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Explainer: क्या अब चिराग दोहरा पाएंगे इतिहास? 2005 में रामविलास ने लालू को दी थी सियासी पटखनी? | यंग भारत न्यूज Photograph: (YBN)
नई दिल्ली, वाईबीएन डेस्क । बिहार की सियासत में “किंगमेकर” कहलाने वाले रामविलास पासवान ने साल 2005 में ऐसा दांव चला था, जिसने लालू प्रसाद यादव की सत्ता को पलट कर रख दिया था। उस वक्त लालू के नेतृत्व वाला राजद गठबंधन सत्ता में था, लेकिन जनता में बढ़ती नाराज़गी और पासवान की समय पर की गई राजनीतिक चाल ने पूरा समीकरण बदल दिया।
साल 2005 के विधानसभा चुनाव में रामविलास पासवान की पार्टी लोक जनशक्ति पार्टी LJP ने करीब 29 सीटें जीतकर निर्णायक स्थिति हासिल कर ली थी। भाजपा-जदयू गठबंधन बहुमत से थोड़ा दूर था, जबकि राजद भी सत्ता से नीचे रह गया। उस वक्त पासवान ने साफ़ कहा- “ना लालू के साथ, ना भाजपा के साथ।” उनके इस फैसले ने लालू के लिए सरकार बनाना नामुमकिन कर दिया।
नतीजा- बिहार में राष्ट्रपति शासन लगा और कुछ ही महीनों बाद नई सरकार बनी, जिसमें नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने। यहीं से नीतीश की लंबी सत्ता यात्रा की शुरुआत हुई। आज, दो दशक बाद वही कहानी जैसे दोहराई जा रही है। चिराग पासवान, जो अब एलजेपी रामविलास के प्रमुख हैं, NDA में रहते हुए भी अपनी स्वतंत्र सियासी पहचान बना रहे हैं। बिहार की राजनीति फिर एक ऐसे मोड़ पर है जहां “पासवान फैक्टर” सत्ता की दिशा तय कर सकता है। क्या चिराग भी अपने पिता की तरह “किंगमेकर” बनकर इतिहास दोहराएंगे - यही सवाल अब बिहार की सियासी गलियों में गूंज रहा है।
बिहार की सियासत में फिर किंगमेकर बनने का खेल शुरू हो गया है। रामविलास पासवान के नक्शेकदम पर चलते हुए चिराग पासवान अब NDA से अपनी शर्तें मनवाने की कोशिश में करीब करीब कामयाब हो गए हैं। सवाल यह है कि क्या चिराग अपने पिता की तरह 2005 वाला दांव दोहराकर इस बार नीतीश कुमार की सत्ता को अप्रत्यक्ष रूप से चुनौती देंगे?
Yong Bharat News के एक्प्लेनर में पढ़िए पूरा विश्लेषण, क्या बिहार चुनाव 2025 में उनकी पार्टी की भूमिका निर्णायक हो सकती है। रामविलास की राह पर चिराग 2025 में किंगमेकर बनने की तैयारी में हैं?
