर, रोजगार के वादों से हुई थी, वह अब तेजी से हिंदू-मुस्लिम, बुर्का और वक्फ बोर्ड कानून जैसे ध्रुवीकरण वाले मुद्दों की ओर मुड़ गया है। ऐसा लगता है जैसे नेताओं ने महसूस कर लिया है कि बिना 'नाम लिए' यानी बिना पहचान की राजनीति किए, नैया पार नहीं होगी।
यह खेल सिर्फ वोट साधने का नहीं है, बल्कि मतदाताओं को उनके रोजमर्रा के मुद्दों से भटकाकर एक 'इमोशनल हुक' से जोड़ने का है। सवाल है यह है कि अभी भी 'जंगलराज' का डर क्यों है? और जो विपक्ष सुरक्षा की गारंटी क्यों नहीं दे पा रहा है? अचानक एजेंडे के केंद्र में 'मुसलमान' क्यों आ गए? मतदान में बुर्का क्यों आया, तेजस्वी यादव अब क्यों कहने लग कि वक्फ कानून को फाड़कर फेंक देंगे, क्या सियासी विसात दरक रही है। आइए इन सभी सवालों के जवाब यंग भारत न्यूज के एक्सप्लेनर में तलाशते हैं।
बिहार में मुस्लिम आबादी लगभग 19 परसेंट है, लेकिन चुनावी राजनीति में उनका महत्व इस संख्या से कहीं ज्यादा है। ये वोटर खासकर सीमांचल पूर्णिया, किशनगंज, मगध गया, जहानाबाद, और कोशी मधुबनी जैसे क्षेत्रों की लगभग 80 सीटों पर सीधा असर डालते हैं। साल 2020 में, महागठबंधन को मुस्लिम वोटों का ​करीब 70% मिला था, जिसने उन्हें 75 सीटों पर जीत दिलाई। यही कारण है कि हर पार्टी— चाहे NDA हो या महागठबंधन— इस वोट बैंक को साधने या तोड़ने की कोशिश में फिर से जुट गए हैं।
| क्षेत्र | मुस्लिम आबादी (अनुमानित) | प्रभावित सीटें (लगभग) |
| सीमांचल | 30-40% | 24 |
| मगध | 20-30% | 20 |
| कोशी | 25-35% | 15 |
| अन्य | 10-20% | 21 |
अगर AIMIM जैसी पार्टियां 10-15 सीटों पर मजबूत सेंध लगाती हैं, तो मुस्लिम वोट विभाजित होंगे। इससे सीधा फायदा NDA को होगा। यह गणित सभी पार्टियों के लिए 'ध्रुवीकरण' को एक जरूरी उपकरण बना देता है।
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मुस्लिम डिप्टी सीएम का 'चुनावी संग्राम'
यह मुद्दा इस चुनाव का सबसे बड़ा 'चुंबकीय केंद्र' बन गया है। वर्षों से बिहार की राजनीति में यादव, पासवान और ठाकुरों का दबदबा रहा है, लेकिन 19% मुसलमानों के पास कोई सर्वमान्य 'मुस्लिम नेता' नहीं है।
कौन क्या कह रहा है?
असदुद्दीन ओवैसी AIMIM: उनका सीधा सवाल है कि 19% आबादी के पास अपना कोई प्रभावी नेतृत्व क्यों नहीं है? वह इस समुदाय के लिए राजनीतिक हिस्सेदारी की मांग कर रहे हैं।
राशिद अल्वी कांग्रेस: उन्होंने खुलकर कहा कि 19% वोट को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, इसलिए बिहार में एक मुस्लिम को उप-मुख्यमंत्री बनना ही चाहिए।
तेजस्वी यादव RJD: उन्होंने 'मुस्लिम चेहरे' की संभावना से इनकार नहीं किया है। यह बयान महागठबंधन के भीतर मुस्लिमों को एकजुट रखने का एक सीधा प्रयास है।
चिराग पासवान: उन्होंने अपने पिता स्वर्गीय राम विलास पासवान का उदाहरण देकर कहा कि उनके लिए मुसलमान सिर्फ वोट बैंक हैं। यह आरोप महागठबंधन के वोट बैंक में सेंध लगाने की रणनीति है।
RJD और कांग्रेस पर JDU के प्रवक्ता महेश दास का आरोप है कि ये पार्टियां हिस्सेदारी की बात करती हैं, लेकिन पद की बारी आने पर 'परिवार' पहले आता है। यह एक तीखा आरोप है, जो मुस्लिम समुदाय को यह सोचने पर मजबूर करता है कि उनका 'वोट' सिर्फ किसी परिवार को सत्ता में लाने का जरिया तो नहीं?
