Advertisment

कांग्रेस के डर से चुनावी राजनीति में आया था सिंधिया परिवार? जानिए पूरी कहानी

68 साल पहले विजयाराजे सिंधिया ने कांग्रेस के टिकट पर पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ा था। इसी के साथ सिंधिया परिवार की सियासत में एंट्री हुई थी। कहा जाता है कि कांग्रेस से डर के कारण विजयाराजे चुनाव लड़ने को मजबूर हुई थीं।

author-image
Aditya Pujan
Scindia

Scindia

Listen to this article
0.75x 1x 1.5x
00:00 / 00:00

नई दिल्ली, वाईबीएन नेटवर्क

Advertisment

देश के सबसे अमीर परिवारों में शामिल ग्वालियर का सिंधिया खानदान करीब सात दशक से राजनीति में सक्रिय है। परिवार की तीन पीढ़ियां जनसंघ, बीजेपी और कांग्रेस में रहकर विधायक, सांसद, मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री तक के पद तक पहुंच चुकी हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस परिवार की सियासत में एंट्री कैसे हुई थी। अपनी घर-गृहस्थी संभालने से संतुष्ट महारानी विजयाराजे सिंधिया चुनावी मैदान में उतरने को क्यों राजी हुईं। वो भी कांग्रेस के टिकट पर जिसे उनके पति पसंद नहीं करते थे। 

चंबल में सिंधिया परिवार का प्रभाव

सियासत में सिंधिया परिवार के कदम 1957 में पड़े, लेकिन हम अपने किस्से की शुरुआत 2019 के लोकसभा चुनाव से करेंगे। वो भी सियासत में इस परिवार के सबसे छोटे सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ। 2019 के चुनाव में ज्योतिरादित्य कांग्रेस के टिकट पर गुना सीट से लड़े थे। उन्हें बीजेपी के केपी यादव ने हरा दिया था। ये वही केपी यादव थे जो कभी सिंधिया के स्टाफ में शामिल थे और ज्योतिरादित्य के साथ सेल्फी लेकर खुद को खुशकिस्मत समझते थे। जाहिर है, सिंधिया इस हार से आहत थे। हार की टीस इसलिए भी ज्यादा थी क्योंकि ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में सिंधिया परिवार के किसी सदस्य की यह पहली हार थी। इसके एक साल पूरा होने से पहले ही उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी और बीजेपी में शामिल हो गए। सिंधिया को लगा कि ये हार उनसे ज्यादा कांग्रेस पार्टी की हार थी जो काफी हद तक सही भी थी। इस इलाके के लोग अब भी सिंधिया महाराज को अपना राजा मानते हैं। उनकी एक अपील से किसी उम्मीदवार की हार और जीत तय हो जाती है, चाहे वो किसी भी पार्टी का हो। चुनावी इतिहास में केवल एक ऐसा मौका था जब सिंधिया परिवार का कोई सदस्य कांग्रेस के साथ नहीं था और तब उसे करारी हार का सामना करना पड़ा था। 1952 के लोकसभा चुनाव में ग्वालियर क्षेत्र की दोनों सीटों पर कांग्रेस को हार मिली थी।

Advertisment

Mahakumbh 2025: बिना अन्न और जल के सिर्फ चाय के सहारे कर रहे साधना, शिक्षा के अद्भुत दान को बनाया है जीवन का मकसद