वैसे भी बिहार की राजनीति हमेशा से अप्रत्याशित रही है। बिहार का 'किंग' कौन बनेगा, यह अक्सर 'किंगमेकर' यानी छोटी पार्टियां ही तय करती हैं। इस बार के विधानसभा चुनावों से पहले, सबकी निगाहें लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास के नेता चिराग पासवान पर टिकी हैं। चिराग, ठीक अपने दिवंगत पिता रामविलास पासवान की तरह, सत्ता की चाबी अपने हाथ में रखने की महत्वाकांक्षा पाले हुए दिख रहे हैं।
बता दें कि रामविलास पासवान ने साल 2005 में एक ऐसा ही दांव खेला था जिसने बिहार की राजनीति का नक्शा ही बदल दिया। उनके एक फ़ैसले ने लालू प्रसाद यादव के 15 साल पुराने शासन को ध्वस्त कर दिया था। अब चिराग उसी विरासत को आगे बढ़ाने की कोशिश में हैं। लेकिन, सवाल उठता है कि क्या चिराग पासवान के पास उनके पिता रामविलास पासवान जैसा सियासी माद्दा और मौक़ा है? यह जानने के लिए हमें बिहार के सियासी इतिहास के उस पन्ने को पलटना होगा।
2005 में रामविलास ने लालू यादव को किया था 'चित'
लालू प्रसाद यादव की राजनीति साल 1990 से लेकर 2005 तक बिहार पर हावी रही। उनका मुस्लिम-यादव MY समीकरण एक अजेय किला समझा जाता था। लेकिन, चारा घोटाला और 'जंगलराज' की छवि ने उनकी पकड़ को कमजोर किया। साल 2005 के विधानसभा चुनाव हुए। नतीजे आए और किसी भी पार्टी या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला।
NDA बीजेपी-जदयू 88 सीटें। आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन 56 सीटें। रामविलास पासवान की LJP 29 सीटें। यहां LJP की 29 सीटें किंगमेकर बन गईं। रामविलास पासवान के पास लालू को सत्ता में लाने या बाहर रखने का सीधा मौका था। उन्होंने लालू को समर्थन देने से साफ इनकार कर दिया।
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पासवान की 'मुस्लिम मुख्यमंत्री' वाली शर्त
रामविलास पासवान ने एक बड़ी और चौंकाने वाली शर्त रखी या तो कोई मुस्लिम मुख्यमंत्री बनेगा, या फिर सरकार नहीं बनेगी। लालू यादव ने मुस्लिम उम्मीदवार का नाम भी सुझाया, लेकिन रामविलास पासवान ने उसे भी ख़ारिज कर दिया। यह सीधे तौर पर लालू की सत्ता के ख़िलाफ़ उठाया गया बड़ा कदम था।
विधानसभा भंग हो गई और महज़ कुछ महीनों बाद अक्टूबर 2005 में दोबारा चुनाव हुए। इस बार NDA गठबंधन बीजेपी-जदयू ने 143 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत हासिल किया। नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने और लालू के 15 साल के शासन का अंत हो गया।
रामविलास पासवान की पार्टी को भले ही नए चुनावों में सिर्फ़ 10 सीटें मिलीं, लेकिन उन्होंने दिखा दिया कि एक छोटी पार्टी भी बड़े से बड़े 'किंग' को उखाड़ फेंकने की ताकत रखती है। यह 'किंगमेकर' की ताकत का सबसे बड़ा उदाहरण था।
चिराग का उदय 'वोट काटवा' से 'गेम चेंजर' तक का सफर
रामविलास पासवान के निधन के बाद, उनके बेटे चिराग पासवान के लिए सफ़र आसान नहीं रहा। पिता की विरासत संभालने के तुरंत बाद, उन्हें पारिवारिक फूट का सामना करना पड़ा। चाचा पशुपति कुमार पारस ने पार्टी को दो हिस्सों में बांट दिया। चिराग ने अपनी नई पार्टी का नाम रखा लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास।
चिराग पासवान की ताकत बिहार की 3 परसेंट पासवान दलित आबादी के वोट बैंक पर टिकी है।
साल 2020 का 'भाईचारा' और JDU को झटका
चिराग पासवान के लिए साल 2020 का बिहार विधानसभा चुनाव एक बड़ा टेस्टिंग ग्राउंड था। उन्होंने NDA से अलग होकर चुनाव लड़ा, लेकिन बीजेपी से 'भाईचारा' बनाए रखा। उनका सीधा निशाना नीतीश कुमार की JDU पर था। चिराग की पार्टी ने 137 सीटों पर चुनाव लड़ा। सिर्फ़ 1 सीट जीत पाई, लेकिन... 34 सीटों पर चिराग की पार्टी ने JDU को नुकसान पहुंचाया।
नतीजा यह हुआ कि NDA जीती, पर नीतीश कुमार की पार्टी JDU संख्या के मामले में तीसरे नंबर पर खिसक गई। चिराग को भले ही विपक्ष ने 'वोट काटवा' कहा, लेकिन उन्होंने अपनी राजनीतिक प्रासंगिकता साबित कर दी। 2024 के लोकसभा चुनाव ने इस बात पर मुहर लगा दी। चिराग पासवान की पार्टी ने 5 में से 5 सीटें जीतकर यह दिखाया कि वह अब सिर्फ़ 'वोट काटवा' नहीं, बल्कि बिहार की सियासत का एक बड़ा 'गेम चेंजर' हैं।
साल 2025 का दांव कितनी सीटों पर किंगमेकर बनेंगे चिराग?
