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हरिशंकर तिवारी, एक गैंगस्टर जिसने यूपी को बना दिया था मुंबई

यूपी में माफियागिरी की शुरुआत हरिशंकर तिवारी से हुई। वो पहले डान थे, माफियाओं के बीच उन्हें बाबा का तमगा हासिल था। कोई भी बाहुबली हो लेकिन हरिशंकर तिवारी से भिड़ने की कोई जुर्रत नहीं करता था।

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Shailendra Gautam
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Hari Shankar Tiwari

नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्कः मायानगरी मुंबई में गैंग बनाने की शुरुआत करीम लाला ने शुरू की थी। 60 के दशक में पठान गैंग मुंबई पर सक्रिय हुआ और फिर दाऊद इब्राहिम के सीन में आने तक मुंबई पठानों के कब्जे में रही। दाऊद ने कभी अपने आका रहे करीम लाला के साम्राज्य को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया। यूपी को देखें तो यहां माफियागिरी की शुरुआत हरिशंकर तिवारी से हुई। वो पहले डान थे, माफियाओं के बीच उन्हें बाबा का तमगा हासिल था। कोई भी बाहुबली हो लेकिन हरिशंकर तिवारी से भिड़ने की कोई जुर्रत नहीं करता था। माफिया जगत में वो हर किसी के आका थे। लेकिन एक समय ऐसा भी आया जब करीम लाला की तरह उनके एक चेले ने चुनौती दी। तिवारी को अपनी जान बचाने के लिए छिपकर भी रहना पड़ा।

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गोरखपुर विवि का छात्र राजनीति से ऊभरे थे हरिशंकर तिवारी

जेपी आंदोलन के समय में गोरखपुर विवि में एक नाम तेजी से उभरा। वो था हरिशंकर तिवारी का। तिवारी ने छात्र राजनीति पर अपनी बेहद तीखी पकड़ बनाई। वो बाहुबली थे, लिहाजा उनके इर्द गिर्द की टीम लगातार बड़ी होती चली गई। उस दौर में हरिशंकर तिवारी को विशुद्ध रूप से सिर्फ बाहुबली के रूप में शुमार किया जाता था। वो ब्राह्मणों के सरमाएदार था। उनकी अदावत हुई ठाकुरों को नेता वीरेंद्र प्रताप शाही से। दोनों के बीच किस कदर की अदावत थी कि 80 के दशक में गोरखपुर में गोलियों की तड़तड़ाहट आम हो चली थी। शाही से तिवारी की कई बार खूनी जंग हुई। 

जेल से ही चुनाव जीतकर बना दिया रिकार्ड

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हालांकि शाही से जंग के बीच में तिवारी को खुद को बनाए रखने का नुस्खा समझ में आ गया। उनको पता था कि माफिया के तौर पर वो लंबी पारी तभी खेल सकते हैं जब उनका राजनीति में दखल हो। तिवारी ने किसी राजनेता को अपना गॉडफादर बनाने की जगह खुद ही उस जगह पर जाने की ठानी। वो 1985 में गोरखपुर की चिल्लूपार असेंबली सीट से खड़े हुए।

खास बात थी कि जब चुनाव हुआ तब तिवारी जेल की सींखचों के पीछे थे। राजनीति में ये भी एक रिकार्ड है कि तिवारी ही वो पहले नेता थे जो जेल के भीतर रहकर चुनाव जीते। उसके बाद तो कई ऐसे मामले आए गए। हालांकि एक समय वो भी था जब सरकार भी तिवारी से भय खाती थी। तिवारी पर लगाम कसने के लिए यूपी के सीएम वीर बहादुर सिंह ने जनवरी 1986 में उत्तर प्रदेश गैंगस्टर्स एंड एंटी-सोशल एक्टिविटीज (रोकथाम) एक्ट को लागू किया था। इसे बाद में विधानसभा और विधान परिषद से पारित किया गया। कानून आज भी राज्य में लागू है।

तिवारी से गैंगवार ने शाही को भी बना दिया नेता

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तिवारी और शाही के बीच सांप नेवले जैसी दुश्मनी रही। अपराध की दुनिया और सरकारी ठेकों पर अपनी पकड़ बनाने के बाद दोनों राजनीति में भी किस्मत आजमाने लगे। तिवारी 1985 में पहली बार यूपी की विधानसभा पहुंचे तो शादी 1974 में बस्ती सीट से हारने के बाद 1981 में महराजगंज जिले के लक्ष्मीपुर से एक उपचुनाव में निर्दलीय विधायक बने थे। 1989, 1991 और 1993 में तिवारी कांग्रेस के उम्मीदवार के रूप में जीते और 1996 में अपनी पार्टी अखिल भारतीय लोकतांत्रिक कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर जीत हासिल की है। दूसरी तरफ शाही 1985 में भी लक्ष्मीपुर से जीते। दोनों इस कदर ताकतवर हो चुके थे कि अस्सी के दशक की शुरुआत में एक समय यूपी के कम से कम 30 विधायक तिवारी के हमदर्द थे जबकि लगभग 10 विधायक शाही के समर्थकों में थे। 