बुर्का बनाम घूंघट 'पहचान' पर बहस
वोटिंग के समय 'बुर्का' पहनने वाली महिलाओं की पहचान पर सवाल उठाया गया है। यह बहस ध्रुवीकरण की राजनीति को एक नया आयाम देती है।
बहस का सार: "अगर पहचान की जांच 'घूंघट' हटाकर की जा सकती है, तो फिर 'बुर्का' हटाकर क्यों नहीं? देश सबके लिए समान है।"
नेताओं का तर्क है कि बुर्के की आड़ में फर्जी मतदान हो सकता है, और यह गरीबों के वोट डालने के अधिकार को छीनने जैसा है। जबकि कुछ का कहना है कि बुर्के का मुद्दा धार्मिक स्वतंत्रता और पहचान से जुड़ा है।
इस बयानबाजी का उद्देश्य साफ है हिंदू और मुस्लिम वोटरों के बीच एक समानांतर रेखा खींचना, जहां 'बुर्का' एक प्रतीक बन जाता है। यह मुद्दा ग्रामीण मतदाताओं के मन में सुरक्षा और समानता की भावना को उत्तेजित करता है।
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'नमक हराम' और वक्फ बोर्ड का दांव
ध्रुवीकरण की भाषा: इस चुनाव में अप्रत्याशित रूप से कठोर हो गई है। केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह का अरवल रैली में दिया गया बयान इसका सबसे बड़ा उदाहरण है।
गिरिराज सिंह का बयान: "मुस्लिम केंद्र की योजनाओं का लाभ लेते हैं, लेकिन भाजपा को वोट नहीं देते। ऐसे नमक हराम का वोट नहीं चाहिए।"
कांग्रेस और RJD ने इसे नफरत भरी और विभाजनकारी भाषा बताया है।
तेजस्वी यादव RJD: उन्होंने कहा है कि अगर उनकी सरकार बनी तो वह वक्फ बोर्ड कानून को खत्म कर देंगे या बिहार में लागू नहीं होने देंगे।
वक्फ बोर्ड कानून मुस्लिमों की संपत्ति और धार्मिक स्थलों से जुड़ा एक संवेदनशील कानूनी मुद्दा है।
इस तरह के बयानबाजी का सीधा असर मतदाताओं के एक बड़े हिस्से पर पड़ता है। यह उनके दिमाग में एक स्थायी डर या गुस्सा पैदा करता है, जो उन्हें विकास, रोजगार, या महंगाई जैसे मुद्दों से भटकाकर सिर्फ 'पहचान' के आधार पर वोट डालने के लिए मजबूर करता है।
क्या चुनावी मुद्दे हमेशा 'लापता' हो जाते हैं? बिहार की राजनीति का यह कड़वा सच है कि चुनाव की शुरुआत रोजगार, बिजली, सड़क, पानी जैसे बुनियादी मुद्दों से होती है, लेकिन अंत में गाड़ी हिंदू-मुस्लिम के ट्रैक पर चली ही जाती है।
शुरूआती चुनावी मुद्दे: 10 लाख सरकारी नौकरियां, विशेष राज्य का दर्जा, उद्योगों की स्थापना।
अंतिम समय में बदलते मुद्दे: मुस्लिम डिप्टी सीएम, बुर्का, वक्फ बोर्ड/कानून। आखिर क्यों?
जंगलराज बनाम सुरक्षा
NDA हर चुनाव में 'जंगलराज' की याद दिलाकर सुरक्षा की भावना को भुनाता है।
भाई-भतीजावाद: दोनों बड़े गठबंधन पर परिवारवाद और भाई-भतीजावाद हावी रहा है, जिससे जमीनी मुद्दे कभी ऊपर नहीं आ पाते।
इमोशनल राजनीति: मुद्दों पर जवाब देने की जिम्मेदारी से बचने का सबसे आसान तरीका है, मतदाता को भावनात्मक रूप से बांट देना। यह राजनीति की विडंबना है- जब जनता विकास की बात करना चाहती है, तब नेता उन्हें पुरानी 'पहचान' की लड़ाइयों में उलझा देते हैं।
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