अब जबकि साल 2025 के विधानसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान हो चुका है, चिराग पासवान फिर से सुर्खियों में हैं। वह NDA गठबंधन में रहते हुए भी अपनी शर्तें मनवाने के मूड में हैं। सीटों की डिमांड चिराग लगभग 40 'जीतने लायक' सीटें मांग रहे हैं।
बीजेपी की पेशकश: मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक बीजेपी करीब 29 सीटें देने को तैयार है और इस बात की अब घोषणा होना बाकी है।
अनारक्षित सीट से लड़ने का ऐलान: चिराग ने सामान्य अनारक्षित सीट से चुनाव लड़ने की बात कहकर अपने दलित वोट बैंक से बाहर निकलकर व्यापक नेता बनने की रणनीति का संकेत दिया है। चिराग का कहना है कि उनकी कोई निजी डिमांड नहीं, वह सिर्फ़ 'बिहार फर्स्ट और बिहारी फर्स्ट' चाहते हैं। लेकिन सियासी गलियारों में यह साफ़ है कि वह अधिकतम सीटें जीतकर 'किंगमेकर' की भूमिका हथियाना चाहते हैं।
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चिराग की नज़र में क्या है?
अगर NDA गठबंधन इस बार बहुमत के आंकड़े से चूक जाता है, या मामूली बहुमत ही हासिल करता है, तो चिराग के 25-30 विधायक सत्ता की चाभी बन सकते हैं। यह ठीक 2005 की स्थिति दोहराने जैसा होगा। अगर ऐसा होता है, तो चिराग के हाथ में मुख्यमंत्री की दावेदारी या फिर उप-मुख्यमंत्री पद की गारंटी जैसी बड़ी शर्तें मनवाने का सुनहरा मौका होगा। वह अपने पिता के फॉर्मूले पर चलते हुए, अपने वोट बैंक का इस्तेमाल NDA को मजबूत करने के लिए करेंगे, लेकिन अपनी शर्तों पर।
बिहार की सियासत में बड़ा प्रश्न क्या चिराग का दांव सफल होगा?
चिराग पासवान के सामने साल 2005 के रामविलास पासवान की तरह ही बड़ा दांव लगाने का मौका है, लेकिन जोखिम भी कम नहीं है।
किंगमेकर बनने के फायदे: सत्ता में मजबूत भागीदारी उप-मुख्यमंत्री पद या मनचाहे मंत्रालय।
वोट बैंक का विस्तार: दलित नेता से निकलकर सर्व-समाज नेता के तौर पर स्थापित होना।
राजनीतिक कद में भारी इजाफा: राष्ट्रीय राजनीति में पहचान बनना।
'वोट काटवा' का टैग वापस: अगर वह अपने दम पर सीटें नहीं जीत पाए और NDA को भी नुकसान पहुंचाया, तो राजनीतिक रूप से अलग-थलग पड़ सकते हैं।
गठबंधन से बाहर होने का खतरा: ज़रूरत से ज़्यादा मोलभाव करने पर बड़े गठबंधन NDA से बाहर होने का ख़तरा।
बिहार का वोटर इस बार विकास, रोज़गार और जाति से ऊपर उठकर फैसला लेने की कोशिश कर सकता है। ऐसे माहौल में चिराग की महत्वाकांक्षा बिहार की राजनीति को किस मोड़ पर ले जाती है, यह देखना दिलचस्प होगा।
चिराग पासवान अपने पिता की तरह बड़ा राजनीतिक भूचाल ला पाते हैं या नहीं, इसका जवाब 14 नवंबर नतीजों का दिन को ही मिलेगा। चिराग के कदम बता रहे हैं कि वह सिर्फ़ 'किंग' नहीं बनना चाहते, बल्कि 'किंगमेकर' बनकर राजनीति के नियमों को बदलना चाहते हैं।
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