चिल्लूपार सीट से लगातार 22 साल तक जीतते रहे

तिवारी ने चिल्लूपार सीट से लगातार 22 साल तक अपना परचम लहराया। वो किसी न किसी पार्टी से टिकट का जुगाड़ कर ही लेते थे। पहले चुनाव जीतते और फिर मंत्री बन जाते। कहने को तो वो राजनेता बन गए थे। लेकिन माफिया में उनका दखल बदस्तूर जारी था। यूपी हो या बिहार, कहते हैं कि उनकी जानकारी के बगैर कहीं पर भी कुछ बड़ा नहीं हो पाता था। तिवारी ने अपने आगे भी एक टीम खड़ी की जो उनके इशारे पर काम करती थी।

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हरिशंकर तिवारी की खोज था श्रीप्रकाश शुक्ला

यूपी के तमाम माफिया हरिशंकर तिवारी के सामने नतमस्तक होते थे। क्योंकि तिवारी के पास एक ऐसी टीम थी जो उनके कहने पर कुछ भी कर गुजरती थी। श्रीप्रकाश शुक्ला उनका ही शागिर्द था। तिवारी ने हत्या के एक मामले में नामजद श्रीप्रकाश शुक्ला को पुलिस के चंगुल से बचाया था। वो भी ब्राह्मण था। तिवारी को उसमें काफी संभावनाएं दिखीं। श्रीप्रकाश बेहतरीन छात्र था। लेकिन लाइन से एक बार भटका तो भटकता ही चला गया। एक बार पुलिस के रिकार्ड में नाम आने के बाद उसने पीछे मुड़कर नहीं देखा। बताते हैं कि तिवारी के कहने पर उसने कई जरायम किए। हरिशंकर तिवारी को वो अपना सब कुछ मानता था। उनके एक इशारे पर कुछ भी करने को तैयार था।

जब श्रीप्रकाश से करा दी शाही की हत्या

तिवारी रेलवे के ठेकों के साथ पूर्वांचल की आपराधिक दुनिया पर एक छत्र राज चाहते थे। लेकिन शाही से उनको लगातार चुनौती मिल रही थी। शाही का काम तमाम करने का जिम्मा उन्होंने शुक्ला को सौंपा। 31 मार्च, 1997 को शुक्ला ने शाही को लखनऊ में मार गिराया। उस समय शाही मंत्री थे। उनको एके 47 से 100 से ज्यादा गोलियां मारी गईं। शाही के मरने के बाद तिवारी की राह का सबसे बड़ा कांटा तो हट गया लेकिन उऩको नहीं पता था कि श्रीप्रकाश खतरनाक हो चुका है। वो उन पर भारी पड़ने वाला है।

सूरजभान के पास जाते ही श्रीप्रकाश खतरनाक हो गया

शाही को मारते ही शुक्ला यूपी और बिहार के गैंगस्टर्स की नजरों में आ गया। तिवारी अभी तक उसके सरपरस्त थे। इसी दौरान बिहार के बाहुबली सूरजभान ने उसको दाना फेंका। शुक्ला ने मोकामा के डान के कहने पर बिहार के बाहुबली मंत्री बृज बिहारी प्रसाद को सरकारी अस्पताल में दिनदहाड़े मार दिया। तिवारी को पता चल गया था कि शुक्ला उनके हाथ से निकल गया है। लेकिन वो चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे।

चिल्लूपार से चुनाव लड़ना चाहता था श्रीप्रकाश

तिवारी के लिए सबसे बड़ा संकट तब खड़ा हुआ जब चिल्लूपार की सीट पर शुक्ला की नजर पड़ी। शुक्ला को उस समय तक ये एहसास हो गया था कि अगर वो राजनीति में नहीं आया तो पुलिस एनकाउंटर कर देगी। उसने तिवारी को सीधे धमकी दे डाली कि या तो चिल्लूपार को भूल जाएं या फिर मरने के लिए तैयार रहें। ये सीन भी मुंबई के माफिया जगत जैसा बन पड़ा था। करीम लाला का चेला दाऊद था और उसने ही उनको निपटा दिया। यहां तिवारी का चेला शुक्ला था जो अब बहुत बड़ा हो चुका था। 

तिवारी से मिली टिप से पुलिस के हाथों मरा था शुक्ला

लेकिन उसके बाद आया यूपी के सीएम कल्याण सिंह की सुपारी का मामला और शुक्ला को फिर 22 सितंबर, 1998 को एक एनकाउंटर में गाजियाबाद के इंदिरापुरम में पुलिस ने मार गिराया। कहते हैं कि शुक्ला की टिप पुलिस को तिवारी से ही मिली थी। शुक्ला तिवारी को समझ नहीं पाया। वो समझा कि तिवारी में अब दम नहीं रहा। लेकिन तिवारी अपराध की दुनिया के घाघ खिलाड़ी थे। उन्होंने वो गलती नहीं की जो करीम लाला ने की थी। उन्होंने शुक्ला को ही रास्ते से हटा दिया। तिवारी कितने घाघ माफिया थे इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि अपराध की दुनिया में राज करने के बाद भी कोई दूसरा माफिया उनको छू भी नहीं पाया। 2023 में वो बुढ़ापे की वजह से परलोक सिधारे।

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