नेहरू ने सिंधिया परिवार पर डाला डोरा 

आजादी के ठीक बाद के उस दौर में पूरे देश में कांग्रेस का बोलबाला था। पार्टियां कई थीं, लेकिन वोटिंग का एक ही आधार था- प्रो कांग्रेस या एंटी कांग्रेस। 1947 में देश की आजादी के समय ज्योतिरादित्य के दादा जीवाजीराव सिंधिया ग्वालियर के महाराज थे। उनकी राजनीति में रुचि नहीं थी। 1952 के पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 489 में से 364 सीटों पर जीत मिली थी। देश के हर इलाके से उसके उम्मीदवार जीते थे, लेकिन ग्वालियर क्षेत्र की दोनों सीटों पर उसे हार मिली थी। ग्वालियर और गुना सीटों से अखिल भारतीय हिंदू महासभा का एक ही उम्मीदवार जीता था। महासभा के महासचिव विष्णु घनश्याम देशपांडे दोनों सीटों पर कांग्रेस प्रत्याशी को हराने में सफल रहे थे। उन्होंने बाद में ग्वालियर सीट छोड़ दी तो वहां उपचुनाव हुए। उपचुनाव में भी कांग्रेस को शिकस्त मिली और एक बार फिर हिंदू महासभा का उम्मीदवार विजयी रहा था। उस समय यह धारणा थी कि जीवाजीराव सिंधिया हिंदू महासभा का समर्थन करते हैं। कांग्रेस नेतृत्व, खासकर प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू सिंधिया परिवार को संदेह की नजरों से देखने लगे। एक साल के अंदर मिली दो हारों के बाद कांग्रेस ने अपनी रणनीति बदली और सिंधिया परिवार को अपने पाले में लाने के लिए प्रयास शुरू कर दिए। नेहरू ने इसके लिए साम-दाम, दंड-भेद, हर तरीका अपनाने का फैसला कर लिया।

Advertisment

Big challenge to congress : क्या अपनी प्रतिष्ठा बचा पाएगी कांग्रेस!

जीवाजीराव पर नेहरू को शक

ग्वालियर क्षेत्र में सिंधिया परिवार की लोकप्रियता का नेहरू को पहले से भी अंदाजा था। वे 1948 में ग्वालियर गए थे, तब जीवाजीराव सिंधिया के साथ उनकी एक सभा हुई थी। सभा में नेहरू के भाषण से पहले सिंधिया महाराज उनका परिचय देने के लिए उठे। सामने मौजूद भीड़ ने महाराज का तालियों की गड़गड़ाहट से स्वागत किया। जब नेहरू भाषण के लिए उठे तो तालियों की आवाज कमजोर पड़ गई। नेहरू को तभी ये खटक गया और उन्होंने अपने भाषण में इसकी चर्चा भी की। उन्होंने जीवाजीराव को उलाहना दिया कि ग्वालियर के लोग अतीत में जी रहे हैं। इस घटना ने दोनों के रिश्तों में दूरी ला दी। हालांकि, महाराज ने इसके बाद हमेशा सावधानी रखी। कांग्रेस नेताओं की सभा होती तो भीड़ की अगली पंक्ति में महाराज अपने लोगों को बिठा देते जिनका काम कांग्रेस के समर्थन में नारे लगाना होता था। इस घटना के बाद नेहरू सिंधिया के महल भी गए, लेकिन रिश्तों में खटास बनी रही। उस मीटिंग में यदि नेहरू के लिए तालियां बजी होतीं, तो शायद सिंधिया परिवार को राजनीति में आने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ता।

