नई दिल्ली, वाईबीएन नेटवर्क।
दिल्ली का चुनाव कई मायनों में काफी रोचक है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी की प्रतिष्ठा के लिए यह चुनाव महत्वपूर्ण हो गया है। केजरीवाल मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं, लेकिन भाजपा और कांग्रेस के दोनों शीर्ष नेताओं ने चुनान में खुद को झोंक दिया है। पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व पर लोगों की निगाहें इस बार भी टिकी हुई हैं। केजरीवाल, जो लगातार तीन चुनावों से जीत हासिल कर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे, वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने भले ही देश के अन्य हिस्सों में अच्छा प्रदर्शन किया हो, लेकिन दिल्ली विधानसभा में पार्टी लगातार दो चुनावों से 70 सीटों में से दहाई का आंकड़ा भी पार नहीं कर पाई है।
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केजरी वाल के खिलाफ 12 साल की एंटी इनकंबेंसी
केजरीवाल को लगभग 12 साल बाद कई मुद्दों पर एंटी-इनकंबेंसी का सामना करना पड़ रहा है, जो चुनाव की दिशा को प्रभावित कर सकता है। साल 2024 में हुए लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस ने एक साथ चुनाव लड़ा था, लेकिन दिल्ली विधानसभा चुनाव में दोनों ही पार्टी अलग-अलग चुनाव लड़ रही हैं।इस स्थिति में यह सवाल अहम बनता है कि क्या आम आदमी पार्टी (आप) और कांग्रेस के बीच का यह टकराव भाजपा के लिए फ़ायदेमंद साबित होगा?इसके अलावा, मुस्लिम बहुल सीटों पर असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी, ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) की उपस्थिति भी चुनाव परिणामों पर असर डाल सकती है। वहीं, महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव की तरह क्या एक बार फिर महिला वोटर्स तय करेंगी सरकार? यह देखना कम दिलचस्प नहीं होगा कि चुनाव परिणामों पर कितना असर पड़ता है और क्या भाजपा इस बार मौके को भुना पाती है।
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भाजपा लगातार 6 बार हार का सामना कर चुकी है
इन चुनावों में भाजपा ने पूरी ताकत झोंक रखी है। जितने के लिए भाजपा हर तरह का हथकंडा अपना रही है। उसके पास मजबूत तंत्र और संगठन है। फिर भी तीन बार कांग्रेस और तीन बार दिल्ली में आम आदमी पार्टी से हार चुकी है।सातवीं बार भाजपा जीत के मजबूत इरादे सेउतरी है और स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव की कमान अपने हाथों में ले रखी है। चुनाव प्रचार के अंतिम दिन प्रधानमंत्री, गृहमंत्री,रक्षा मंत्री से लेकर 241 सांसदों और राज्यों के मुख्यमंत्रियों की फौज भाजपा ने इस चुनाव में उतार दी। दक्षिण भारत के मतदाताओं का रूख अपनी ओर मोड़ने के लिए भाजपा के समर्थन में आंध्र के मुख्यमंत्री चंद्र बाबू नायडू तक कोमैदान में उतरना पड़ा। इससे समझा जा सकता है कि भाजपा के लिए यह चुनावा कितना अहम है?
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कांग्रेस को भी जीत की तलाश
कभी दिल्ली की राजनीति में एक मज़बूत ताकत रही कांग्रेस पार्टी पिछले दो विधानसभा चुनावों में अपना खाता तक नहीं खोल पाई है। वर्ष 2013 में अन्ना आंदोलन से उभरी आम आदमी पार्टी की सरकार बनने से पहले कांग्रेस ने लगातार पंद्रह साल तक दिल्ली पर शासन किया था। जब कांग्रेस दिल्ली में अपने शीर्ष पर थी तब उसके पास 40 फीसदी तक का वोट शेयर था। लेकिन 2020 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस सिर्फ 4.26 प्रतिशत ही वोट हासिल कर सकी। इस बार कांग्रेस ने भी पूरी ताकत लगा रही है।
दलित, पिछड़ों और मुसलमानों मतदाओं को लेकर कांग्रेस को भरोसा है कि वहउसके पक्ष में वोट देंगे। कांग्रेस का सारा ध्यान भी मुसिलम प्रभाव वाली सात से आठ सीटों पर है। आम आदमी पार्टी से समझौता नहीं करके पार्टी ने इस चुनाव में अकेले ही मोर्चा लिया। इसकी वजह है कि राहुल गांधी को उनकी पार्टी के नेताओं ने यह यकीन दिलाया कि क्षेत्रीय पार्टिया उनके वोट शेयर को खा रही हैं। इस स्थिति में कांग्रेस को अपना वोट वापस पाने के लिए इन पार्टियों के ख़िलाफ़ चुनावी लड़ाई लड़नी होगी। अब असली फैसला 5 फरवरी को राज्य की जनता को करना है कि दिल्ली की सत्ता किसे सौंपनी है।
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