Advertisment

Delhi election में भाजपा लगा सकती है स्मृति ईरानी पर बड़ा दांव

जीवाजीराव को चुनाव लड़ने का ऑफर

आखिर क्या वजह थी कि सिंधिया परिवार को कांग्रेस के साथ जोड़ने के लिए नेहरू इतने लालायित थे। दरअसल, उन दिनों ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में आठ लोकसभा सीटें थीं, जिनमें सिंधिया परिवार का खासा प्रभाव था। इनके अंतर्गत विधानसभा की करीब 60 सीटें थीं। इधर, 1957 के लोकसभा चुनाव से पहले चर्चा चली कि जीवाजीराव हिंदू महासभा के टिकट पर ग्वालियर से चुनाव लड़ सकते हैं। इन चर्चाओं में कोई सच्चाई नहीं थी क्योंकि जीवाजीराव की राजनीति में कोई रुचि नहीं थी, लेकिन  नेहरू के कान खड़े हो गए। उन्होंने जीवाजीराव पर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने का दबाव डालना शुरू कर दिया। चुनाव से करीब एक साल पहले उन्होंने महाराज जीवाजीराव को कांग्रेस का उम्मीदवार बनाने का प्रस्ताव भेजा। प्रस्ताव के साथ अप्रत्यक्ष चेतावनी भी थी कि इसे स्वीकार नहीं करने का मतलब कांग्रेस-विरोध है। अपनी आत्मकथा राजपथ से लोकपथ पर में राजमाता ने बताया है, जीवाजीराव ने कभी भी कांग्रेस को आम लोगों के लिए अनुकूल नहीं माना। कांग्रेस के खिलाफ खड़ी होने वाली पार्टी के प्रति उनका स्पष्ट लगाव था। बताया जाता है कि जब यह प्रस्ताव ग्वालियर महल में पहुंचा, तब जीवाजीराव वहां नहीं थे। राजमाता ने उनसे ट्रंक कॉल पर संपर्क करने की कोशिश की। वे 24 घंटे तक लगातार कोशिश करती रहीं, लेकिन जीवाजीराव से संपर्क नहीं हो पाया।

यूपी में एक समय पर दो सीएम, राज्यपाल की 'अनुकंपा' से जगदंबिका पाल ने किया था कल्याण सिंह का तख्तापलट

राजमाता ने छोड़ दी कांग्रेस

विजयाराजे समझती थीं कि कांग्रेस का विरोध करने का खामियाजा सिंधिया परिवार को भुगतना पड़ सकता है। उन्होंने बड़ौदा के पूर्व महाराज प्रताप सिंह का हश्र देखा था। प्रताप सिंह ने पूर्व महाराजाओं का एक संघ बनाया था जिसके बाद उनका प्रिवी पर्स रोक दिया गया था और उनके सभी विशेषाधिकार छीन लिए गए थे। इन आशंकाओं के बीच विजयाराजे ने नेहरू से मिलने का समय मांगा। तत्कालीन राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद के सैन्य सचिव यदुनाथ सिंह के जरिये उन्होंने नेहरू और इंदिरा गांधी से अपॉइंटमेंट तय किया। मीटिंग में उन्होंने नेहरू से कहा, पंडितजी, आपको कुछ गलतफहमी हुई है। मैं स्पष्ट बताना चाहती हूं कि मेरे पति और मुझे राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है। महाराज कभी भी कांग्रेस का विरोध नहीं  करेंगे। नेहरू ने इसके जवाब में कहा कि भले ही आपके पति कांग्रेस विरोधी नहीं हैं, लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि वे कांग्रेस के साथ हैं। आप इंदिरा के साथ गोविंद वल्लभ पंत और लाल बहादुर शास्त्री के पास जाएं और उन्हें सब कुछ बताएं। पंत और शास्त्री ने उनकी बात सुनी और जीवाजीराव को कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ने का ऑफर दिया। विजयाराजे ने उन्हें बताया कि उनके पति किसी हाल में चुनाव नहीं लड़ेंगे क्योंकि राजनीति में उनकी रत्ती भर रुचि नहीं है। तब दोनों नेताओं ने विजयाराजे को ही चुनाव लड़ने को कहा। विजयाराजे को अंदेशा हो गया कि अगर उन्होंने इंकार किया तो बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। इसी डर से वे कांग्रेस में शामिल होने और गुना से चुनाव लड़ने को तैयार हो गईं। उन्होंने 1957 में कांग्रेस के टिकट पर गुना से चुनाव लड़ा और आसानी से जीत गईं। 1962 में वे दोबारा लड़ीं और जीतीं। इसके एक साल पहले 1961 में जीवाजीराव सिंधिया का निधन हो गया था। फिर, 1964 में नेहरू की मौत के बाद सियासी हालात तेजी से बदलने लगे। कांग्रेस विरोध की हवा तेज होने लगी। राममनोहर लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय जैसे नेताओं के नेतृत्व में विपक्ष एकजुट होने लगा। विजयाराजे के एमपी के तत्कालीन सीएम द्वारका प्रसाद मिश्र से रिश्ते खराब होने लगे और उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी।

Advertisment
Advertisment